नारी उत्कर्ष की सुखद संभावनाओं से भरा गंगावतरण

December 1994

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मनुष्य को सृजा भले ही स्रष्टा ने हो, पर उसे सँभालने, सजाने सुधारने और समर्थ बनाने का श्रेय नारी को ही जाता है। संपन्नता, प्रफुल्लता, कुशलता, कलाकारिता जैसे विशेषताएं उसने नारी को अनेक रूप में कृपापूर्वक प्रदान की हैं। इस अनुग्रह भरे सहयोग के बिना यह कदाचित् मानवी गरिमा से वंचित ही रहता है। वनमानुषों की तरह किसी प्रकार नीरस स्तर के दिन गुजारता है। नारी के अनेकानेक स्वरूप सजीवता के रूप में बरसते हैं और मनुष्य की तृप्ति, तुष्टि और शांति का आधार बनते हैं।

उसकी उदार अनुकंपा एवं समर्पित सेवा साधना के प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त की जाय, उतनी ही कम है। अनुदान का प्रदान दे सकना तो कदाचित् संभव ही नहीं है। उसके ऋणों से उऋण भी नहीं हुआ जा सकता। इतने पर भी यह तो आशा की जानी ही चाहिए कि इस करुणामयी के आड़े समय में काम आया जाय। अपेक्षित प्रत्युपकार की तनिक सी याचना जब की जाय, तो इससे इनकार न किया जाय।

आत्मीयता का परिचय किन्हीं महत्वपूर्ण अवसरों पर उपहार के रूप में प्रस्तुत करने की परंपरा के पीछे यही तत्वदर्शन काम करता है कि उदारता भरे सहयोग प्रस्तुत करने पर ही कृतज्ञता एवं सद्भावना का प्रमाण परिचय प्रस्तुत किया जा सकता है। कन्या के विवाह में कुछ दिया ही जाता है। नारी को विवाह के दिन से स्मृति से उसी प्रकार के प्रतीकों का आदान-प्रदान होता है। मित्रों को किन्हीं सफलताओं के सद्भावना, प्रसन्नता प्रकट करने के लिए कुछ उपहार अनुदान देने का प्रचलन, भावनाओं की सही अभिव्यक्ति से सिद्धाँत पर अवलंबित है।

सहस्राब्दियों बाद इन दिनों एक ऐसा अवसर आया है जब कि नारी से उचित-अनुचित अनुदान लेते रहने के उपराँत अब इस बात का परिचय दें कि हृदयहीन निष्ठुरता को नहीं अपना रखा है और न वे सर्वदा कृतघ्न ही हैं। अच्छा होता सदा से समानता के आधार पर नीतियुक्त आदान-प्रदान चलता रहा होता और एक दूसरे ने परस्पर समान सेवा-सद्भावना का परिचय दिया होता। एकता और समता की कसौटियों पर दोनों पक्ष खरे उतरते रहे होते तो दोनों ने ही असीम लाभ उठाया होता और अपने इन्हीं नगर गाँवों में स्वर्गीय वातावरण का दर्शन मिलता रहा होता। यदि अनीति, पक्षपात शोषण की कुटिलता से बचा जा सका होता तो दोनों नक्ष परस्पर सघन सहयोग के आधार पर उन्नति के उच्च शिखर पर रहते हुए प्रचुर सुख-शांति का रसास्वादन करते रहे होते।

विगत पर पश्चाताप का एक ही सही तरीका है कि वर्तमान को सँभाल लिया जाय और पिछले दिनों खाई खुदती रही है, उसे पाट कर ऐसा समतल बना लिया जाय जिस पर भव्य स्तर के निर्माण-उत्पादन संभव हो सकें। इस शुभारंभ के लिए, इन्हीं दिनों को सर्वोत्तम मुहूर्त समझा जा सकता है। होना यह चाहिए कि पुरुषों का जिन भी घर-बाहर की महिलाओं पर प्रभाव है, उन्हें नारी जागरण के प्रयासों में भाग लेने और बढ़-चढ़ कर प्रयास करने के लिए प्रयास करने का ऐसा प्रोत्साहन, मार्गदर्शन दिया जाय तो निष्फल-निरर्थक बन कर न बिखर जाय।

महिलाओं के बीच सही प्रवेश तो महिलाओं का हो सकता है और वे ही परस्पर-अवाँछनीयता से निपटने और प्रगति पथ अपनाने के लिए एक दूसरे को कुछ न कुछ करते रहने के लिए सहमत कर सकती हैं। इसलिए कार्य क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति तो उन्हें ही संभालनी पड़ेगी, पर पुरुष इतनी कृपा कर सकते हैं कि उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं को निपटाये। सहयोग दें और साधन जुटायें। इतने भर से अपने ही घर-पड़ोस की प्रतिभावान महिलाएँ ऐसे सरंजाम खड़ा कर सकती है जिससे नारी की समर्थता में चार चाँद लगने लगें और वे अगले ही दिनों अपने कंधों पर जो असाधारण दायित्व आने वाले हैं, उनके निर्वाह में वे असमर्थ-असफल सिद्ध न हों, इतनी क्षमता नारी समाज में उत्पन्न करने की जिम्मेदारी विचारशील पुरुषों की ही है। समय पर किये गये कार्य ही सराहे जाते हैं। चूकने पर तो पछतावा ही शेष रह जाता है। नारी की समर्थता में सामर्थ्य भर सहायता इन्हीं दिनों करना यही है वह भरपाई जिससे अब तक की सभी अवाँछनीयताओं का प्रायश्चित एकबारगी हो सकता है। इसके उपराँत तो वे अपने पैरों पर खड़े होने, चलने, बढ़ने और दौड़ने की स्थिति स्वयं प्राप्त कर चुकी होंगी। तब वे इन दिनों की बरती गई उदारता का समुचित बदलता चुकाने में तत्पर दिखाई देंगी और जो सेवा-सहायता अब तक करती रही हैं, उसमें भी कहीं अधिक अभिवृद्धि करेंगी।

यह सोचना निरर्थक है कि समर्थ होने पर नारियाँ पिछली करतूतों का बदला लेंगी और जिस तरह अभी बंधन में बँधी रहती हैं उसमें आनाकानी करेंगी। फलतः पुरुषों को घाटे में रहना पड़ेगा। ऐसी कुशंकाएं वे ही कर सकते हैं जिन्हें नारी की जन्मजात प्रकृति का परिचय नहीं है। माता से किसी पुत्र को, बहन से किसी भाई को, पुत्री से किसी पिता को और पत्नी से किसी पति को बदला लेने का झंझट खड़ा करने की आशंका नहीं करनी चाहिए। उनकी संरचना उन्हें तत्वों से हुई है जिसके कारण कि धरती माता सदा क्षमाशील रहती और अनुदान प्रदान करते रहने में कभी कोताही नहीं बरतती।

उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावनाओं से भरा पूरा गंगावतरण पर्व आदि निकट है। इसी के निमित्त युगसंधि की इन दिनों भागीरथी अभ्यर्थना चल रही है। महाकाल ने उसमें भागीरथी के लिए सर्व साधारण को आमंत्रण दिया है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत युगधर्म ने जीवंत नारियों को मूर्च्छना त्यागने और अपने समुदाय को मानवी गरिमा के अनुरूप गतिविधियों को अपनाने के लिए विशेष रूप से ललकारा है। उन्हें अपने ही पैरों चल कर मंजिल तक पहुँचाना होगा। अगली सदी नारी वर्चस्व की प्रमुखता प्रमाणित करने आ रही है। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण सभी को 1997 के पश्चात् स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेंगे। उसके लिए अपने सहयोग का हाथ बढ़ाने में किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। इस अवसर पर नारी यदि अपनी मूर्छना से विरत न हो सकी तो इतिहास उसे ही नहीं उसके संरक्षक कहलाने वालों को भी क्षमा न करेगा।

युगधर्म का प्रथम चरण है-लोक मानस का परिष्कार-विचार क्राँति अभियान उसी के समानाँतर दूसरा चरण है-नारी जागरण। दोनों एक दूसरे के पूरक और परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुये है। दोनों की समान महत्ता है। वे मिलजुल कर ही महा परिवर्तन की समग्र पृष्ठभूमि विनिर्मित करते हैं। यह दोनों ही चरण समग्र प्रगति का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए समान गति से समानाँतर क्रिया-प्रक्रिया अपनाते हुए अग्रगामी रहने चाहिए। दोनों के बीच समग्र तारतम्य रहना चाहिए।

नारी को अपने बलबूते कुछ तो करने के लिए कहा ही गया है, पर साथ में यह भी आशा भरा विश्वास रखा गया है कि पुरुष इस प्रयोजन में उसके समर्थ सहयोगी की भूमिका का निर्वाह करेगा। उसे प्रोत्साहित करने, सुविधा देने और साधन जुटाने में किसी प्रकार की कोई शंका न रहने देगा। इस दिशा में कुछ कर सकने की स्थिति बनने देने में नारी समुदाय के सम्मुख कई प्रमुख बाधाएँ है। इनमें से एक है - प्रतिगामिता के वातावरण में रहते-रहते उत्पन्न हुआ निराशाजन्य अनुत्साह। दूसरा है - प्रगति की दिशा में कुछ सोचने और करने देने में अवरोध बन कर अड़ने वाला अवरोध। जिन लोगों के बीच उन्हें रहना है, उनमें से कम ही ऐसे होते हैं जिनको समर्थता अर्जित करना अखरता न हो। जो इन प्रयत्नों का तारतम्य बिठाने से प्रसन्न होते हों। फिर घरेलू काम काज इस बेढंगेपन से चल रहे होते हैं कि कुछ ही घंटे में निपटाये जा सकने वाले कार्य प्रायः समूचा समय अपने ही घेरे में कसे रहते हैं। घर से बाहर निकलने देने में अनेक प्रकार के संदेह उठाते और प्रतिबंध लगाते हैं। इन परिस्थितियों में किसी प्रगतिशील उत्साही महिला के के लिए भी कुछ कर सकना बहुत ही कठिन पड़ता है। यह कम दुर्भाग्य नहीं है कि पुरुष मुँह खोले, देश-विदेश कहीं भी भ्रमण करे, पर नारी को इसलिए घूँघट निकालने के लिए बाधित होना पड़े कि कहीं शील न गँवा बैठेगी, इस बात पर कौन विश्वास करें? मर्द अकेले जन संकुलित हाट-बाजारों में, कारखानों में निर्वाध रूप रूप से जा सकते हैं, पर स्त्रियों को अविश्वस्त समझकर किसी अच्छे काम के लिए भी घर से बाहर जाना पड़े, तो समझा जाता है उसकी निगरानी रखने वाला कोई चौकीदार साथ चले। इन प्रतिबंधों से भरी परिस्थितियों में यह कैसे बन पड़ेगा कि नवजागरण के लिए इच्छुक महिलाएँ घर-घर महिलाओं के साथ संपर्क साधने के लिए किस प्रकार घर से बाहर निकल सकें। वे कहीं एक जगह बैठी तो मिलती नहीं। उन्हें प्रभावित-सहमत करने के लिए निकलना आवश्यक है। असमर्थ रोगियों को देखने डाक्टर ही उनके घर पहुँचता है। महामारी फैलने के दिनों चिकित्सकों को ही वहाँ डेरा डालने की ड्यूटी लगती है। प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ परिव्राजक आदि तीर्थ यात्रा के नाम पर जन-संपर्क के लिए निरंतर परिभ्रमण करते रहते थे। यदि एक ही जगह जनता एकत्रित बैठ मिल जाया करती तो उन्हें यह कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाने के लिए अपने बहुमूल्य जीवन क्यों समर्पित करने पड़ते।

नारी उत्कर्ष के लिए अनजानों, अनगढ़ों, कुरीतिग्रस्तों का मार्गदर्शन अनगढ़ों, कुरीतिग्रस्तों का मार्गदर्शन करने के लिए उनमें प्रेरणा भर कर आगे कदम बढ़ाने के लिए इसके सिवा दूसरा उपाय है नहीं कि प्रचारिकाएँ घर-घर पहुंचे और उनके पिंजड़ों में घुस कर ही मन गुन की बात करें किंतु यह कठिनाई स्पष्ट दिखाई देती कि नव जागरण के लिए-रचनात्मक कार्यों को गति देने के लिए प्रतिभावान महिलाओं को घर से बाहर निकलने की, सुदूर क्षेत्रों तक पहुंच सकने की छूट कैसे मिले? चक्रव्यूह में फँसा अकेला अभिमन्यु बहुत हाथ पैर पीटने पर भी पराजित बनकर रह गया था। प्रतिगामिता की ऊँची चहारदीवारी। को लाँघ कर खुले क्षेत्र में जाकर काम करने के अवसर कैसे मिले?

इस अवरोध से उबरने के लिए नारी की सहायता के लिए नर को ही आगे आना पड़ेगा। उसकी आवाज में बल होता है और आदेश, निवेदन या आग्रह सहज ठुकराया नहीं जाता। पिता, भाई, स्वजन-संबंधी, संरक्षक के रूप में वह अपने प्रभाव क्षेत्र की महिलाओं को घर से बाहर निकलने देने में बहुत हदतक कारगर सहायता कर सकता है। समर्थन मिलने पर असमंजस ग्रस्त महिलाओं की भी हिम्मत बढ़ सकती है ओर वे वह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकने में समर्थ भी हो सकती हैं।

ठन दिनों ही इस भवितव्यता पर इसलिए जोर दिया जा रहा है कि नियति ने बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी के आरंभ वाले अब से 2006 तक के के बारह वर्षों के मध्याँतर को बदल डालने वाली समर्थ हलचलें उत्पन्न करने वाला समय घोषित किया है। उपयुक्त समय पर हम काम सरल पड़ता है। बसंत ऋतु के मौसम में हर पेड़ पर अनायास ही फूल खिल पड़ते हैं। इन दिनों सभी क्षेत्रों में उचित हलचलें उभर रही हैं और महत्वपूर्ण परिवर्तनों की कारगर योजनाएँ बन रही हैं। उन्हें कार्यान्वित करने के लिए प्रतिभाओं को आगे आना ही होगा एवं वह करना ही होगा जो परोक्ष सत्ता उनसे कराना चाहती है।


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