पूर्णतत्व की प्राप्ति का एक ही राजपथ

December 1994

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सीढ़ियाँ हों, चढ़नी हों, तो एक के बाद एक कदम बढ़ना पड़ता है और एक-एक सीढ़ी पार करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। कोई यदि छलाँग दुर्घटना घटे बिना नहीं रह सकती। यह बात आत्मोत्थान के सर्दी में भी है। मनुष्य जिस परिवार में, समाज में, राष्ट्र और युग में जीता है, वह उसके लिए आगे बढ़ने -ऊंचा उठाने के एक-एक सोपान के समान हैं। इनसे होकर ही आगे बढ़ना पड़ता है। कोई यदि छलाँग लगाकर शीर्श पर पहुँचना चाहे, तो दुर्घटना घटे बिना नहीं रह सकती है। यही बात आत्मोत्थान के संदर्भ में भी है। मनुष्य जिस परिवार में, समाज में, राष्ट्र और युग में जीता है, वह उसके लिए आगे बढ़ने-ऊपर उठने के एक-एक सोपान के समान है। इनसे होकर ही आगे बढ़ना पड़ता है। प्रगतिक्रम में इनकी उपेक्षा करते हुए कोई यह सोचे कि वह कोई बजरंगी छलाँग मार कर चरम लक्ष्य तक पहुंच जायेगा, तो इसे उसकी प्रवंचना और अध्यात्म विज्ञान की अवमानना ही समझना चाहिए।

बालक जब छोटा होता है, तो पहले अक्षर ज्ञान कराना पड़ता है, तभी वह उस स्थिति में पहुँच पाता है कि पुस्तकें पढ़ सके। फिर जैसे-जैसे उसकी योग्यता बढ़ती जाती है, वैसे-ही-वैसे एक-एक कक्षा ऊपर उठते हुए वह स्कूल से कॉलेज में पहुँचता और स्नातक एवं स्नातकोत्तर की डिग्रियाँ प्राप्त करता है। यह प्रगति का स्वाभाविक क्रम है। भौतिक सफलता से लेकर आत्मोन्नति तक में इसी सिद्धाँत का अनुसरण करना पड़ता है, तभी वह पद प्राप्त होता है, जिस पर गर्व-गौरव अनुभव किया जा सके। हाथ पर सरसों जमाने जैसी जल्दबाजी तो बाजीगरी में ही देखी जाती है, इसलिए तुर्त-फुर्त का प्रतिफल वहाँ तत्क्षण में समाप्त हो जाता है। अध्यात्म न तो बाजीगरी है और न ऐसा कुछ, जिसमें सुनिश्चित कर्तव्यों की उपेक्षा करते हुए कुछ कहने लायक उपलब्धि की आशा की जा सके। इसमें तो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के निर्धारित मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है, जिसे साधना विज्ञान में स्वीकारा गया है। संसारी व्यक्तियों के लिए यह दुनिया ही साधना-भूमि है। इससे बढ़कर अनुकूल स्थान साधना के लिए कोई दूसरा हो नहीं सकता। इस साधना स्थल में उसे उपासना के प्रथम चरण के रूप में पहले परिवार की प्रारंभिक भूमिका से होकर गुजरना पड़ता है। इसके पूरा होने के उपराँत उसे दूसरी भूमिका-समाज-साधना में प्रवेश करना पड़ता है। इसके पश्चात् राष्ट्र-साधना की तीसरी अवस्था में अवस्थान करना होता है। अंतिम भूमिका विश्व-साधना की है, जिसे ठीक-ठीक ढंग से पूरा कर लेने के बाद व्यक्ति की अवस्था योग-सिद्ध योगी स्तर की हो जाती है। इस दशा में वह योग साधना की वह सारी विभूतियाँ हस्तगत कर सकता है, जिसका अधिकारी एक यती है। जो संसार छोड़ने और वैरागी बनने की बात करते हैं, तो उनका वैराग्य भी समाज के बिना अधूरा है। भला साधन-सुविधा हीन वन में वैराग्य की परीक्षा किस भाँति हो सकेगी? यदि कोई ऐसी अभावग्रस्त स्थिति में रह भी रहा हो, तो इसे उसकी मजबूरी कहना चाहिए, वैराग्य नहीं। जो जीवन भर सरोवर में कभी उतरा नहीं, वह बढ़-चढ़ जल में नहीं डूबने का दम्भ करें तो इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? डूबने-नहीं डूबने की परख तो उसके पानी प्रवेश करने के बाद हो सकती है, बाहर रहकर नहीं। जो दुनिया में रहकर निर्लिप्त बना रहता है, वास्तविक वैरागी वही है और जिनसे यह अवस्था लिए, कंदरा और वन का एकान्त सबकुछ दिखावा। इस आडंबर में वही पड़ते, जिन्हें बड़प्पन की, जिन्हें बड़प्पन की, मान-सम्मान की चाह होती है, अन्यथा जो सही-सही योग साधना चाहते हैं, , उनके लिए समाज से बढ़कर कोई दूसरी उपयुक्त योगस्थली नहीं।

महाकवि गेटे ने अपने नाटक “फास्ट” में एक ऐसे चरित्र नायक का वर्णन किया है, जो आत्मज्ञान-संग्रह का अभिलाषी है। संसार में रह कर ही वह इसे प्राप्त करना चाहता था, पर कुछ समय पश्चात् उसे ऐसा अनुभव होने लगा, जैसे इस ज्ञान-संपादन में दुनिया सबसे बड़ी बाधा है। वह इसे छोड़ समाज से बहुत दूर कहीं एकाँत वन-प्राँतर में चला जाता और तपस्या करने लगता है, पर यहाँ भी उसकी एकाग्रता सध नहीं पायी। अभावजन्य पीड़ा और कुटुँबियों की याद उसे सताती रही। थक-हार कर वह पुनः समाज में आ जाता है, किन्तु तब तक उसकी अधिकांश आयु चुक चुकी थी। वह हताश हो जाता है उसे सन्तोश था, तो मात्र इतना ही कि जीवन के अन्तिम समय में उसे सत्य का बोध हो गया, जिसके ना होने के कारण ही वह अब तक संसार के अंदर और बाहर वनों में भटकता रहा।

कुछ ऐसा ही निष्कर्ष भारतीय पृष्ठभूमि उपन्यास”विराट्” में आस्ट्रियाई उपन्यासकार स्टीफल ज्वीग ने प्रस्तुत किया है। नायक विराट् निष्कर्म योगा का पक्षधर है। वह अपने अनुयायियों समेत समाज से दूर चला जाता है, फिर भी अनुभव करता है कि पूर्ण निष्कर्म नहीं हो सकता है। वह वहाँ से और घने जंगल में आ जाता है। यहाँ भी वह बिल्कुल निष्कर्म नहीं हो पाता। यह अहसास करते ही विराट् पुनः समाज में आकर निष्कर्म अवस्था त्याग कर कर्ममय जीवन अपना लेता है।

समाज में रहते हुये, कर्तव्यों का निर्वाह करते हुये ऐसा लग सकता है कि सांसारिक उलझनों में पड़कर व्यक्ति अपने लक्ष्य में भटक जायेगा। शायद इसी लिए उनसे बचने के लिए वह दूर चला जाता है, सोचता है कदाचित् इससे लक्ष्य-प्राप्ति में शीघ्रता होगी, पर सच्चाई यह है कि अपने ढंग से वह जितनी जल्दबाजी करता है ध्येय से उठना ही दूर हटता जाता है, विलंब उतना ही ज्यादा हो जाता है, क्योंकि दायित्वों की अपेक्षा द्वारा आत्मलाभ कराने वाला कोई मार्ग दुनिया में है नहीं। जो रास्ता निर्धारित है, वह माध्यम मार्ग का राजपथ ही हो सकता है, जिसमें आवश्यक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुये आगे बढ़ना पड़ता है। यहाँ एकदम भौतिकवादी बन जाने में भी हानि और पलायनवादी बनने में भी घाटा है। नफा तो अतिवाद तो त्याग कर ही उठाया जा सकता है। सांसारिकता में आकंठ डूब जाना जीवन का एक सिरा है, तो वैरागी बनकर संसार त्यागना इसका दूसरा छोर। जीवन में दोनों का समन्वय करके चलने से ही कुछ कहने लायक सफलता अर्जित की जा सकती है। वस्तु का ग्रहण और वर्जन, बंधन और वैराग्य-यह दोनों ही आवश्यक हैं। किसी एक को छोड़ और दूसरे को अपनाकर सत्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती वरन् इनका सम्मिलित स्वरूप ही पूर्णता तक ले जाने में सफल हो सकता है। संकट त्याग की और अन्नपूर्णा भोग की प्रतिमूर्ति है, दोनों मिलकर जब परिवार में, समाज में, राष्ट्र व विश्व में एक हो जाते हैं, तो पूर्णतः का वास्तविक आनन्द-लाभ मिलता है अन्यथा जहाँ कहीं भी बन्धन और मुक्ति में, भोग एवं त्याग में अनुराग विराग वैर-विरोध हुआ, वहीं नाना प्रकार अशांति और असंतोष पैदा होने लगते हैं। इन दोनों का भटकाव का एक मात्र कारण इस संसार-व्यूह को भलीभाँति न समझ पाना ही है। इस व्यूह में हमें प्रवेश करना भी आना चाहिए और उससे बार निकलना भी। केवल प्रवेश करना आता हो और बाहर निकलने की कला नहीं मालूम हो तो उसी में उलझकर हमारी मौत हो जायेगी। निःसंदेह इसमें भी हम वीरता दिखा जा सकते हैं किन्तु इसे तो विजय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हमारी मंजिल जीत अर्जित करना है, बहादुरी पूर्वक मर जाना नहीं। या विलोचित मरण युद्ध का एक अच्छा पहलू हो सकता है, किन्तु है अधूरा दूसरी ओर जो इस चक्रव्यूह में अन्दर जाने से डरते हैं, उन कायरों के लिए वीरगति नहीं है। इस तरह यह दोनों प्रकार के लोग अपूर्ण हैं। अपूर्णता से सम्पूर्णता की प्राप्ति भला कैसे हो सकती है। यह तो संभव है, जब निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति, शिव के साथ शक्ति का और सत्य के साथ सुन्दर भी हो।

इस दिशा में गड़बड़ी तब पैदा होती है, जब जीवन के किसी एक पक्ष को पूर्ण मान लिया जाता है और सी एक क्रियाविधि को पूरा करने में सारा जीवन खपा दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति स्वयं को राज्य रक्षा का उपकरण मान बैठा हो, तो वह अपने को सैनिक बना लेगा। यदि किसी को सामाजिक समृद्धि का आधार माना गया है, तो हम उसे वणिक बनाने की चेष्टा करेंगे। किसी के जिम्मे शासन-संचालन का भार है, तो वह राजनेता से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है। कोई नाट्यकार, रंगकर्मी और अभिनेता है, तो अपना श्रेय-सौभाग्य वह स्वयं को विदूषक बनाने में ही मानता रहेगा और उसी के गिर्द जीवन भर उसके थ्या-कपाप चलेंगे, पर मनुष्य इतना ही है, सो बात नहीं। यथार्थ तो यह है कि मनुष्य न तो केवल सैनिक है, न व्यापारी है, न नेता, न अभिनेता केवल सैनिक है। यह तो उसके गुण, अभिरुचि, स्वभाव, संस्कार के हिसाब से विकसित हुआ व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। उसका वास्तविक आपा इन्हें नहीं कहा जा सकता। मूलतः वह ब्रह्म का प्रकाश है। प्रकाश की पूर्णता उद्गम में मिलकर ही हो सकती है, पृथक रहने में नहीं। संसारी लोगों की सबसे बड़ी विडंबना वह है कि वह व्यक्तित्व के इन अंगोपाँगों को ही सब कुछ मान बैठते और समस्त ध्यान इन्हीं को निखारने, उभारने, सुधारने, सँवारने में लगा देते हैं, जबकि मूल प्रयोजन अछूता बना रहता है। व्यक्तित्व की प्रखरता भौतिक सफलता के लिए आवश्यक तो है, पर साथ ही इस बात पर भी विचार करते रहना चाहिए कि लौकिक समृद्धि के साथ आत्मिक प्रगति कितनी हुई? हुई या नहीं? समय-समय पर ऐसी समीक्षा के द्वारा ही इस प्रवृत्ति मार्ग में निवृत्ति मार्ग जैसी भावभूमि और अंतःकरण विकसित किये जा सकते हैं। इस दिशा में जितनी और जैसी गति होगी उसी हिसाब से मनुष्य लक्ष्य के करीब पहुँचता जायेगा।

इस प्रकार का समन्वयात्मक मार्ग समय की ही अनिवार्यता है, सो बात नहीं। प्राचीनकाल में भी इसकी आवश्यकता अनुभव की गई थी। उपनिषदों में यत्र-तत्र इस बात की झलक-झाँकी मिल जाती है-ईशोपनिषद् में स्पष्ट उल्लेख है-अंधंतमः प्रविषंति ये अविद्यामुपासते। ततो भूय इ वते तमो य उ विद्यायाँ रतः॥

अर्थात् जो केवल अविद्या अर्थात् संसार की ही उपासना करत हैं, वे अंध तमस् में प्रवेश करते हैं और उससे भी अधिक अंधकार में वे प्रवेश करते हैं, जो केवल ब्रह्मचर्चा में रित रहते हैं। अन्यत्र कहा गया है-विद्याञ्चाविद्याञ्चा यस्तद्धेदोभयं सह अविद्याया मृत्यं तीर्त्वाविद्ययामृतमष्नुते।

अर्थात् विद्या और अविद्या दोनों को ही जो एकत्र करके जानते हैं, वे अविद्या के द्वारा मृत्यु से उत्तीर्ण होकर विद्या द्वारा अमृत को प्राप्त करते हैं।

श्रुति कहती है-”एवं त्वयि नान्यधेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। ” हे नर! कर्म करो। कर्म में लिप्त न होना पड़े, ऐसा कोई पथ इस संसार में नहीं।

स्पष्ट है, प्राचीन समय में कर्म करते हुए, समाज और संसार में रहते हुए ही ईश्वर-प्राप्ति का सर्वसम्मत मार्ग निर्धारित था, पर साथ ही इस बात की भी कड़ी चेतावनी थी कि संसार को साध्य न मान लिया जाय। साध्य तक पहुँचने का यह साधन मात्र है। इसका उपयोग और उपभाग तो हो, पर लक्ष्य प्राप्ति के निमित्त। ऐसा आज भी संभव है। यदि ऋषि निर्दिष्ट “तेन त्यक्तेन भुँ्ीथा” के आदर्श को अपनाया और जीवन में उतारा जा सके, तो इन दिनों की विषमताजन्य विष-व्रण को न सिर्फ मिलाया जा सकना संभव है, वरन् स्थिर शांति और सुव्यवस्था को भी प्रतिष्ठापित करना शक्य है।

ऋषियों ने इस भूमा के सुर में ही समाज को कभी बाँधने की चेष्टा की थी। समाज को इन मर्यादाओं में बाँध कर रिफर मनुष्य को ब्रह्म-उपलब्धि करने का प्रयास किया था। शरीर को अधम बता कर उसे पीड़ा देना नहीं चाहा, समाज को कलुषित कहकर उसका परित्याग करना नहीं चाहा, जीवन को अनित्य घोषित करके उसकी अवज्ञा करना नहीं सिखाया। उसने सब कुछ को ही ब्रह्म के द्वारा अखण्ड-परिपूर्ण करना। चाहा था। इसके लिए चार आश्रमों की विशिष्ट व्यवस्था थी। प्रथमावस्था में गलाई और ढलाई की क्रिया संपन्न होती, ताकि उसमें भावी व्यक्तित्व की मजबूत इमारत खड़ी। श्रद्धा, संयम, शिक्षा और ब्रह्मचर्य के द्वारा इसका संपादन होता। द्वितीय चरण में गृहस्थ की जिम्मेदारियों को निबाहते हुए परिवार और समाज की सुव्यवस्था में योगदान करना पड़ता। इसी में अग्रिम भूमिका की पृष्ठभूमि विनिर्मित होने लगती है। तृतीय चरण अर्थात् वानप्रस्थ में द्वितीय भूमिका का ही विराट् विस्तार हो जाता और जो कर्तव्य पहले घर-परिवार तक सीमित थे, वह अपरिमित बन कर कार्यक्षेत्र पूरी पृथ्वी हो जाता। इसी अवस्था में “वसुर्धव कुटुँबकम्” की भावना विकसित होती और व्यक्ति समस्त संसार को अपना बृहत्तर परिवार और यहाँ के निवासियों को भगवान की साकार प्रतिमा मानकर उनकी सेवा करता। इस प्रकार विराट् ब्रह्म की सेवा करते-करते वह ‘जीवन मुक्ति’ की चतुर्थ और अंतिम अवस्था संन्यास में अवस्थान करता।

पूर्णता प्राप्ति के यह चार क्रमिक सोपान थे, अब जबकि समाज और संसार के साथ-साथ संपूर्ण नियम-मर्यादाओं की ही अवहेलना करने पर मनुष्य उतारू हो गया है, तो देखना यह है कि उसकी मुक्ति किस हदतक कितनी जल्दी हो सकेगी। आज सात्विकता के सुनिश्चित राजमार्ग को हम भूल चुके हैं। राजसिकता का ऐश्वर्य भी हमारे लिए दुर्लभ हो गया है। अभी तो हम केवल तामसिकता के छीना-झपटी वाले पतनोन्मुख पथ पर प्राचीन आदर्श मात्र कहने भरके सिद्धाँत बन कर रह गये हैं। सरोवर की पूर्णता किसी समय चाहे कितनी ही सुगंभीर क्यों न रही हो, शुष्क अवस्था में उसकी रिक्तता का गढ्ढा भी उतना ही बड़ा कहलायेगा। हमारी स्थिति भी संप्रति लगभग ऐसी ही है। इन दिनों मैत्रेयी की तरह “येनाहं नामृता स्याँ किमहं तेन कुयाम्?” -”जब इनसे हमारी सद्गति नहीं हो सकती, तो इन्हें लेकर मैं क्या करूंगी?” कहने और करने वाले दुनिया में कुछ गिने-चुने लोग ही दिखाई पड़ते हैं। अधिकांश तो “ऋण कृत्वा घृत्वा घृतं पीवेत” वाला निम्न आदर्श ही चरितार्थ करते देखे जाते हैं। यह स्थिति तब तक बनी ही रहेगी, जब तक हम पूर्णता को संसार के बाहर के वैराग्य एवं वस्तुओं में तलाशते रहेंगे। मुक्ति कहीं बाहर नहीं, वरन् वह अपने ही अंदर की एक विशेष अवस्था है। इस को समाज में रहते हुए ही विकसित करना पड़ता है, तभी जीते जी उस अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है, जिसे स्वर्ग, सद्गति, शांति कह कर पुकारा गया है।


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