मनोरोग – हमारी अपनी ही उपज

December 1994

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मस्तिष्क का पूरा नियंत्रण सारे शरीर पर है। उसकी इच्छा से ही नाड़ी संस्थान काम करता है और ज्ञान तंतुओं के माध्यम से भी उसी का वर्चस्व छोटे से लेकर बड़े अंगों पर छाया रहता है। ऐसे में उद्गम केन्द्र जैसे महत्वपूर्ण स्थल पर घुटन जैसे असंतुलन का भार लदा रहे, तो वह स्थानीय नहीं हो सकता, उसका प्रभाव ज्ञान तंतुओं के माध्यम से अन्य अंगों तक भी पहुँचेगा रुग्णता की संभावना उत्पन्न करेगा।

व्यवहार मनोविज्ञानियों के अनुसार इसके भार को हलका करने के दो ही तरीके हैं-उसे वाणी द्वारा निकाल दिया जाय या क्रिया द्वारा निरस्त करते रहा जाय। वे कहते हैं कि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो वह दबाव बाहर न निकल पाने की स्थिति में अनैच्छिक संस्थान की ओर मुड़ जाता है और शरीर में जो स्वसंचालित क्रियाएं होती रहती है, उनमें वह घुटन वाला विष जा घुलता है। इससे संबद्ध अंगों में सिकुड़न, अकड़न और जकड़न पैदा होने लगती है और इस बाहरी दबाव के करण उनकी क्रियाएँ असामान्य हो जाती है। यह दबाव यदि पेट की ओर मुड़ जाय, तो आमाशय पर अकारण ही तीव्र प्रतिक्रिया होती है और पाचन क्रिया में गड़बड़ मच जाती है, रक्त-संचार रुकता है और पाचक रसों की आपूर्ति थम जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार उक्त गड़बड़ी से पहले आमाशय में सूजन आती है, फिर जख्म बन जाते है॥ अल्सर इसी प्रकार का रोग है, जिसमें शारीरिक कारण कम और मानसिक अधिक रहते हैं।

बर्लिन विश्वविद्यालय के मूर्धन्य मनःशास्त्री एच. आइसैंक के वर्षों के अनुसंधान के उपराँत यह निष्कर्ष निकाला है कि व्यक्ति यदि मानसिक संताप की स्थिति से गुजर रहा हो, तो उसे जोर से रो पड़ने या फूट-फूट कर लिखने की इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए। वे कहते हैं कि इस अभिव्यक्ति से मनोव्यथा का वह हिस्सा बाहर निकल आता है, जो नहीं निकलने पर विभिन्न प्रकार के रोगों कारण बनता है। घुटन का बड़ा भाग निष्कासित हो जाने के पश्चात् अवशेष बचता है। वह इतना प्रभावी नहीं है। व्याधि का कारण बने। यदि लोग लाज वश उस पीड़ा को दबाकर अपने वीतराग या मनस्वी होने का ढोंग किया जायेगा। तो मानव स्वभाव की कमजोरियों पर तो विजय पायी नहीं जा सकेगी। उल्टे घुटन दबकर भीतर बैठ जायेगा और अनेक गड़बड़ियाँ पैदा करेंगी। कोई विषैली चीज पेट में पहुँच जाये, तो सीधा तरीका यही है कि उल्टी दस्त द्वारा बाहर निकल जाने दिया जाये। यदि उसे उसे निकलने का अवसर न मिला, तो वह विष फिर अनेक भयंकर तरीकों से फूट कर निकलेगा और दस्त उल्टी जैसी कठिनाइयों की तुलना में तो मुसीबत पैदा होगी, वह अधिक कष्टसाध्य और समय साध्य होगी। जानकार लोगों का कहना है कि मनुष्य को जब कभी क्रोध आये। बक छक कर जी की जलन शांत कर लेना अच्छा है। सर्वथा मौन रहकर उसे सह पाना हर किसी की बात नहीं है। सर्वसाधारण के लिए उसके दुष्परिणाम से बचने का उपाय यही हो सकता है उस आवेग को तुरन्त निकाल दिया जाय, अन्यथा मन में कब्र हो जाने पर वह घृणा, द्वेष के रूप में जड़ जमा कर स्थाई रूप से बैठ जायेगी और शत्रुता का रूप धारण करके प्रतिहिंसा कर बैठेगा।

मानसिक सर्वांशों को घटाने-मिटाने का यही कारगर तरीका है। जो हर किसी के आंतरिक उद्वेगों को शांत करने में सफल होते देखा गया है। कामुक आकाँक्षाओं को होली जैसे त्यौहारों में नाच-गान के उल्लासों द्वारा निकाल बाहर कर दिया जाता है और जी हल्का कर लिया जाता है। इसके विपरीत मन में काम विकार घुमड़ते रहें, तो भीतर-भीतर वह घुटन दूसरे रूप में फूटती और हिस्टीरिया, मूर्छा, पागलपन जैसे कितने ही प्रकार के रोग उत्पन्न करती है।

एक उपाय यह भी हो सकता है कि मन को ऐसी प्रशिक्षित किया जाये कि उसमें सौम्य, सज्जनता ही स्वाभाविक हो जाये और विकार विकृतियों के लिए गुंजाइश ही न रहे, पर यदि क्रोध शोक आदि उठ रहे हों, तो उन्हें प्रकट होकर बाहर निकल जाने देना चाहिए। इसके लिये कोई सच्चा विश्वस्त मित्र होना ही चाहिए, जिसके सामने पेट के अन्दर के हर रहस्य और भेद को प्रकट कर ही देना चाहिए। जीवन में कोई ऐसा पाप हो गया हो, जिसके असह्य भार से मन में दबा-दबा कर महसूस करें तो ऐसे मौकों पर ही उसे मित्र कुटुंबी के समक्ष प्रकट देने पर जी हलका हो जाता है। किन्तु ऐसा करते समय ध्यान इस बात का अवश्य रक्खा जाना चाहिए कि जहाँ और जिससे यह सब कहा जा रहा है। वह विश्वस्त स्तर का है या नहीं। यदि व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ। तो वह गंदगी को उछालते फिरने की तरह हर जगह फैलायेगा और एक प्रकार से उसका ब्लैकमेल करता रहेगा। इस प्रकार जहाँ सहानुभूति मिलनी चाहिए। वहाँ अनेकों की घृणा बरसने की एवं असमान जैसी परिस्थितियाँ पैदा होने से घुटन और बढ़ती है, जबकि सुनने वाला व्यक्ति उससे प्रेम और सहानुभूति का बरताव करे, तो उसकी मानसिक वेदना में काफी कमी आती है, व्यक्ति का मनोबल बढ़ता है और सहज स्वाभाविक जिन्दगी की ओर अग्रसर होने लगता है।

मनः संस्थान में उत्पन्न कुढ़न की इस विकृति से जो रोग पैदा होते हैं, उनके अलग से कोई पृथक लक्षण नहीं होते, वरन् वे शारीरिक व्याधियों में मिल कर ही फूटते हैं। शारीरिक बीमारी यदि कायगत हो, तो मामूली दवा-दारु ही अच्छा कर देती है, किंतु भावनात्मक विकार इसके मूल में हो, तो फिर उससे पीछा छुड़ाना तब तक ठीक नहीं जब तक जड़ का मूलोच्छेद न हो। पुराने समय में जब लोग सरल जीवन जिया करते थे, मन में उत्फुल्लता, निष्कपटता और निर्द्वंदता का संतुलन बनाये रहते थे, तब आज जितनी मानसिक रोगों की बाढ़ नहीं थी। उस जमाने में केवल काय-कष्ट ही होता था, अस्तु उनके उपचार में कोई कठिनाई नहीं होती थी। अब प्रत्यक्षतः तो शारीरिक रोग ही दीखते हैं पर उनके पीछे मानसिक बीमारियों की जटिल ग्रंथियाँ उलझी होती हैं। जब तक वे न सुलझें, दवा क्या काम करे। मानसिक रोगों की दवाएँ अभी निकली नहीं है। ऐसी परिस्थिति में यदि चिकित्सकों को चक्कर में डाल रखने वाले और दवाओं को झुठलाते रहने वाले रोगों का बाहुल्य औषधि-उपचार की परिधि से बाहर निकलने लगे, तो उसमें आश्चर्य की कुछ बात नहीं हैं।

स्वामी विवेकानन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि रोगों का प्रमुख आधार परिस्थिति द्वारा मन और मन द्वारा शरीर प्रभावित होता रहता है। परिस्थितियाँ यदि बुरी हुई, तो शरीर मन पर उसका असर बुरा होता है, पर यदि अच्छी हुई तो उसका अच्छा प्रभाव भी दिखाई पड़ता है, किंतु आज के चुग में अनुकूल परिस्थितियाँ तो एक प्रकार से दुर्लभ ही हो गई हैं। हर जगह विपरीतताएँ और प्रतिकूलताएँ ही दिखाई पड़ती हैं। ऐसे में बाहरी परिवेश से मन बराबर प्रभावित होता रहता है और मन के गड़बड़ाने से शरीर भी शरीर भी अछूता बना नहीं रह पाता, वह भी लड़खड़ाना जाता है। इसीलिए अध्यात्मशास्त्र में अब आज की परिस्थितियों में क्रम को उलट कर देखा जाना चाहिए। उसमें शरीर द्वारा मन और सशक्त मन द्वारा बाह्य परिस्थिति को प्रभावित करने की बात प्रमुख मानी जानी चाहिए आहार, विहार और व्यवहार-यह शरीर को प्रभावित करने वाले उपादान हैं। यह इसका दोहरा लाभ हुआ।

जबकि प्रचलित क्रम अपनाने से हानि-ही-हानि उठानी पड़ती है। कई बार परिस्थिति जन्य यह दंड मानसिक पापकर्म के फलस्वरूप भी भोगने पड़ते हैं। दुष्कर्म कर लेना अपने हाथ की बात है, पर उसकी प्रतिक्रिया उठती है। उससे शरीर और मन का संतुलन बिगड़ता है। दोनों क्षेत्र रुग्ण होते हैं। उसके फलस्वरूप जनसहयोग का अभाव-असम्मान मिलता है और संतुलन बिगड़ा रहने से हाथ में लिए हुए काम असफल होते हैं। इन सबका मिला-जुला स्वरूप शारीरिक-मानसिक कष्ट के रूप में आधि व्याधि बनकर सामने आता है। कर्मफल भोग की यही मनोवैज्ञानिक पद्धति है। इससे बचाव करने के लिए निष्पाप जीवनक्रम अपनाने की जरूरत है। जो पाप पिछले दिन बन पड़े, उनके प्रायश्चित का विधान इसी जीवन में कर लेने की महती आवश्यकता है। इससे मन पर लदने वाला बोझ हलका होकर इतना कम रह जाता है, जिसे आसानी से ढोया जा सके।

साइकोसोमेटिक रोगों की बाढ़ इन दिनों बौद्धिक विकास के दुुरुपयोग से उत्पन्न की है। होना यह चाहिए कि जहाँ बुद्धिमत्ता के दुुरुपयोग का खतरा हो, वहाँ वह प्रयास न किया जाय। यदि यह अनुचित लगता है और मस्तिष्कीय विकास आवश्यक प्रतीत होता है, तो उसे सन्मार्गगामी बनाये जाने की समुचित तैयारी पहले से ही रखनी चाहिए। विकसित मस्तिष्क यदि दुष्प्रवृत्तियों से भरा रहा, तो निश्चित रूप से वह अभिशाप सिद्ध होगा और उसका दंड जटिल कष्टसाध्य एवं दुःसाध्य घुटन जन्य मानसिक रोगों के रूप में भी हो सकती है और ऐसी भी, जिसे शारीरिक व्याधि कहा जा सके।

घुटन एक न दीखने और समझ में आने वाली ऐसी बीमारी है, जिसका कुप्रभाव किसी भी भयंकर रोग से कम नहीं। अतृप्त और असंतुष्ट मनुष्य अपने आप ही अपने को खाता, खोता और खोखला करता रहता है। आवश्यकता इससे बचने की है। यदि भूल अपनी हो, तो स्थिति का सही मूल्याँकन करके जल्द-से-जल्द इस काल्पनिक मकड़जाले के उलझाव से स्वयं को मुक्त कर लेना चाहिए और परिस्थितियों से तालमेल बिठा कर मन का वजन हलका करना चाहिए। ऐसा नहीं करने और अंतरात्मा को दिन-दिन दुर्बल बनाते जाने से तो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों ही बल नष्ट होते हैं। इस प्रकार की धीमी आत्महत्या की स्थिति से बच निकलना बुद्धिमानी है, भले ही उसमें कुछ बड़ा जोखिम उठाना पड़े, ऐसा करने से नहीं हिचकना चाहिए। घुटन यदि आत्मप्रताड़ना की है, तो किसी विश्वस्त बंधु के आगे जी खोल कर रख देना चाहिए, किंतु वह यदि किसी पूर्व पाप का दंड स्वरूप है, तो आगे से ऐसा पाप नहीं करने का प्रण करना चाहिए। मनोवेदना से बचने के यही सरल समाधान हैं इन्हें ही अपनाना और आजमाया जाना चाहिए।


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