बहेलिया जाल फैलाया बटेरों का समूह उसे उठाता, झाड़ी में उलझाता और निकल भागता। बहेलिया नित्य खाली हाथ घर वापस लौट जाता। पत्नी ने कहा आज भी रीते ही लौट आये। उसने कहा “धैर्य रक्खो! उनमें फूट पड़ने का इंतजार करो। देखना सब फँसेंगे। ” एक दिन हुआ भी ऐसा ही। बहेलिया ने दाना डाला जाल फैलाया। बटेरों का झुँड आया। सभी दाना चुगने में लग गये। भूल से एक बटेर ने दूसरे के सिर पर पैर रखकर कुलाँच मारी। विवाद शुरू हो गया विवाद बढ़ते-बढ़ते नौबत मारा मारी तक पहुंच गई। दूसरा बोला लगता है जैसे जाल तू ही उठाता है। पहले पलट कर जवाब दिया और क्या तू उठाता है। यदि मैं न उठाऊँ तो तेरी क्या बिसात। बस विवाद बढ़ता ही गया। एक दूसरे के समर्थन में झुँड को दलों में विभाजित हो गया। बहेलिये ने सोचा अब काम बनने ही वाला है। वे इसी विवाद में उलझे रहे और जाल उठाना भूलकर एक-एक कर जाल में उलझते गये। जब सब जाल फँस गये। बहेलिये ने जाल समेटा सभी बटेर जाल में फँस चुके थे और व्यर्थ के विवाद और झगड़ने पर पछतावा कर रहे थे। बहेलिये को पत्नी की बात याद थी विवाद होने तक इन्तजार करो, संगठन जरूर बिखरेगा।