तरने चला सकल संसार (Kavita)

December 1994

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गुरु के कृपा-मेघ से बरसी, करुणा की रस-धार। तरने चला सकल संसार॥

भौतिक संतापों में जग की, झुलस रही थी काया, तृष्णाओं के मरुस्थल में, मिल सकी न कोई छाया, प्रकट हुई आंवलखेड़ा से, शीतल मंद बयार। तरने चला सकल संसार॥

यह शीतलता पीड़ित मन को, लगी बड़ी सुखदायी, मानवता के उर में जिसने, आशा नई जगाई, नव फुहार बनकर उमड़े थे, गुरु के दिव्य विचार। तरने चला सकल संसार॥

कलुष धुले, वत्सों ने निज का, सत्स्वरूप पहचाना, अपना ही क्या अखिल विश्व के, दुख का कारण जाना निकल पड़े बाँटने प्राण की झोली में भर प्यार। तरने चला सकल संसार॥

बासंती आभा से दमके, गाँव-नगर-गलियारे, ज्ञान-रश्मि से पल-पल होने, लगे दूर अँधियारे, नया सवेरा लेकर आया हे, आनंद अपार। तरने चला सकल संसार॥

संयम, नियम, साधनाओं, के, अभिनव मंत्र जगाकर, ममता बाँटी जाति-वर्ग के, सारे भेद भुलाकर, भला भुला पायेंगे कैसे, तेरा यह उपकार, तरने चला सकल संसार॥

आज भावना की डालों पर, पंछी चहक रहे हैं, परमारथ की गंध लुटाते, अंतस् महक रहे हैं, जग तेरा आभार प्रकट, करता है बारंबार। तरने चला सकल संसार॥

- देवेन्द्र कुमार देव


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