अंतर्जगत का देवासुर संग्राम ही अष्टांग योग का प्रत्याहार

December 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चिंतन पर आसुरी सत्ता के आक्रमण का प्रतिकार अष्टांग योग में “प्रत्याहार” नाम से जाना जाता है। यह नंदिन जीवन में अनिवार्य रूप से सबके द्वारा संपन्न की जाने वाली एक प्रक्रिया है, अन्यथा अवांछनीय तत्व चढ़ाई करके अपने स्वतत्व अधिकार का ही अपहरण करते रहेंगे। देवता सदैव शांतिप्रिय और नीतिवान माने जाते हैं। वे परमार्थ-परोपकार में ही लगे रहते हैं व उसी की प्रेरणा देते हैं। व्यक्तित्व उत्कृष्ट व देवत्वमय बनाते हैं तो भी आसुरी तत्व देवत्व को कभी चैन से नहीं बैठने देते। कोई दोष या कारण न होने पर भी वे अवसर पाते ही आक्रमण करते रहते हैं। क्षमा और सहनशीलता के सहारे बात टालते रहने पर भी काम नहीं चलता। तब उन्हें प्रत्याक्रमण की योजना बनानी पड़ती हैं और वे विभिन्न क्षेत्र में प्रत्याहार द्वारा असुरता के आक्रमण से लड़ा जाता है।

आततायी आतंककारी हर क्षेत्र में भरे पड़े हैं। घात लगाने से चूकते नहीं। आवश्यक नहीं कि वे खून खच्चर वाली लड़ाई ही लड़ें। दूसरा और भी एक तरीका है जिसमें बाहर से आघात के चिन्ह दिखाई नहीं हैं पड़ते पर भीतर रक्त चूस लिया जाता है। रोगों के विषाणु यही करते हैं वे क्षय जैसे रोगों के रूप में प्रवेश करते हैं। चुपके-चुपके अपने वंश बढ़ाते रहते हैं और कुछ ही समय में समूचे शरीर पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। तब मरण के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। मजबूत शहतीर में घुन लग जाने से वह भीतर ही भीतर उसे खोखला करता रहता है। एक दिन ऐसा आ जाता है कि जरा सा धक्का लगने पर वह खोखला शहतीर जमीन पर पसर जाता है सड़ जाता है।

इसी प्रकार कुविचारों की विचारों एक वर्ग है जो कल्पना क्षेत्र में उतरता है। देर तक मानस पक्का करने के कारण वह ललक लालसा का छद्म वेष धारण करता है और विचारों को कार्य रूप में परिणित होने के लिए विवश कर देता है। वासनाएँ, कामनाएँ, लिप्साएँ, बीज रूप में विचार क्षेत्र में अंकुर उगाती हैं। उन्हें पोषण मिलते रहने पर तेजी से बढ़ती है। और अमरबेल की तरह समूचे जीवन को अपनी पकड़ में कस लेती हैं। कोई कृत्य अनायास ही नहीं बन पड़ता उसकी भूमिका लंबे समय से मनःक्षेत्र में अपना बाना बुनती रहती है। जड़ें पकड़ लेने पर पौधा मजबूत हो जाता है। तब यह उखड़ने में नहीं आता है। अंकुर उगते समय उसे सरलता पूर्वक चौथ कर हटाया जाता है। पर यदि पुष्ट होते रहकर गहराई तक जड़े प्रवेश कर लेने पर उसे उखाड़ना सरल नहीं होता। कुविचारों के संबंध में तो वस्तुतः यही होता है सद्विचार तो प्रयत्न पूर्वक उगाने बढ़ाने पड़ते हैं और दुष्प्रवृत्तियां कटीले बबूल की तरह कही भी जम जाती है और खाद पानी की परवाह किये बिना अपने आप बढ़ते रहते हैं। पीपल को परिपक्व होने में वर्षा का समय चाहिए और बबूल तो कुछ ही महीनों में चुभने वाले काँटों से लद जाता है। कुविचार भी प्रायः ऐसे ही होते हैं।

जीवन को उज्ज्वल उत्कृष्ट बनाना हो तो उसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन आदि का आश्रय लेना पड़ता है। अच्छे वातावरण और संपर्क के साथ जुड़ना हो तो दुष्प्रवृत्तियां खर पतवार की तरह हर खेत में उगी रहती हैं थ्ब्न्ज्ञ प्ज्ञन्भ् क् भी हरियाली है। जलकुँभी की तरह उन्हें कभी भी जलाशय में छा जाने में देर नहीं लगती। व्यक्तियों का समुदाय अवाँछनीय प्रवृत्तियों से भरा पड़ा है। कुकृत्यों का सर्वत्र प्रचलन है। उनकी छूत रास्ता चलतों को लगती चली जाती है।

इनका प्रतिकार न किया जाय तो अवाँछनीयताएँ टिड्डे की तरह बढ़ती है। मकड़ी, मच्छरोँ की तरह पनपती है और अपनी चपेट में उन्हें भी ले लेती है, जो चैन से रहने के इच्छुक है जो किसी को नहीं सताते। इतने पर भी वे मात्र बच्चे इसलिए नहीं रह सकते कि सज्जनता निभाते हैं, किसी को त्रास नहीं पहुँचाते हैं। खटमल, पिस्सू, जुँए, चूहे सभी तेजी के साथ बढ़ते हैं कि यदि उनकी रोकथाम के बारे में न सोचा जाय तो उनकी मन्द गति आक्रमण भी आस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर देता है। चोर उचक्कों से बेखबर रहा जाय तो कही भी जेब कट सकती है। घर के पिछवाड़े कही भी सेंध लगती है। स्वयं चोर न होना अच्छी बात है। पर इतने भर से चोरों के हथकंडे रुक नहीं सकते। सतर्कता को लेकर चौकीदार तक प्रबंध करने पर ही अपने सामान को बचाया जा सकता है।

कुविचार, कुकुरमुत्ते की तरह बिना बोये उगते हैं। जन्म जन्माँतरों के कुसंस्कार तनिक सी नमी पाते ही उद्भिजों की तरह उपज पड़ते हैं। सुखी घास की जड़ पहली वर्षा होते ही धरती पर फैल जाती है। कूड़ा-करकट हवा के साथ उड़ कर कही से भी घर के आँगन में आकर घुस जाता है। इस आधार पर उत्पन्न होते रहने वाली गंदगी को बुहारी से बुहारने, पानी से धोने के अतिरिक्त और कुछ भी काम करने पड़ते हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में इसी प्रकार के प्रयत्नों को “प्रत्याहार” या “प्रतिकार” कहते हैं। कुविचारों से जूझने के लिए सद्विचारों को ऐसी पुलिस फौज की व्यवस्था करनी पड़ती है जो आक्रमणों को देखते ही उनसे भिड़ पड़े। ऐसी बहादुरी से लड़े कि दुश्मन के पैर उखाड़ कर ही दम ले। लाठी का जवाब लाठी से, घूंसे का जवाब घूंसे से दिया जाता है। विष की औषधि विष बताई गयी है। कुविचारों को कुकर्म के रूप में परिणत होने से पहले उनके छत्ते में पलने वाले विषैले डंक वाली बर्रे की बढ़त बंद करनी चाहिए। सड़े जानवर के बिच्छू पनपे उससे पहले ही उस सड़ांध को हटा कर दूर पहुँचा देना चाहिए।

मन को जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कारिता और वातावरण से भरी पूरी अवाँछनीयता किसी भी क्षण छूत की बीमारी की तरह आक्रमण कर सकती है। इसलिए अच्छा है कि समय से पहले रोकथाम कर ली जाय। लक्षण उभरने लगे तब तो उपेक्षा बरतनी ही नहीं चाहिए। प्रतिरोध के लिए जो आवश्यक हो उसे अविलंब करना चाहिए और में पूरी कठोरता बरतनी चाहिए।

कुविचार तब पनपते हैं जब उन्हें विरोध का सामना नहीं करना पड़ता? जहाँ सुरक्षा की दीवार कमजोर दिखती है। कच्चे मोर्चे पर दुश्मन हमला करता है। यदि सुरक्षा पंक्ति समय रहते मजबूत कर ली जाय, सद्विचारों का भण्डार इतना भर लिया जाय कि उस भरी तिजोरी में कुविचारों को कही प्रवेश ही न मिल सके। यदि किसी प्रकार सीमा तक वे घुस ही पड़े तो उपेक्षा बरतने, जो हो रहा हो उसे होते रहने की ढील देनी ही नहीं चाहिए। खूनी साँड़ सामने से दौड़ा आ रहा हो तो दो ही प्रतिकार है एक तो लाठी लेकर उसे खदेड़ा जाय या भागकर किसी ऐसी आड़ में छिपा जाय कि उसके पैने सींगों से बचाव हो सके। कुकर्म का अवसर चुका देना भाग खड़े होने में बुद्धिमता है। पर यदि संभव हो तो कुविचारों को सद्विचारों के पक्षधर तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों, उदाहरणों से इस प्रकार चुनौती देनी चाहिए कि उन्हें हार ही माननी पड़े। भविष्य के लिए निर्लिप्तता अर्जित होने का यही चिर स्थायी तरीका है। कुविचारों को बार बार परास्त करके उन्हें दुष्कर्मों के रूप में परिणत होते देने के पहले ही यदि प्रतिकार के लिए कमर कस ली जाय तो समझना चाहिए कि भविष्य को अंधकार की गर्त में गिरने वाले कुचक्र से पीछा छूटा।

कोई अचानक कुकर्मी नहीं होता। उस पर पहले ही कुविचारों का आक्रमण होता है। इन उगते लक्षणों को देखते ही सतर्क हो जाना चाहिए। उन्हें उपेक्षा का प्रश्रय नहीं मिलने देना चाहिए। समर्थन जैसा कुछ सोचने लगने पर उसे तिल का तार बनाते देर नहीं लगती जिसके मन में अचिन्त्य चिंतन आश्रय पाता है उसे उस स्थिति तक पहुँचने में देर नहीं लगती जिसमें दुर्व्यसनों का, दुष्प्रवृत्तियों का घेरा घिरता चला जाय और फिर उसे शिकंजे से छुटकारा पा सकना कठिन हो जाय।

गीता का महाभारत मात्र द्वापर में कुरुक्षेत्र के मैदान में ही नहीं लड़ा गया था। उसे हर व्यक्ति को अपने चिंतन और चरित्र की आत्म रक्षा के लिए हर किसी को निरंतर लड़ना पड़ता है। अर्जुन को शिथिल पड़ते देखकर कृष्ण ने उसे युद्ध रत होने के लिए प्रोत्साहित किया। उस प्रोत्साहन का तत्व दर्शन ही गीता ज्ञान है। यह जीवन में विजय श्री वरण करने का पहला चरण है। इस प्रत्याहार, परिष्कार में संघर्षरत होने का साहस दिखाए बिना कोई उस स्थिति तक नहीं पहुँच सकता जिसमें अंतरात्मा को परमात्मा में पहुँचाने का लक्ष्य प्रतीत होता है। जिसमें लौकिक प्रगति और प्रमाणिकता का श्रेय सम्मान एवं संतोष भरा दैवी अनुदान भी सम्मिलित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118