सुख मानव की आदि कामना रह है। जितने भी प्रयत्न, पुरुषार्थ, उद्यम, उद्योग, मनुष्य करता है उसके मूल में उसकी सुख-प्राप्ति की इच्छा ही प्रमुख है। हर व्यक्ति इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बुद्धि, शक्ति, विवेक, विश्वास और योग्यता के अनुसार प्रयत्न करता है। एक सुख से जब उसका मन ऊब जाता है या उस सुख की अनुभूति में कमी आने लगती है तब उसका मन दूसरे सुख की खोज में लग जाता है। उसकी यह खोज उसके विश्वास या कल्पनाओं के आधार पर चलती रहती है। इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और व्याधि मूलक हैं इसलिए मनुष्य पारलौकिक सुखों की ओर आकृष्ट हुआ। इसके पीछे उसकी मूल भावना थी सुख की स्थिरता, शाश्वतता और अमरता सुख के अंत की बात सोचकर मनुष्य निराश हो जाता है। उसे घबराहट होती है। मृत्यु से भय का कारण भी यही है। उसे साँसारिक सुखों के प्रति इतना मोह हो जाता है कि जीवन का अंत उसे परमात्मा का एक क्रूर विधान लगाता है।
स्थूल सुखोपभोग भी जब मानव को तृप्ति, संतुष्ट एवं आनन्द न दे सके तो उसने परमात्मा के सान्निध्य में उसकी प्राप्ति करनी चाही। इसके लिये उसने वैराग्य, भक्ति, उपासना का सहारा लिया। शरीर को कष्ट एवं यातनाओं से उसने उनके मूल स्वभाव को तोड़ना, मरोड़ना चाहा। इसके सुख की अनुभूति के स्रोतों को हमेशा के लिये कठोरता पूर्वक दमन करना चाहा। लेकिन इस शारीरिक उपेक्षा एवं कठोरता के कारण, शारीरिक सुख की कामना गिरी नहीं-मरी नहीं-और तब यह सोचा जाने लगा कि जीवात्मा की मौलिक कामना आनन्द प्राप्ति है और इसी केन्द्र के चारों ओर हमारे जीवन के क्रियाकलाप, प्रयत्न, उद्योग चक्कर काटते रहते हैं और जब तक उसको यह कामना सही रूप से प्राप्त नहीं होती वह अतृप्त, अधीर एवं निरन्तर असंतुष्ट रहता है।
जिस प्रकार सुख की प्राप्ति के प्रयत्न आवश्यक हैं उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि अपने लिये श्रेष्ठतम सुख कौन सा है, इसे जानें। क्योंकि सुखोपभोग के उपरान्त भी जीवात्मा से उसका ताल-मेल बैठ नहीं पाता इसका मूल कारण है कि इन्द्रिय सुख एवं आत्मिक सुख में जमीन आसमान का अन्तर है। जो वस्तु या भोग शरीर के लिये आनन्ददायक है, वह आत्मा के लिए भी हो यह सर्वथा आवश्यक नहीं।
अतिशय, इंद्रियजन्य सुख, शरीर, मन, आत्मा को निरन्तर क्षीण बनाते हैं और इसके दुष्परिणाम व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को छिन्न-छिन्न कर देते हैं। सुख की कामना का अर्थ है प्रसन्नता की स्थिति यदि सुखभोग हमें विषाद, व्याधि एवं चिंता की परिस्थितियाँ पैदा करता है तो उसमें निश्चय कहीं न कहीं त्रुटि है। यदि इस लोक में ऐसे सुख को त्यागकर वैसे ही सुख की कामना से पारलौकिक सुख की चाह बनाये तो वहाँ पर भी हमें ऐसी ही स्थिति में वैराग्य की भावना का उदय हुआ। वैराग्य से सुख एवं दुख दोनों ही स्थितियों में उदासीन रहने का अभ्यास था। किंतु यह उदासीन स्थिति भी जीवात्मा की सहज शांति एवं आनंद को न प्राप्त करा सकी।
जब विवेचनात्मक बुद्धि द्वारा शरीर एवं आत्मा को पृथक्- पृथक् अस्तित्व माना जाने लगा और दोनों के सुख दुख भिन्न-भिन्न प्रतिभासित हुये तब सुख की प्राप्ति के लिए शरीर एवं आत्मा के समन्वित उपक्रम की आवश्यकता हुई। शारीरिक सुखों को मिटाने के लिए तप आवश्यक है। कष्ट-कठिनाइयों के माध्यम से तितिक्षा ही शारीरिक तपश्चर्या है। अपनी इच्छाओं का दमन एवं स्वेच्छा से अभाव का वरण इसीलिये उपयोगी है कि यह क्षणिक सुखोपभोग के प्रति आसक्ति भाव को समाप्त करता है।
दूसरी ओर आत्मा-विकास का उपक्रम चलता है। इससे जीवन में श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, आत्मीयता, उदारता, सहृदयता आदि सद्गुणों को गुणों को विकसित किया जाता है। इस साधना से आत्मा एवं शरीर की प्रथक सत्तायें दृष्टिगोचर होने लगती हैं ज्यों-ज्यों जीवात्मा एवं शरीर के संयोग का विकास एवं परिमार्जन होता है, आत्मिक शक्तियों की अनुभूति होती है और अब तक से भिन्न विलक्षण आनन्द एवं संतोश की स्थिति बनती है।
इसी आत्म-शोधन को ही साधना कहते हैं। वह जीवनोत्कर्ष की प्राप्ति के लिये अनिवार्य है। इसमें मनुष्य एक पतली पगडंडी पकड़ कर चलता है जिसके दोनों ओर सुख एवं दुख, जीवन एवं मुक्ति, स्वर्ग एवं नरक के छोर हैं। इनमें मनुष्य को सबसे अधिक जागरुक एवं सतर्क रहना पड़ता है। इसे विचार विचार परिमार्जन या विचारों की तपश्चर्या भी कह सकते हैं।
जीवन में सांसारिक एवं अध्यात्मिक के दोनों प्रकार के विचारों से मनुष्य-प्रभावित होता रहता है और कभी इधर कभी उधर खिंचता रहता है। जिस अनुपात में वह इनसे खिंचता है उसी अनुपात से सुख एवं दुख के प्रभाव में आता है।
साँसारिक कठिनाइयों, कष्टों, बाधाओं या इतर कल्पनाओं से प्रभावित होकर मनुष्य वैराग्य अंगीकार तो कर लेता है लेकिन वह जीवन भर बन जाता है क्योंकि वैराग्य के आवेश में कठोरता, एवं उग्र संयम का कृत्रिम जीवन वास्तविक एवं स्वाभाविक नहीं बन पाता। मन की कल्पना जब तक उत्कृष्ट बनी रहती है तब तक तो इस जीवन में निराशा नहीं आती किंतु वे कल्पनायें सर्वदा परिवर्तनशील हैं और कल्पनाओं में पड़ते ही मनुष्य का जीवन निष्क्रिय एवं आनंद रहित हो जाता है। कभी अनुभूति एवं उत्साह से मरता है कभी मानसिक चंचलता एवं अतृप्ति के कारण निराशा घर बनाती है। साधना का महत्व इसलिये है कि इससे दोष-दुर्गुणों का निवारण होता है। लेकिन इसमें दंभ बढ़ने की भी आशंका है और दंभ बढ़ने पर यह आडंबर को नियंत्रित करता है।
हमारे जीवन का उद्देश्य अपने व्यक्तित्व को परिमार्जित करना, दोष-दुर्गुणों को दूर करना एवं उनके दैनिक जीवन में व्यवहारिक रूप देना-होना चाहिए। इसी को गीता में भगवान कृष्ण ने निष्काम कर्म-योग की संज्ञा दी है और शास्त्रकारों ने “सहजसमाधि” बतायी। कबीर ने भी इसी का उल्लेख अपनी साखियों में किया है।
सभी प्राणियों के साथ अपना संबंध पवित्र, उदार एवं आत्मीयपूर्ण बनाने का प्रयत्न करना ही चाहिये। इससे हमें सात्विक सुख का अनुभव होगा। मनुष्य सच्चा सुख तभी प्राप्त कर सकता है जब वह अपने शरीर, मन, बुद्धि की शुद्ध की शुद्ध शक्तियों को जाग्रत करे। यही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठतम साधना है। यही मनुष्य के विकास का उत्तम मार्ग है और उसी से जीवन लक्ष्य की पूर्ति होती हैं। दूसरी ओर असत् विचार भीतर के दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त करते हैं, जो हमारे दुःख, अकर्मण्यता एवं आलस्य के परिणाम के रूप में सामने आते हैं। वह पतित हो जाता है एवं इन्द्रियों के क्षणिक भोग में आनंद लेने लगता है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के अनेकों दुष्परिणाम इनके कारण आते हैं। संतोश, शांति, समृद्धि एवं प्रगति का एक ही राजमार्ग है-जीवनसाधना। सच्चा साधना द्वारा प्रसुप्त को जगा लेता है। यही हम सबका अभीष्ट लक्ष्य भी होना चाहिए।