आत्मविश्वास बढ़ाने की एकमात्र कुँजी

December 1994

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आत्मविश्वास से बढ़कर सुनिश्चित परिणाम और किसी का नहीं हो सकता। अपने ऊपर-अपनी सामर्थ्य पर यदि भरोसा किया जाय और यह माना जाय कि कई अभावों, कठिनाइयों के रहते हुए भी अपने में इतनी सामर्थ्य विद्यमान है कि किसी भी दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है और किसी भी झंझट से जूझा जा सकता है। अपनी सामर्थ्य स्वल्प मानने से, अपनी क्षमता पर विश्वास मानने से, अपनी क्षमता पर विश्वास न करने के कारण ही हम दूसरों की दृष्टि में दुर्बल और असमर्थ सिद्ध होते हैं।

अपनी क्षमता पर-अपनी प्रमाणिकता पर -अविश्वास करना उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं से वंचित रहना है। अपने ऊपर भरोसा न करने से न आत्मबल विकसित होगा न मनोबल बढ़ेगा। मनस्वी और तेजस्वी व्यक्ति वे होते हैं जिनका आत्म-विश्वास बढ़ा-चढ़ा होता है।

कठिन प्रसंगों पर आत्म-विश्वास जितना सहायक होते हैं जिनका आत्म-विश्वास बढ़ा-चढ़ा होता है।

कठिन प्रसंगों पर आत्म विश्वास जितना सहायक होता है उतना और कोई नहीं। संसार के पराक्रमी व्यक्तियों का इतास वस्तुतः उनके मनोबल की-आत्मविश्वास की गरिमा ही सिद्ध करता है। सफलता उचित मूल्य चुकाये बिना किसी को नहीं मिली। अपने ऊपर भरोसा न करने वाले लोग यह सोचते हैं। सफलता उचित मूल्य चुकाये बिना किसी को नहीं मिली। अपने ऊपर भरोसा न करने वाले लोग यह सोचते हैं हम इतना बोझ कैसे उठा सकेंगे? आदि निषेधात्मक आत्म-हीनता भरे विचार मनुष्य की आधी शक्ति नष्ट कर देते हैं और कल्पित आशंका प्रगति की ओर बढ़ने का नहीं देती सफलता मिले भी तो कैसे?

कहते हैं, कि “विपत्ति अकेली नहीं आती, वह अपने साथ और भी अनेकों मुसीबतें लिए आती है। ” कारण स्पष्ट है कि प्रतिकूलता से घबराया हुआ मनुष्य यह सोच नहीं पाता कि अब उसे क्या करना चाहिए। साधारण कठिनाइयों से पार होने में ही काफी धैर्य सूझ-बूझ और दूरदर्शिता की आवश्यकता पड़ती है, फिर कुछ अधिक परेशानी सही मानसिक संतुलन अभीष्ट होता है। यह न रहे तो विपत्ति की नई शाखाएं फूट पड़ती हैं और कठिनाई का नया दौर आरंभ हो जाता है। जब कभी ठंडे मस्तिष्क से विचार करने का अवसर आता है तब मनुष्य पछताता है और सोचता है कि आगत विपत्ति नहीं टल सकती थी तो कोई बात न थी। अपने मानसिक संतुलन को तो विवेक द्वारा बचाया ही जा सकता था और जो परेशानियां अपनी भूलों के कारण सिरपर ओढ़ली गईं उनसे तो बचा ही जा सकता था।

इस संसार में सभी कुछ है। अच्छाई भी बुराई भी। बुरे आदमियों में से अच्छाई भी बुराई भी। बुरे आदमियों में से अच्छाई ढूँढ़ें, आपत्तियों से जो शिक्षा मिलती है उसे कठोर अध्यापक द्वारा कान ऐंठकर सुनें और समझें। “अच्छा देखो और प्रसन्न रहो” का मंत्र हमें भली प्रकार जपना और हृदयंगम करना चाहिए।

स्वभाव में प्रसन्नता को सम्मिलित कर लेने में जीवन की बहुत बड़ी सार्थकता और सफलता सन्निहित है। मुँह लटकाये रहने की, रूठने की, भवें तरेरे रहने की आदत छोड़ देनी चाहिए। हँसते और मुसकराते रहने वाले का आधा डर तो अपने आप ही चला जाता है और आधे डर को वह अपने पुरुषार्थ तथा स्वजनों के सहयोग से दूर कर लेता है जो प्रसन्न मुख करने के कारण अनायास ही मित्रता करने लगे थे। प्रसन्नता, मित्र बढ़ाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जो हँसता है उसकी हँसी में सम्मिलित रहने के लिए दसियों व्यक्ति लालायित रहते हैं। पर जो साँप की तरह मुँह फुलाये बैठा रहता है और व्यंग बाणों की, कटुवचनों की फुंसकार ही छोड़ता रहता है उसके समीप जाने की हिम्मत कौन करेगा? कहते हैं कि मनहूसियत से बढ़कर दैवी प्रकोप कोई और नहीं हो सकता।

साधारणतः लोग अपने बारे में कुछ ठीक विश्लेषण नहीं कर पाते। इसके लिए वे दूसरों की संपत्ति पर अवलंबित रहते हैं। जब दूसरे लोग अपनी प्रशंसा कार्य कर रहे है। पर जब औरों के मुँह से अपनी निंदा, करने वाले के प्रति कृतज्ञता इसलिए मन में उठती है क्यों कि उसने हमारे सद्गुणों की चर्चा करके मानसिक उत्थान में भारी योग दिया है। वह हमें मित्र और प्रिय लगता है। पर जो अपनी निंदा करते हैं वे शत्रु दीखते हैं, बुरे लगते हैं, क्योंकि उनने अपना बुरा पहलू सामने प्रस्तुत करके मन में निराशा और खिन्नता उत्पन्न की दी।

आत्म-निरीक्षण की दृष्टि से अपने दोष, दुर्गुणों को ढूंढ़ना उचित है। किन्हीं घनिष्ठ मित्र को एकाँत में उनकी अनुपयुक्त गतिविधियों को सुधारने के लिए परामर्श देना भी उचित है। ऐसा करते समय हर हालत में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि व्यक्तित्व का निराशात्मक चित्रण न किया जाय। किसी को भी लगातार खराब, अयोग्य, पापी, दुर्गुणी, दुष्ट, मूर्ख कहा जाता रहेगा तो उसका अंतर्मन धीरे-धीरे उन कहे जाने वाली बातों को सत्य स्वीकार करने लगेगा। यदि यह मान लिया जाय कि हम वस्तुतः अयोग्य हैं, बुरे हैं तो फिर मनोभूमि ऐसी ढलने लग जायगी कि जिसमें वह दोष, दुर्गुण स्वतः पैदा हो जायँ। ऐसी स्थिति में हिम्मत टूट जाती है, निराशा घेर लेती है, और कोई काम करते हुए मन भीतर ही भीतर सकपकाता रहता है कि कहीं काम बिगड़ न जाय और मूर्ख न बनना पड़े। इस सकपकाहट में हाथ पैर फूल जाते हैं और बने काम भी बिगड़ने लगते हैं। सदैव घबराहट मन में रहती है तथा असफलता हाथ लगने लगती, जिसका दोषारोपण भाग्य पर दिया जाने लगता है।

वस्तुतः ऐसा नहीं है। विचारों को काट द्वारा अपने विचार भी बदले जा सकते हैं। हमें अपना चिंतन बदलने के अतिरिक्त अपने सभी स्वजन संबंधियों की, परिचित-अपरिचितों की सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। ढूँढ़ने पर हर किसी में कुछ गुण मिलते हैं, अच्छाइयों से रहित इस धरती पर कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ। जिसमें जो सद्गुण दीख पड़ें उनकी चर्चा उस व्यक्ति के सामने की जाय कि वह इन गुणों को बढ़ाते हुए एक दिन बहुत उन्नतिशील बन सकता है, तो निश्चय ही इस प्रशंसा का प्रभाव उस पर पड़े बिना न रहेगा। प्रशंसक बनकर हम हर व्यक्ति के मित्र बन सकते हैं। उसे समझाने और सुधारने में भी सफल हो सकते हैं। पर यदि निंदा और भर्त्सना करना ही हमने सीखा है तो सब कोई अपने शत्रु बन जायेंगे और अपनी सीख को भी दुर्भावना मानकर उसके प्रतिकूल आचरण करेंगे सृजनात्मक चिंतन के अतिरिक्त सृजनात्मक श्रमशीलता भी इसलिये जरूरी है कि वह कभी ठाली मन में गलत निषेधात्मक विचार नहीं आने देती।

बुढ़ापे या थकान का बहाना लेकर काम से जी चुराना एक बुरी और भोंड़ी आदत है। बुढ़ापे में कठोर काम करने में बेशक कठिनाई होती है पर हलके काम तो मरते दम तक करते रहा जा सकता है। गाँधी जी की मृत्यु 79 वर्ष की आयु में हुई वे दिन दिनों भी पूरे समय काम करते थे। बिनोवा की आयु 80 वर्ष की थी, वे अंत तक देश के कोने-कोने में नैतिक क्राँति का संदेश लिए घूमते रहे। राजगोपालाचार्य 80 वर्ष की आयु में भी कांग्रेस को पलटाने का हौंसला दिखाते रहे। पण्डित नेहरू 72 वर्ष की आयु में नौजवानों की तरह अठारह घंटा काम किया करते थे। संसार में में सभी विचारशील व्यक्ति जिन्हें जीवन का मूल्य और महत्व मालूम है बिना जवानी-बुढ़ापे का ख्याल किये निरंतर कार्य में संलग्न रहे हैं। श्रम किस प्रकार का हो यह शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखते हुए बदला जा सकता है पर नियमित रूप से कुछ उपयोगी काम तो मरते समय तक करते ही रहना चाहिए। खाली बैठने-बेकारी से बड़ी विपत्ति दूसरी नहीं है। यह सोचना निताँत मूर्खता है कि जो बैठे रहते हैं, जिनके दिन आराम से कटते हैं, वे भाग्यवान हैं। वस्तुतः उन्हें अभागे ही कहना चाहिए क्योंकि समय और सामर्थ्य रहते हुए भी वे श्रम जैसे मित्र का तिरस्कार करके जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ गँवा रहे हैं, उनका कोई भी लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। आमतौर से हमें जितना काम करना पड़ता है यदि उसे उत्साहपूर्वक करें तो हमें कभी भी निषेधात्मक चिंतन का शिकार न होना पड़े।

एक बढ़ई किसी मजिस्ट्रेट की मेज को बहुत अधिक सावधानी से तैयार कर रहा था। किसी ने पूछा कि तुम इस इतने परिश्रम से क्यों बना रहे हो? बढ़ई ने इस प्रकार उत्तर दिया कि “जब मैं मजिस्ट्रेट होकर इस मेज पर बैठ कर काम करूं तो मुझे यह सुन्दर लगे। ” कुछ वर्ष बाद वह वास्तव में मजिस्ट्रेट बनकर उस मेज पर बैठा।

अमरीका के महान जन-सेवक गैरीसन ने अन्यायी रूढ़ियों का उच्छेद करने के लिये जब ‘लिबरेटर’ नाम का सामयिक पत्र प्रकाशित किया तो उसके प्रथम अंक में ही उसने लिखा था-”सच्चे दिल से मैं यह कार्य कर रहा हूँ। मेरे हृदय में किसी प्रकार की शंका नहीं है। मैं कभी किसी प्रकार का बहाना करके एक इंच भी पीछे नहीं हटूँगा और मेरी बात को सब कोई सुनेंगे। ” ऐसी अचल निष्ठा से गैरीसन का चरित्र विकसित हुआ था। इतना ही नहीं लिंकन, ग्राँट आदि जो बहुसंख्यक महान आत्मायें प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुये वीरगति का प्राप्त हुई वे भी ऐसे ही दृढ़ निश्चय वाली थीं। इस प्रकार की इच्छा शक्ति होना वास्तव में महत्व की बात है। यही सफल जीवन की कुँजी भी है।

एक चिंतक का कथन है कि “जगत में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं ‘जगत में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं ‘करूंगा’ ‘नहीं करूंगा’ और ‘कर नहीं सकता। ” पहली प्रकार के सब कामों को पूरा कर डालते हैं, दूसरी प्रकार वालों को सब बातों का उलटा फल मिलता है और तीसरी प्रकार के सदैव असफल होते हैं। आत्म-श्रद्धा में आत्मविश्वास में इतना बल है कि जो कार्य असंभव जान पड़ता है। उसको भी करने का जो दृढ़ निश्चय कर लेता है तो वह कार्य उसके जीवन में कभी न कभी पूरा हो ही जाता है। हम अपने ऊपर भरोसा करें और नई सूझ-बूझ हर क्षण पैदा करते रहें नयी स्फूर्ति का उन्नयन होता देखें। आत्म विश्वास का सत्परिणाम असंदिग्ध है। जो अपने ऊपर भरोसा करता है सारी दुनिया उस पर भरोसा करती है।


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