बड़प्पन के प्रदर्शन में घाटा ही घाटा

December 1994

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समझा यह जाता है कि हम दूसरों पर अपनी संपन्नता, बुद्धिमत्ता, बलिष्ठता का रोब जमाकर उन्हें प्रभावित कर सकते हैं, पर ऐसा होता कम और कदाचित ही है। किसी जमाने में मनुष्यों का एक वर्ग बहुत ही गई गुजरी, दीन−हीन अवस्था में था। तब उसके लिए संपन्नता और समर्थता दैवी वरदान जैसी थीं। स्वयं न तो वह बढ़कर समान स्थिति में पहुँचने की स्थिति में था और न वैसी कामना, कल्पना ही करता था। ऐसी असहाय, शारीरिक और मानसिक दशा में वह बलिष्ठों के सम्मुख सहज ही नत मस्तक हो जाता था और विवश होने पर गिड़गिड़ाने भी लगता था।

पर अब ऐसी बात नहीं। सर्वत्र एकता और समता की मान्यता को बल मिला है। सभी के लिए ऊँचा उठ सकना, आगे बढ़ सकना संभव माना गया है। सभी की धारणा वैसी बन गई है कि वह भी मानवी अधिकारों से सुसज्जित है। उसका उपयोग भी करना चाहता है पर परिस्थितिजन्य बाधायें इस मार्ग में खड़ी दीखती हैं। और अपने पिछड़ेपन के लिए बाधक परिस्थितियों को ही दोषी मानता है। अभीष्ट संभावनाओं के मार्ग में अवरोध करने वालों के प्रति द्वेष-बुद्धि उपजना स्वाभाविक है।

कभी समय था जब यह सोचा जाता था कि वैभव ईश्वर प्रदत्त है। वह भाग्यवानों को ही मिलता है। विधाता की इच्छा से ही कोई संपन्न विपन्न बनता है। भगवान की इच्छा कोई कैसे रोके? भाग्य कैसे बदला जाय? यह मान्यतायें पिछले वर्ग को किसी प्रकार संतोष प्रदान कर देती थीं और ईर्ष्या एवं आक्रोश से ग्रसित नहीं होता था। संपन्न वर्ग के लोगों में भी अपना वैभव प्रदर्शन निर्वाध रूप से चलता रहता था। विग्रह खड़े होने के दृश्य कदाचित ही कभी देखने को मिलते थे।

पर अब मान्यताओं में लगी आमूलचूल स्तर का परिवर्तन हुआ है। समझा जाने लगा है कि समर्थ वर्ग ने सारे सुविधा−साधन स्वयं की हथिया लिए हैं। भाग्यवादी लोक मान्यतायें इसलिए गढ़ी और फैलाई हैं कि दमित वर्ग अपने अधिकार समझने और माँगने न लगे। संपन्नों को अपनी प्रगति का बाधक मानकर उनके प्रति अपना आक्रोश प्रकट न करने लगे। संपन्नता निर्धनता की तरह ही जाति और लिंग के आधार पर प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को अब कृत्रिम और निहित स्वार्थ द्वारा गढ़ी गई, फैलाई गई माना जाने लगा है। भाग्यवादी और ईश्वरेच्छा वाला दर्शन अब अभिजात वर्ग का कुचक्र भर माना जाने लगा है। पूर्व प्रचलनों का उदाहरण देकर भी अब यथा स्थिति बनाये रखने की बात बनती नहीं है। भाग्य को कोसने की अपेक्षा अब लोक चिंतन में इस तथ्य का समर्थन आरी कर दिया है कि समर्थों ने अपनी कुटिलता से समवितरण और सहविभाजन का सुयोग नहीं बनने दिया है। यदि उन्हें भी अवसर मिला होता, सभी के लिए समान परिस्थितियाँ रही होती तो उन्हें वह पिछड़ापन न भोगना पड़ता जो उन्हें इन दिनों भोगना पड़ रहा है।

कभी जिन लोगों को भाग्यवान माना और सराहा जाता था अब उनके प्रति दृष्टि बदल गई है और समझा जाने लगा है कि बाधायें और परिस्थितियां उत्पन्न करके उन्हें वंचित स्थिति में रखा गया है, उनके साथ अन्याय हुआ है। जिसे अन्यायी समझा जाय उसके प्रति-रोष-आक्रोश उत्पन्न हो यह स्वाभाविक है। साथ ही यह भी स्वाभाविक है कि जिन्हें अपनी प्रगति बाधक माना जाय उनके प्रति प्रतिशोध की भावना उपजे और विग्रह खड़ा करने का मन बने।

यह कहा जा सकता है कि जो बड़े बने हैं उनने अपनी बुद्धिमत्ता और परिश्रमशीलता के आधार पर प्रगति की है। पिछड़े लोग आलस्य, अनुत्साह और कम सूझबूझ के कारण ही पिछड़े-यदि इस कथन को सही भी मान लिया जाय तो भी मानवी एकात्मता का दर्शन यह कहता है कि विकसितों को अविकसितों की सहायता करनी चाहिए थी और वैभव को असाधारण रूप से एकत्रित करते रहने की अपेक्षा उसका विभाजन उदारतापूर्वक इस प्रकार करना चाहिए था कि जो पिछड़ गये हैं उन्हें सुविधाजनक स्थिति में पहुँचने में सहायता मिलती। बहुत भूखे लोगों के बीच बैठ कर यदि कोई अकेला षट्रस, व्यंजन खता और उनका प्रदर्शन करता रहे तो उसके प्रति किसी को भी सहानुभूति शेष न रहेगी। विग्रह और विद्रोह उभरेगा, ईर्ष्या पनपेगी और वह किसी न किसी रूप में सुसंपन्नों के प्रति हानिकारक सिद्ध होकर रहेगी।

अच्छा होता कि वैभवशाली लोग जनसाधारण के स्तर का निर्वाह स्वीकार करते और इसके उपराँत जो भी समय, श्रम, कौशल, वैभव आदि बचता उसे अविकसित वर्ग को विकसित बनाने के लिए नियोजित करते। इससे जो किसी कारण पिछड़ गये हैं उन्हें ऊँचे उठकर समान स्तर तक पहुँचने का लाभ मिलता और सुख दुःख में साझीदार बनकर समता का लाभ हर किसी को मिला और सर्वत्र सुख−शांति का वातावरण दृष्टिगोचर होता। ऐसा बन पड़ने पर वितरण की उदारता इसकी तुलना में उन्हें अधिक श्रेय प्रदान करती जिसे इन दिनों वैभव प्रदर्शन और अनावश्यक उपभोग द्वारा प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

संचय और त्याग के उपदेश विशेषतया सुसंपन्न वर्ग के लिए हैं। इससे उन्हें निष्ठुर, अनुदार, कृपण, अहंकारी आदि का दोषारोपण सहने के आरोप से छुटकारा मिला॥ बढ़ी-चढ़ी कुशलता और श्रमशीलता को विभाजित कर देने पर उनको अधिक श्रेय और सम्मान मिलता। उपभोग में अति बरतने पर जिस सहकार की पूर्ति अभी बन पड़ती है उसकी तुलना में उदारचेता बनकर वे अधिक श्रेय और संतुष्टि प्राप्त करते।

यदि संकीर्ण स्वार्थपरता उन्हें न करने दे और अपनी कमाई आप ही खाने-खुन्दरते रहने का मन हो तो भी अपने बचाव को ध्यान में रखते हुए कम से कम इतना तो करना चाहिए कि वैभव का बड़प्पन का उद्धत प्रदर्शन न किया जाय। असाधारण ठाटबाट न रोपा जाय। बनावट, शृंगार, प्रदर्शन में जो अपव्यय होता है उसको रोका जाय। इससे कम से कम इतना लाभ तो रहेगा ही कि सर्वधारण की रहने पर भरती ईर्ष्या का सामना न करना पड़ेगा। इस कारण जो आक्रमण होता है जो आरोप लगता है उनसे बिना कठिनाई के बचाव हो सकता है।

देखा जाता है कि एक का ठाटबाट दूसरे को ललचाता है और उस भड़की हुई लिप्सा को पूरा करने के लिए अनाचार का मार्ग अपनाया जाता है। वह किसी हद तक रुक गया होता। बड़ों द्वारा विलासिता, साज−सज्जा और फिजूलखर्ची के द्वारा बड़प्पन प्रदर्शन को जो प्रयत्न किया जाता है। यदि उसे रोका जा सके तो ईर्ष्या के उस के उस अंधड़ से बचा जा सकता है जो अनीति उपार्जन जैसे अनेकों आरोप लगाता और ऊँचे टीले पर बैठे हुओं को घसीट कर अपनी समता तक लगाने के लिए अनेकों मार्ग खोजता है।

यह ठीक है कि समुन्नत बनने के लिए कुशलता और श्रमशीलता को अधिक श्रेय है। फिर भी इतना निश्चित है कि जो लंबे समय से पिछड़े हैं उनके उत्कर्ष, आवश्यक गुणों में प्रवीण हो जाने की तत्काल आशा नहीं की जा सकती। सामयिक कर्तव्य तो सुसंपन्नों के कंधे पर ही अधिक आता है कि वे अपनी प्रगति का लाभ पिछड़े वर्ग को प्रदान करके हलके बनो। सादगी अपनायें और औसत नागरिक की तरह रहते हुए अपनी विनम्र सज्जनता का परिचय दें। यह उनके अपने ही हित में है। अहंकारी ठाटबाट प्रदर्शन करके वे बड़प्पन का ढिंढोरा पीटते हुए जितने गौरवान्वित होने का प्रयत्न करते हैं उसकी तुलना में उन्हें घाटा ही अधिक रहेगा। भीतर या बार का असंतोष उन पर बार-बार दुहरा आक्रमण करेगा एवं उन्हें मानसिक उद्वेगों-संत्रासों का शिकार बनाएगा। अच्छा हो बड़प्पन के स्थान पर महानता को जीवन में उतारने की दिशा में प्रगति करें। यही युग की माँग है।


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