स्थायी-मिलन का रहस्य

October 1971

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अध्यात्म और विज्ञान के विग्रह ने जिस सर्वनाशी सम्भावना का सूत्रपात किया है। उसकी प्रथम झाँकी आस्था संकट के रूप में सामने है। आदर्शवादी मूल्यों के गिर जाने से मनुष्य विलासी, स्वार्थी, अनुदार ही नहीं अपराधी बनता और गरिमा को निरन्तर खोता चला जा रहा है। इससे उसका अपना पतन-पराभव तो हुआ ही है, समूचे समाज को समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का सामना करना पड़ रहा है। अभी पानी गुनगुना भर हुआ है अगले दिनों जब वह उबलेगा, भाप बनेगा और बन्द बर्तन को फाड़कर विस्फोट रौद्र रूप का परिचय देगा तो दिल दहलाने वाली आशंकाएँ सामने आ खड़ी होंगी। आवश्यकता है कि समय रहते समाधान सोचा जाय और विपन्न वर्तमान के भयानक भविष्य का रूप धारण करने से पूर्व ही स्थिति को सम्भाल लिया जाये।

अध्यात्म की अपनी शाश्वत सत्ता है किन्तु विज्ञान ने भी अपनी सामयिक प्रौढ़ता उत्पन्न कर ली है। दोनों लड़ेंगे तो सुन्द-उपसुन्द दैत्य बन्धुओं की तरह एक-दूसरे का विनाश करके अन्ततः ऐसी रिक्तता उत्पन्न करेंगे जिसे फिर से भर सकना असम्भव नहीं हो अत्यधिक कठिन अवश्य होगा। विग्रह को सहयोग में बदल देना है तो कठिन काम, पर उसे किसी न किसी प्रकार करना ही होगा। इसके अतिरिक्त महामरण ही एकमात्र विकल्प है। अस्तु उसे किया ही जाना चाहिए, करना ही चाहिए। देव और दैत्य मिलकर समुद्र मन्थन करने में तत्पर हुए और चौदह बहुमूल्य रत्न उपलब्ध करने के श्रेयाधिकारी बने। उसी उपाख्यान की पुनरावृत्ति के रूप में अध्यात्म और विज्ञान को परस्पर सहयोग करने और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ साकार करने पर सहमत किया जा सकता है।


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