स्वप्नों में अन्तर्निहित जीवन सत्य

October 1971

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यह विश्व ब्रह्माण्ड किस प्रकार बना और फिर किस प्रकार सुविस्तृत होते-होते इस स्तर तक पहुँचा, इसका ऊहापोह खगोलवेत्ता अपने-अपने ढंग से करते रहते हैं। इस संदर्भ की रहस्यमय जानकारी यह है कि पदार्थ की बहिरंग हलचलें और भीतर की अद्भुत क्षमताएँ अकारण अथवा स्वेच्छाचार पर निर्भर नहीं है वरन् उनके पीछे ऐसे तथ्य जुड़े हुए है जिन्हें चेतन जगत की परम्पराओं के अनुरूप कह सकते हैं।

प्राणि-जगत की प्रगति का तात्विक पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि उस क्षेत्र में जो कुछ हुआ है या होने वाला है वह वस्तुपरक नहीं वरन् भावपरक है। आकाँक्षाएँ उभरती हैं और बुद्धि तथा काया तद्नुरूप काम करना आरम्भ कर देती है। स्नेह सहकार से प्रेरित होकर वे एक दूसरे के साथ बँधते और आदान-प्रदान का उपक्रम चलाकर उपयोगी उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त उनका साहस है जो पराक्रम के लिए अन्तःक्षेत्र में अभीष्ट विद्युत का उत्पादन करता है। बिजली न होने पर संबंध यन्त्रों का चल सकना सम्भव नहीं, इसी प्रकार साहस के अभाव में शारीरिक पुरुषार्थ बन पड़ते हैं और न मनःक्षेत्र के महत्वपूर्ण संस्थान कुछ महत्वपूर्ण सोचने-कुछ सारगर्भित निष्कर्ष निकालने में समर्थ होते हैं।

प्राणि-जगत की विशेषतया मनुष्य समाज की अद्यावधि प्रगति का सार संक्षेप यही है। इन्हीं प्रवृत्तियों ने उसे नर पशु से नर नारायण स्तर तक पहुँचा देने को सड़क बनाई है। यदि उपरोक्त तीन अतिरिक्त प्रवृत्तियाँ मनुष्य में न होतीं तो वह भी आदिम काल की उसी स्थिति में पड़ा रहता जिसमें कि अन्यान्य प्राणी रह रहे है।

सृष्टि क्रम के अनुसंधानी बताते हैं कि आरम्भ में मात्र अनगढ़ पदार्थ यत्र-तत्र बिखरा पड़ा था, न उसका कोई व्यवस्थित स्वरूप था और न निश्चित क्रिया-कलाप। लक्ष्य विहीन पथहारे की तरह वह ऐसे ही निरुद्देश्य भटकता था। जब उसका सुनिश्चित स्वरूप बनने का समय आया तो आगे पीछे तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं और उनने प्रस्तुत ब्रह्माण्ड का एक स्वरूप एवं कार्यक्रम निर्धारित कर दिया।

कहते हैं कि अनगढ़ पदार्थ में विस्फोट हुआ और बढ़ती गई। यह दूसरा चरण गति है। गति न केवल आगे ही बढ़ती गई वरन् उनने एक कक्षा बनाई और परिक्रमा करने की नीति अपनाई। परिक्रमा आवेग बाहरी कक्षा में परिभ्रमण साथ ही अपनी धुरी पर अपने क्षेत्र में लट्टू की तरह घूमना। इस प्रक्रिया के साथ-साथ एक और नया तथ्य उभरा-वह था गुरुत्वाकर्षण। गुरुत्वाकर्षण अर्थात् बड़े के प्रति छोटे का नमन और छोटे के प्रति बड़े हुए स्नेह सहयोग का अनुदान। इन्हीं तीन सिद्धान्तों पर प्राणि-जगत का विकास हुआ है और उन्हीं पर पदार्थ ने अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनुशासन बनाये और अपनाये हैं। इस संदर्भ में अधिक जानना हो तो उस प्रक्रिया पर और भी पैनी नजर डालनी पड़ेगी।

सृष्टि के आदि में हुआ विस्फोट कहीं बाहर से नहीं भीतर से ही उभरा। चेतना के क्षेत्र में इसे अदम्य अभिलाषा कह सकते हैं। इसके उपरान्त जब छितराया हुआ पदार्थ अनगढ़ स्थिति को छोड़कर सुव्यवस्थित रहने की स्थिति तक पहुँचा तो उसमें दो शक्तियाँ काम करने लगीं एक आकर्षण की दूसरी विदूषण की। ग्रह पिण्डों में पाई जाने वाली गुरुत्वाकर्षण शक्ति, अनेक साधनों को बाहर से खींचकर अपने वैभव में सम्मिलित करती है। विकर्षण आगे बढ़ने का पुरुषार्थ और अवरोध को चीर डालने की भूमिका बनाता है। ग्रह आगे बढ़ते हैं।

इसके लिए उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यह आदिम विस्फोट से उसे उपलब्ध है। यह आरम्भ ऐसी घड़ी में हुआ है कि उसका अन्त कभी भी न हो सकेगा। इसी प्रकार गुरुत्वाकर्षण सृष्टि की उद्गम बेला में ही प्रादुर्भूत हुआ और वह भी जब तक इस ब्रह्माण्ड का अस्तित्व है तब तक यथावत् ही बना रहेगा।

सृष्टि के आधारभूत कारणों को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। एक वह जबकि गुम-सुम पड़े हुए द्रव्यमान को यह ‘ऊत’ सूझी कि यह जड़ जैसी नीरस निस्तब्ध स्थिति स्वीकार नहीं। इससे सन्तुष्ट नहीं बैठा जस सकता है। आगे बढ़ना और क्रीड़ा-कल्लोल करना ही चाहिए। यह सब विचारपूर्वक योजनाबद्ध हुआ था संयोगवश इस पर विवाद करने की आवश्यकता नहीं। इतना समझा जा सकता कि वह उमंग उठी अवश्य। भले ही उसका कारण कुछ भी क्यों न रहा हो। यह एक आधारभूत कारण है जिसने निस्तब्ध घनीभूत पदार्थ यान को वर्तमान ब्रह्माण्ड के रूप में विकसित परिणित होने का कौतूहल खड़ा कर दिया।

इसके उपरान्त दूसरी प्रक्रिया है विस्फोट के साथ गति का जुड़ा होना। यदि विस्फोट के साथ गति न होती तो एक धमाका भर होने और उसी समय कुछ उछल-कूद होने के उपरान्त बात सदा सर्वदा के लिए शान्त हो जाती और उसका एक घटना मात्र के रूप में ही विवरण मिलता और समय के साथ-साथ विस्मृत के गर्त में गिरता चला जाता। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। विस्फोट धमाका भर नहीं रहा वरन् एक गतिशीलता बनकर ब्रह्माण्ड के उसके घटक अवयवों का स्वभाव बनकर रह गया। वह स्वभाव ही अग्रगमन के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन उसी गोलाकार गतिशीलता का उतार-चढ़ाव है।

तीसरा गुरुत्वाकर्षण बल सर्वविदित है। यदि वह न हो तो ग्रह तारक एक दूसरे के साथ रस्सों में जकड़े हुए जिस प्रकार अधर में टंगे है वैसा शक्य ही न हो सके। उनके बीच कोई तालमेल ही न बैठे। धुरी पर घूमने और कक्षा में परिक्रमा करने का अनुशासन ही न रहे। यह ग्रह पिण्ड स्वेच्छाचारी मायावरों की तरह इधर-उधर भटकने-एक दूसरे से टकराने चिपकने लगे। फिर दिनमान के रूप में जो काल एक सुनिश्चित स्थिति बनाये हुए है उसका भी कोई अस्तित्व न रहे। ऐसी दशा में जीवनधारियों की न तो उत्पत्ति ही हो सकती है और न उनके निर्वाह की साधन व्यवस्था। ऐसी दशा में ब्रह्माण्ड का स्तर भी अलाव से उठने वाले और इधर-उधर छितराने वाले धुएँ से अधिक और भी कुछ न बन पड़ेगा। गुरुत्वाकर्षण को एक प्रकार से नीतिमान एवं अनुशासन जैसी मानवी विशिष्टता के समतुल्य गिना जा सकता है। विस्फोट में मूल स्थिति उमंग की आकाँक्षा कह सकते हैं। विस्फोट का साहस पराक्रम। गुरुत्वाकर्षण का सहकार अनुशासन। सृष्टि के यही तीन आधार ही इस ब्रह्माण्ड की संरचना के मूलभूत कारण हैं। उन्हीं ने जीव विकास का इतना लम्बा इतिहास गढ़कर खड़ा कर दिया। अमीबा से लेकर सुविकसित प्राणियों के वर्तमान रूप में पहुँचाने तक की अति कठिन महायात्रा इन्हीं तीन साधनों के सहारे सम्भव हो सकी है। पदार्थ और प्राणी की प्रगति का इतिहास जिस कागज, कलम और स्याही से लिखा गया है उसे आकाँक्षा-साहसिकता एवं सहकारिता के रूप में माना जा सकता है। आकाँक्षा को ही सत्, सहकारिता को ही रज और साहसिकता को ही तप कहते हैं।


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