बुराई का बुरा अन्त

October 1971

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आदमी शरीर, बुद्धि और साधनों की दृष्टि से क्यों अधिक बलिष्ठ, कुशल और सम्पत्तिवान बनता चला आया ? जबकि अन्य प्राणी करोड़ों वर्ष से अपनी आदिम स्थिति में ही पड़े हुए हैं। प्रगति की दिशा में वे कुछ कदम ही आगे बढ़ सके है। प्रकृतिगत परिस्थितियाँ, सुविधा-असुविधा तो प्रायः सभी के लिए एक जैसी है, फिर किसी ने उनका लाभ किस कारण उठाया है और कोई क्यों उनसे अनजान-अपरिचित बना रहा ?

इस गुत्थी का समाधान प्रकृति के जैविक एवं भौतिक सिद्धान्तों से नहीं हो सकता। उसका कारण ढूँढ़ने के लिए शरीर संरचना से आगे बढ़कर बौद्धिक एवं भावनात्मक स्तर की परतों को कुरेदना पड़ेगा, जो मनुष्य में अन्यान्य सभी प्राणियों की तुलना में कहीं अधिक उच्च स्तरीय पायी जाती हैं।

स्तरीय से तात्पर्य कुशलता-तीक्ष्णता से नहीं वरन् उस विशेष दृष्टि से है जिसे बोल-चाल की भाषा में नैतिकता या सामाजिकता कहते हैं। उसी को सज्जनता सदाशयता के नाम से निरूपित किया जाता है। यही मनुष्य की वह भौतिक विशेषता है जो उसे काय-संरचना की दृष्टि में नहीं, कुशलता-क्षमता की दृष्टि से भी नहीं वरन् दूरदर्शिता एवं नीतिमत्ता की दृष्टि से अलग करती है।

शरीर की दृष्टि से जीवधारियों में हाथी, गैंडा, ऊँट, जिराफ, घोड़ा, चीता जैसी अनेकों जातियाँ हैं जिन्हें कहीं अधिक बलिष्ठ, विशाल एवं परिपुष्ट कहा जा सकता है। इसी प्रकार घ्राण-शक्ति में क्षुद्र कीटकों से लेकर कुत्ते तक में ऐसी विशेषताएँ पाई जाती है जिनके सहारे वे अविकसित होते हुए भी अनेकानेक आवश्यकताओं को पूरा करते और साधन जुटाते रहते हैं। चमगादड़ जैसे स्पर्श-प्रधान प्राणियों की भी कमी नहीं। हिंस्र पशु-पक्षी शिकार पकड़ने में जैसे छल-छद्म भरे हथकण्डे अपनाते चक्रव्यूह रचते हैं उसे देखकर धूर्तों और कूटनीतिज्ञों की भी दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। बिल्ली, मकड़ी आदि प्राणियों को ऋतु परिवर्तन का भूकम्प का प्रकृति दुर्घटनाओं का पूर्वाभास प्राप्त करने की अद्भुत क्षमता होती है। इसी आधार पर ही सम्भावित विपत्ति से बच निकलने और सुरक्षित स्थान तक जा पहुँचने में सफल होते रहते हैं।

शहद को मक्खी का मधु-संचय, चींटी का सहकारी समाज दीमकों की वास्तुकला, मकड़ी की तन्तु-विद्या इतनी उच्चस्तरीय है कि मनुष्य के लिए उनका मुकाबला कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। बन्दरों की तरह छलाँग लगाना, पक्षियों की तरह उड़ना मछली की तरह डुबकी लगाना उसे कहाँ आता है। ऐसी ही अन्यान्य विशेषताओं के क्षेत्र में मनुष्य दूसरों से पिछड़ा हुआ ही सिद्ध होता है। हिरन, घोड़े और चीते तक के साथ दौड़ने में प्रतिद्वन्द्विता कर सकना उसके लिए कहाँ सम्भव हो सकता है। जुगनूँ की चमक, मोर सा सौंदर्य, कोकिल सा कठ उसे प्रकृति ने कहाँ दिया ?

इतने पर भी वह प्रगति पथ पर अपने अन्य सभी साथियों को हर प्रतियोगिता में पीछे छोड़ता हुआ आगे बढ़ता चला आया है। आदि काल के विशालकाय प्राणी अतिशय समर्थ होते हुए भी अपने अस्तित्व की रक्षा व कर सके और प्रतिकूलताओं के कुछ ही थपेड़ों से धराशायी हो गये।

इंग्लैंड के प्रसिद्ध शरीर शास्त्री एडवर्ड टामसन ने गोरिल्ला और आदमी की शरीर-संरचना पर तुलनात्मक अध्ययन किया तो पाया कि ‘एनाटामी’ की दृष्टि से दोनों के मध्य कोई बड़ा अन्तर नहीं है। मस्तिष्क एवं वाणी के अवयव भी प्रायः एक जैसे हैं। फिर दोनों के स्तर में जमीन-आसमान जैसा अन्तर क्यों ? इसके उत्तर में उनने इतना ही लिखा है कि आदमी के अन्दर एक मौलिक विशेषता है। वह आत्म-नियन्त्रण, सहयोग सम्पादन, एवं दूरगामी परिणामों को समझने की ऐसी चेतनात्मक विशिष्टताओं से सम्पन्न है जिनकी वानर वर्ग के अन्य समुदाय में भारी कमी है। इसी कमी-वेशी ने मनुष्य और अन्य प्राणियों के बीच जमीन-आसमान जैसा अन्तर उपस्थित कर दिया है।

डार्विन के समकालीन दो और विकासवादी प्रख्यात हुए है। एक ‘बफन’ दूसरे ‘लिनीयस’। दोनों ने अपने-अपने ढंग से इस क्षेत्र में भारी शोध की हैं और वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जीवों के विकास क्रम में जो समय एवं साधनों का योगदान रहा है उसके आधार पर मानवी विकास क्रम को सिद्ध कर सकना शक्य नहीं। मनुष्य की विचित्रता और विलक्षणता उसको ऐसी बुद्धिमत्ता है जिसे चतुरता को नहीं, शालीनता की ही संज्ञा दी जा सकती हैं।

विशालकाय महागज सरीसृप एवं महागरुड़ आकार और पराक्रम की दृष्टि से अपने समय में प्राणी जगत में मूर्धन्य माने जाते थे। चलते-फिरते बुलडोजरों अन्धड़ों की तरह वे जिधर भी निकलते थे कत्लेआम मचाते चले जाते थे। उनका प्रतिद्वन्द्वी भी कोई नहीं था। निर्वाह के साधन भी कम नहीं थे, पर वे समय की गति के साथ दौड़ नहीं सके और अपना अस्तित्व गंवा बैठे। जबकि मनुष्य कितनी ही बार हिम प्रलयों, दुर्भिक्षों, जल-प्रलयों एवं ऐसे ही अन्य व्यापक प्रकृति प्रकोपों को सहन करता हुआ भी सृष्टि का मुकुटमणि बना हुआ है।

मानवी विशेषताओं में उसकी उदार चेतना को ही प्रमुख माना जा सकता है। उसी के कारण उसकी पशु−प्रवृत्ति, संकीर्ण स्वार्थपरता-सदुद्देश्यों का महत्व समझ सकने और उन्हें अपनाने में समर्थ हो सकी। दूसरे प्राणी अपनी शरीर रक्षा को-उसके लिए आवश्यक साधनों की उपलब्ध कराने की इच्छा में ही निमग्न रहते हैं। मनुष्य करता तो यह भी है, पर इतने तक सीमित नहीं रहता। वह आत्म-गौरव की बात सोचता है और मैत्री करुणा के निमित्त किये जाने वाले त्याग पराक्रम से आनन्द, सन्तोष का रसास्वादन करता है। यह प्रवृत्ति सद्भावना के नाम से जानी जाती है। यही हैं वह विलक्षणता जिसने निजी प्रतिभा को विकसित करने तथा दूसरों का स्नेह-सहयोग एकत्रित करने में सफलता पाई। यही है वह दैवी अनुकंपा जिसके कारण मनुष्य को प्रगति के अनेकानेक क्षेत्रों में असाधारण सफलता उपलब्ध हो सकी।

विकासवाद के प्रणेता डार्विन ने ‘आरिजिन ऑफ स्पेशीज’ पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि प्राणियों का अस्तित्व एक-दूसरे के सहयोग के ऊपर निर्भर करता है। अपनी दूसरी पुस्तक ‘मनुष्य का अवतरण’ में वे लिखते हैं कि असंख्य प्राणि समुदायों में पृथक-पृथक प्राणियों का आपसी जीवन-संघर्ष समाप्त हो जाता है। संघर्ष का स्थान सहयोग ले लेता है। फलस्वरूप उनका बौद्धिक एवं नैतिक विकास होता है। उनका कहना है कि योग्यतम की श्रेणी में वे नहीं आते जो सबसे अधिक बलवान अथवा चालाक हैं, बल्कि वे हैं जो अपने समाज के हित के लिए क्या निर्बल-क्या बलवान सभी की शक्ति को इस प्रकार एकत्रित एवं संगठित करना जानते हैं कि वह एक-दूसरे का पोषक हो। जिन समुदायों में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्राणियों की जितनी अधिकता होगी वे ही सबसे अधिक उन्नत होंगे और फूले-फलेंगे।

विकासवाद के सिद्धान्त “स्ट्रगल फॉर एक्जीसटेंस एण्ड सरवाईवल ऑफ दी फिटेस्ट” के वास्तविक स्वरूप को डार्विन का उपरोक्त मत भली-भाँति स्पष्ट करता है। डार्विन के सबसे निकटवर्ती अनुयायी प्रो. केसलर थे। रूस की प्रकृतिवादियों की परिषद् में एक बार व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा - “जीवन संघर्ष का नियम तो प्रकृति में दिखाई तो पड़ता है, किन्तु वह अपवाद है। पारस्परिक सहयोग का नियम ही शाश्वत है। केसलर का कहना है कि डार्विन के जीवन-संघर्ष को व्याख्या गलत ढंग से की गई। यद्यपि में जीवन संघर्ष के नियम से सर्वथा इन्कार नहीं करता। पर मेरा कहना तो यह है कि पारस्परिक संघर्ष की तुलना में पारस्परिक सहयोग के द्वारा प्राणि-संसार और मानव जाति का कहीं अधिक विकास होता है।”

उक्त सम्मेलन में प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ एवं भूगोल शास्त्री साइवर्ट सोफ भी उपस्थित थे। उन्होंने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये-”मुझे डार्विन का ग्रन्थ ‘आरिजिन ऑफ स्पेशीज’ पढ़ने को मिला। अभी पुस्तक का नया-नया प्रभाव था। जंगलों में घूमना, जीव-जन्तुओं, पक्षियों का अध्ययन करना मेरा शौक था। मैं लम्बे समय तक अपने अध्ययन काल में इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि एक ही जाति के प्राणियों में तीव्र प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष देखने को मिलेगा, किन्तु मुझे निराशा ही हाथ लगी।”

अराजकतावाद (एनाकिंज्म) शासन पद्धति के प्रणेता एवं प्रसिद्ध विचारक प्रिंस क्रोपाटकिन का कहना है कि जीवन संघर्ष के प्रत्यक्ष एवं व्यापक पक्षों का गहराई से जब अध्ययन करते हैं तो सबसे पहले पारस्परिक सहयोग के उदाहरण बहुतायत संख्या में सामने आते हैं।

प्रिंस क्रोपाटकिन अपनी पुस्तक ‘म्युचुअल एड’ में लिखते हैं कि जो प्राणी सामाजिक जीवन एवं परस्पर सहयोग के लाभ को समझते एवं आचरण करते हैं, वे ही जीवित रहते हैं। जबकि अधिक चालाक एवं होशियार होते हुए भी जिनमें पारस्परिक सहयोग की प्रवृत्ति नहीं होती, उन्हें प्रकृति नष्ट कर देती है।

प्रिंस क्रोपाटकिन प्रशान्त महासागर के द्वीपों में रहने वाले निवासियों -एस्किमो, रेड इण्डियनों के बीच जाकर भी अध्ययन किया। वे लिखते हैं कि समूह में संगठित रूप से मित्रतापूर्वक रहना इन जातियों का सबसे बड़ा गुण है, अन्यथा इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों में उनका अस्तित्व कभी का समाप्त हो गया होता। उनका कहना है कि प्रशाँत महासागर के टापू में रहने वाली जाति ‘पोलिनेशियन’ की अद्भुत एकता के ऊपर तो एक मोटी पुस्तक लिखी जा सकती है। ‘फ्यूजियन जाति’ को भी यही विशेषता है। वे भी पापुओं की भाँति समुदाय में रहते तथा परिश्रमशील होते हैं। वे हर वस्तु का सम्मिलित उपयोग करते हैं।

पूर्वी ग्रीनलैंड में तो और भी अधिक कठोरतम संघर्ष जीवित रहने के लिए करना पड़ता है। एस्किमो जाति में एक मात्र जीवन निर्वाह का साधन मछली पकड़ना है। प्रिंस क्रोपाटकिन आगे लिखते हैं कि एस्किमो लोगों का संगठन साम्यवादी आधार पर हुआ है। शिकार एवं मछलियाँ पकड़ने में उनके हाथ जो कुछ भी आता है, उस पर सम्पूर्ण जाति का अधिकार होता है। उनका विश्वास है कि किसी व्यक्ति विशेष की यदि संपत्ति एकत्रित हो जायेगी तो हमारी जातीय एकता छिन्न-भिन्न हो जायेगी। इससे बचाव के लिए उनके बीच एक परम्परा प्रचलित है। जब भी किसी एक व्यक्ति के पास संपत्ति एकत्रित हो जाती है वह व्यक्ति अपनी जाति के लोगों को एक बड़े उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित करता है। सभी मिल-जुलकर खाते एवं नाचते हैं। इसके आयोजन में हुए खर्च के बाद जो धन बचता है, धनी व्यक्ति सभी आमंत्रित लोगों में बाँट देता है। ‘डेल’ नामक एक विद्वान जो इस जाति का अध्ययन करने के लिए एक बार यूक्रेन नदी के किनारे गये तो एस्किमो लोगों ने स्वयं उन्हें इस प्रकार के आयोजन में सम्मिलित किया। एक धनी एस्किमो ने अपनी दस बन्दूकें, दस बालदार खाल, दो सौ ऊदबिलाव, पाँच सौ कम्बल जो भी उसकी कुल सम्पत्ति थी- को आमंत्रित सभी व्यक्तियों में बाँट दिया। डेल ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा हैं कि -”एस्किमो जाति की यह प्रथा एवं ऐसी उदारता आज भी सभ्य जातियों में नहीं दिखाई पड़ती। निस्सन्देह यही कारण है कि इस दुर्गम क्षेत्र में यह जाति प्रकृति प्रतिकूलताओं में भी जीवित बनी हुई है।

मानवी प्रगति में उसकी शरीर संरचना, बुद्धिमत्ता, परिस्थितियों की अनुकूलता आदि अन्यान्य कारण भी रहे होंगे; किन्तु उन सब में प्रमुख है उसकी सद्भावना। इसी के आधार पर उसने स्नेह-सहकार सीखा और हिल-मिलकर रहने, मिल-बाँटकर खाने का आदर्श अपना कर उत्कर्ष के माँग पर क्रमिक प्रमाण करते-करते वह आज की स्थिति तक आ पहुँचा है।


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