ज्ञान की सार्थकता

October 1971

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सम्पूर्ण उरु प्रदेश में राज नर्तकी मृदाल की ही चर्चा थी। उनकी सौंदर्य ख्याति पूर्णमासी के चन्द्रमा की भाँति सर्वत्र फैली थी। मृदाल से प्रणय याचना करने वाले सामन्तों, विद्वानों, राजघराने के युवा कुमारों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। नृत्याँगना होते हुए भी उसकी पवित्रता अक्षुण्ण थी। भले ही उस नश्वर सौंदर्य की अग्नि में दीपक की लौ पर मर मिटने वाले पतंगों की भाँति राज्य की मूर्धन्य प्रतिभाओं की अपनी चरित्र की आहुति देने की तैयारी और इस शृंखला में सम्मिलित होने वालो की उत्तरोत्तर वृद्धि को देखकर वह अत्यन्त चिन्तित हो उठी। ईश्वर प्रदत्त यह सौंदर्य कहीं अभिशाप न बन जाय, इस सोच में वह बराबर डूबी रहती थी।

विचार विमग्न बिस्तर पर लेटी वह करवटें बदल रही थी। बिगड़ती हुई राज व्यवस्था की चिन्ता उसे खाये जा रही थी। विचारों की शृंखला टूटी, द्वार पर दस्त से। दरवाजा खोला पर सामने महाराज करुष को देखते ही स्तम्भित रह गई। किसी अप्रत्याशित आशंका से उसका मन भयभीत हो उठा। सादर आसन पर बैठाकर साहस संजोकर सहमते हुए मृदाल ने महाराज से आने का प्रयोजन पूछा।

करुष ने उत्तर दिया-मृदाल ! तुम्हारे रूप और सौंदर्य पर सारा उरु प्रदेश मुग्ध है। विद्वान, प्रतिभावान त्यागी सभी तुम्हारे लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार बैठे है। फिर मेरे ही यहाँ आने का कारण क्यों पूछती हो भद्रे ?

आशंका सच निकली। महाराज करुष मृदाल की सौन्दर्याग्नि में अपने चरित्र की आहुति देने पहुँचे थे। अग्नि परीक्षा की यह अद्भुत घड़ी थी-मृदाल के लिए। एक ओर राजा की क्षणिक प्रसन्नता का प्रश्न था जिसकी पूर्ति कर वह बड़ा से बड़ा पारितोषिक प्राप्त कर सकती थी। दूसरी ओर देश के चरित्र की रक्षा का प्रश्न था। अन्तरात्मा ने कहा कि हर कीमत पर चरित्र की रक्षा की जानी चाहिए।

वह बोल पड़ी, राजन्! आप तो देश के कर्णधार हैं। राज्य का भविष्य आप पर अवलम्बित है, आप का यह अशोभनीय कदम राज्य के चारित्रिक पतन का करण बन सकता है। रात्रि की इस नीरव बेला में आगमन न केवल आपकी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है बल्कि सामाजिक दृष्टि से अपराध भी है।

राजा करुष को लगा जैसे किसी ने तमाचा मार दिया हो। सत्ता के अहंकार ने जोर मारा। मृदाल के पवित्र शब्द भी करुष को तीन से चुभे। वे तड़पकर बोले हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं, तुम एक नर्तकी हो-धर्म और अधर्म का निर्णय करना तुम्हारा काम नहीं है।

स्थिति बिगड़ते देखकर मृदाल ने समझ लिया इस समय महाराज कामान्ध हैं, विवेक से काम लेना होगा। मृदुल एवं संयत स्वर में वह बोली, “महाराज इस समय में रजोदर्शन की स्थिति में हूँ। चौथे दिन आप मुझ से मिलें। सब कुछ आपके लिए समर्पित होगा।”

तीन दिन करुष ने किसी तरह बेचैनी से बिताये। चौथे दिन अगणित उपहारों के साथ वह मृदाल से मिलने आधी रात को पहुँचे, द्वार पहले से ही खुला था। चारपाई पर मृदाल का कंकाल जैसा शरीर पड़ा था। उसमें सौंदर्य और आकर्षण का नामोनिशान न था। मृदाल के होंठ हिले। वह धीरे-धीरे कम्पित स्वर में बोली महाराज तीव्र विरेचक औषधि द्वारा कामाग्नि को भड़कने वाले शरीर के सौंदर्य को समाप्त कर दिया है। यह शरीर समर्पित है आपको। आपके चरित्र की देश को विशेष आवश्यकता है। इसीलिए मैंने यह कदम उठाया। इसी स्वर के साथ उसकी वाणी थम गई - शरीर निष्प्राण हो गया।

पश्चाताप और ग्लानि से करुष का मन भर उठा। इस बलिदान से करुष के जीवन की दिशाधारा ही बदल गई।


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