उपासनात्मक सम्बन्धी भ्रांतियों को जड़मूल से निरस्त किया जाये

October 1971

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बिजली भौतिक शक्ति हैं उससे कई काम तो होते हैं, पर साथ ही तनिक भी असावधानी से प्राण-घातक संकट भी सामने आ खड़ा होता है। बन्दूक चलाने वाले जानते हैं कि गोली छूटते समय पीछे की ओर झटका भी लगता है। अणु विस्फोट से ऊर्जा तो उत्पन्न होती है पर साथ ही विकरण का सर्वनाश खतरा भी जुड़ा रहता है। आतिशबाजी का खेल खेलने वाले-हिंस्र पशुओं का शिकार खेलने वाले कई बार भारी खतरा उठाते देखे गये हैं। ताँत्रिक साधनाओं के संबंध में भी यही बात है।

ताँत्रिक अघोरी, कापालिक स्तर की आसुरी वाममार्गी साधनाओं में भावनाओं का नहीं क्रियाओं का महत्व माना जाता है। उनमें चरित्र को नहीं दुस्साहस के रूप में विकसित किये जाने वाले मनोबल मात्र का चमत्कार है। मशीनों में भावना नहीं क्रिया होती है। इस क्रिया शक्ति को ही जड़ पदार्थों में सन्निहित कार्यरत पाया जाता है। ताँत्रिक साधनाओं में शरीरगत, मनोगत विशिष्ट शक्तियों को उभारने वाली उत्तेजनाएँ उत्पन्न की जाती हैं और उस उफान का बिना नैतिक अनैतिक विचार किये मनचाहे उपचारों में प्रयोग किया जाता है। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन आदि तंत्र प्रयोग के सभी प्रहार लक्ष्य आसुरी अनैतिक है। उस स्तर की शक्यों का उपार्जन सृष्टा के कठिन एवं दुरूह कारण हैं साथ ही उस क्षेत्र में प्रवेश करना भी खतरे से खाली नहीं रखा है।

कई बार ताँत्रिक साधक विधि-विधान में तनिक सी गलती हो जाने के कारण पागल तक होते देखे गये हैं। भौतिक शक्तियाँ सभी ऐसी हैं उनमें क्षमा का कोई नियम नहीं है। साँप, सपेरों पर भी हमला बोलता है। दाव लगने पर सरकस के हिंस्र पशु अपने पालनकर्ता की ही बोटी-बोटी नोंच डालते हैं। मशीनों की चपेट में आने पर उनके संचालक भी हाथ-पैर कटाते और जान गँवाते देखे गये हैं। भौतिक क्षेत्र में क्रिया ही प्रधान है। सी गलत प्रयोग का वहाँ हाथों हाथ प्रतिफल मिलता है।

भावना क्षेत्र उसे सर्वथा भिन्न है। उसमें उच्च स्तरीय आस्थाओं, श्रद्धाओं और संवेदनाओं का साम्राज्य है। यहाँ उपचारों का मूल्य कानी-कौड़ी और स्नेह सौजन्य का मूल्य पर्वत के समान है। छोटा बच्चा माता को हर दृष्टि से हैरान ही करता रहता और एक भी शिष्टाचार का पालन नहीं करता, फिर भी ममत्व एवं वात्सल्य की सघनता के कारण माँ बच्चे के बीच जो आत्मीयता पाई जाती है वह देखते ही बनती है। बालक के प्रायः सारे ही व्यवहार अनगढ़ असभ्य जैसे होते हैं फिर भी माता उनके कारण कभी तनिक भी खीजती नहीं पाई जाती। गोदी में चढ़ने के लिए हाथ बढ़ाना- आंख मिलने पर मुस्करा देना भर बालक का ऐसा कृत्य है जिसके बदले माता अपना सब कुछ लुटाने को तैयार रहती है। दक्षिणमार्गी उपासना मार्ग के साधक और साहस में इसी प्रकार के भावभरे आदान-प्रदान चलते हैं। उनमें कर्मकाण्डों का अधूरापन या व्यतिक्रम कोई खास बाधा नहीं डालता। यों उचित तो यही है कि हर वर्ग स्तर के लोग नियम मर्यादाओं के परिपालन में सतर्कता बरतें और सही तरीका ही अपनायें।

वैदिक दक्षिणमार्गी, भक्ति परम्परा, भाव प्रधान होने से उसमें भी यों क्रिया-कृत्यों का कर्मकाण्डों का आश्रय तो लिया जाता है पर इतनी चिन्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती, जितनी कि ताँत्रिक उपक्रमों में तनिक सा व्यतिरेक उत्पन्न होने पर प्राण संकट आ उपस्थित होने की उत्पन्न होती है। यही वैदिकी और ताँत्रिक साधनाओं का अन्तर है। वैदिक देव साधनाओं में मूल व्यतिरेक का दुष्परिणाम अधिक से अधिक इतना ही हो सकता है कि जितने सत्परिणाम की आशा की जानी चाहिए उससे कम मिले या विलम्ब लगे। उलटकर हानि होने की तो किसी भी प्रकार आशंका नहीं की जा सकती।

मध्यकाल के अन्धकार युग में जब प्रचलन ताँत्रिक उपचारों का ही हो गया और ‘मद्य माँस न पीने व मुद्रा मंथुन सेवन’ के पंचमकार ही उपासना क्षेत्र के अधिष्ठाता बन गये तब उस व्यापक अनाचार को निरस्त करने के लिए भगवान बुद्ध का अवतरण हुआ और उन्होंने उस अनाचार की धज्जियाँ उड़ाई’। उन्हीं दिनों की बात है कि पुरोहित वर्ग ने अपनी विशिष्टता सिद्ध करने तथा अर्थ उपार्जन का नया स्त्रोत उभारने के लिए उस मान्यता का परिपूर्ण समर्थन किया कि विधि-विधान में राई-रत्ती भूल जाने पर भी देवता रुष्ट हो जाते हैं और फिर कर्ता से उलट कर बदला लेते हैं। यह मान्यता योजना बद्ध ढंग से फैलाई गई। उसके समर्थन में बहुत कुछ कहा एवं लिखा गया।

यह मान्यता ताँत्रिक उपचारों के क्षेत्र तक ही फैलनी और सीमित रहनी चाहिए थी। पर दुर्भाग्यवश उसने वैदिक-दक्षिण मार्गी-दैवी साधना उपासना के क्षेत्र पर आक्रमण बोल दिया। इतना ही नहीं उसे भी बेतरह अपने चंगुल में फँसा लिया। दैनिक उपासना जैसे नित्य कर्मों के सम्बन्ध में भी यह शंका की जाने लगी कि कहीं भूल होने पर अनर्थ न होने लगे और इष्टदेव उस भूल से रुष्ट होकर उलटे आक्रमण पर न उतर आयें।

यह भयाक्रान्त आशंका ऐसे अवसरों पर स्पष्टता प्रकट होती है जब किसी उपासक को सामान्य कारणों से किसी कठिनाई, असफलता या विपत्ति का सामना करना पड़ता है। उसका शंका शंकित मन सर्वप्रथम इसी बात में उलझना है कि हो न हो यह पूजा उपचार में कोई त्रुटि रहने के कारण उत्पन्न हुआ अनर्थ है। ऐसी दशा में एक ओर कुआँ दूसरी ओर खाई देखकर उपासना के मार्ग पर बढ़ने वाला यही सोचता है कि क्यों इस व्यर्थ झंझट में फँसे। भविष्य के लिए वह इस जंजाल से किसी प्रकार पिण्ड छुड़ाने भर की बात ही सोचता है।

उपरोक्त भ्रान्ति क्रमशः मनों में इतनी गहरी उतरती गई है कि अध्यात्म तत्व ज्ञान से अपरिचित, भावुक भक्तजनों में से कितने ही जीवनक्रमों में कोई कठिनाई या व्यवधान आते ही सोचने लगते हैं कि उनकी पूजा विधि या तो गलत है या फिर उसमें भूल रह गई हैं। इसी कारण उन्हें कठिनाई या असफलता का सामना करना पड़ रहा है।

भगवान का नाम, उपासना का उपक्रम एक ही परिणाम उत्पन्न कर सकता है और वह है काषाय−कल्मषों के कारण उत्पन्न होने वालों से परिणाम उलटा उपद्रव खड़ा करने की उसकी प्रकृति ही नहीं है। उसके कारण किसी प्रकार का संकट उत्पन्न होने की आशंका तो करनी ही नहीं चाहिए। माता कभी अहित न तो कर सकती है न वैसा सोच ही सकती है। धरती माता, गौ माता, प्रकृति माता की सहज प्रकृति स्नेह करने, सहायता करने एवं सुविधा साधन उपलब्ध कराने ही है। वे छेड़खानी करने पर अधिक से अधिक इतना ही कर सकती हैं कि सहयोग से हाथ खींच लें। पतन पराभव के षड़यन्त्र अपने ही अंचल की छाया में पलने वालों के विरुद्ध वे कर ही नहीं सकतीं। साधना उपासना की भक्ति माता भी ऐसी ही हैं। उसका आश्रय लेने पर कष्ट घटते हैं, बढ़ते नहीं।

अचिन्त्य चिन्तन से अपना ही अहित होता है। क्रोध, ईर्ष्या, चिन्ता, भय, आशंका जैसे मनोविकार धारण कर्ता ही सर्वनाश करते हैं। जिनके विरुद्ध दुर्भाव रखे जाते हैं उनका अहित तो कदाचित ही स्वल्प मात्रा में हो पाता है। आपत्तियों का कारण आमतौर से मनुष्य के अब के या पिछले विभ्रम, दोष दुर्गुण या कुकृत्य ही होते हैं। दण्ड का तात्पर्य इतना ही है कि मनुष्य भविष्य में अधिक सावधानी बरतें और अधिक सही सभ्य रहें। प्रकृति प्रकोप से भी कोई प्रतिकूलताएँ भुगतनी पड़ें तो उनका तात्पर्य भी आग में पकाने, खराद पर चढ़ाकर चमकीला बनाने धार रखकर पैना करने जैसा ही होता है। प्रखर और प्रतिभावान बनने वालों में से प्रत्येक को प्रतिकूलताओं से जूझकर ही अपने को अधिक समर्थ सक्रिय बनने का लाभ उपलब्ध हुआ है। ऐसे ही अनेक कारण दंडात्मक सुधारात्मक प्रस्तुत कठिनाइयों के हो सकते हैं। उन सबका विचार किये बिना समस्त अज्ञात कठिनाइयों को दोष अपनी छुट-पुट-सी उपासना के मत्थे मढ़ देना सर्वथा अनुचित है।

लोगों में एक बहुत बुरी आदत यह पाई जाती है कि वे अपनी कठिनाइयों का कारण किसी दूसरे को कसूर सोचकर सस्ते में अपना मन हलका करते रहते हैं। अमुक ने जादू टोना करके हमें या हमारे परिवार को हैरानी में डाल दिया है, ऐसा सोचते रहने वाले और निर्दोष पड़ौसियों पर अकारण ही दुर्भाव थोपते रहने वालों की कमी नहीं। भूत पलीतों और ग्रह-नक्षत्रों पर ऐसे ही इल्जाम लगाने वालों की मूर्ख मण्डलों के सदस्य लाखों नहीं करोड़ों होंगे।

अवाँछनीय दोषारोपण से अपनी आत्मा कलुषित होती हैं, आत्मा निरीक्षण और आत्म-सुधार का अवसर हाथ से निकलता है, प्रतिरोधों से जूझने की सामर्थ्य कुँठित होती है। जब देवता या भगवान ही विपत्ति बरसाने का कारण हैं तो उनसे जूझने की प्रतिकार चेतना कोई किस प्रकार उभारे। ऐसी मनःस्थिति में हताश होकर आंसू बहाते रहने या जिस पर दोष थोपा गया है उसे कोसते रहने के अतिरिक्त और कोई चारा ही शेष नहीं रह जाता। यह मनःस्थिति मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय बनाने वाली ही सिद्ध हो सकती है।

यह ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि उपासना की सफलता में कर्मकाण्ड का महत्व दस प्रतिशत और सघन श्रद्धा की भूमिका नब्बे प्रतिशत होती है। यदि श्रद्धा डगमगाने लगे तो समझना चाहिए कि कर्मकाण्ड की लकीर पीटते रहने से कोई लाभ नहीं। आगत कठिनाइयों का कारण यदि उपासना को सोचा माना जाने लगा तो समझना चाहिए अब यह श्रद्धा के पैर जमने जैसी कोई सम्भावना रह नहीं गई। जो तन्त्र विनय वंदन का प्रतिफल अनिष्ट उत्पन्न कर सकता है वह निश्चय ही निकृष्ट स्तर का घिनौना होना चाहिए। उसका आश्रय लेने पर आयेदिन ऐसे ही उपद्रव खड़े होने का भय बना रहेगा। प्रत्यक्ष है कि भय, अनिश्चितता और दुष्टता की आशंका मन में उठने लगे तो फिर उस केन्द्र पर श्रद्धा विश्वास का भक्ति भावना का स्नेह समर्पण का कोई आधार बन ही नहीं सकता। यदि आस्था सुदृढ़ न हुई तो फिर कोई श्रेष्ठ कर्मकाण्डों वाली उपासना भी किसी के लिए कभी भी परिणाम में फलप्रद नहीं हो सकती। उसमें लगाया हुआ श्रम निष्फल ही नहीं जायगा वरन् असफलताजन्य आक्रोश के कारण नास्तिकता में परिणित होता चला जाएगा। ऐसे लोगों से तो वे लोग कहीं अच्छे जो उपासना करते ही नहीं। उन्हें कम से कम असन्तोष, आक्रोश एवं नास्तिकता के गर्त में जा गिरने का अनर्थ तो नहीं अपनाना पड़ता। इस प्रकार वे नफा भले ही न कमायें, अकारण घाटा देने का संकट नहीं सहते।

किसी की उपासना करनी हो तो उसके प्रयोजन परिणाम की आशा इतनी ही करनी चाहिए कि इससे अपने आत्म परिष्कार में सहायता मिलेगी। आगत संकट इस किलो भारी हो तो उपासना के आधार पर उपलब्ध हुए मनोबल के कारण आधा तिहाई ही रह जायगा।

प्रतिकूलता और उपासना की संगति बिठाने का तत्वतः आवश्यकता है नहीं, क्योंकि दोनों के क्षेत्र सर्वथा भिन्न हैं। प्रतिकूलता आमतौर से व्यक्ति की कुशलता पर निर्भर रहती है। जबकि उपासना से अन्तःक्षेत्र की सत्प्रवृत्तियाँ को उभारने और व्यक्तित्व में सुसंस्कारिता के समावेश का अवसर मिलता है। कुशलता प्रतिभा पर साँसारिक सफलता सुविधा की न्यूनाधिकता निर्भर है। जबकि उपासना मनुष्य के दृष्टिकोण, चरित्र, रुझान एवं कार्यक्षेत्र में उत्कृष्टता का समावेश करती है। ऐसी दशा में एक-दूसरे की जोड़ने की बात सर्वथा अनुपयुक्त है। फिर भी प्रचलित भ्रम मान्यताओं के अनुरूप यदि उपासना से भौतिक लाभ हानि की संगति जोड़े बिना काम न चले तो फिर दो दृष्टिकोण अपनाने चाहिए। सफलताओं का श्रेय उपासना को दिया जाय और असफलताओं का दोष अपने प्रारम्भ पुरुषार्थ में कमी रहना मानकर अपने ऊपर ओढ़ा जाय। इस मापदण्ड को अपनाकर ही श्रद्धा को जीवन्त रखा जा सकता है और आत्मिक प्रगति का द्वार खुला रह सकता है।


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