ब्रह्म तेजो बलम् बलम्

October 1971

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देवासुर संग्राम समाप्त हुआ। विजय देवताओं के हाथ लगी। इन्द्र की सभास्थली में सभी देवतागण अपने-अपने पराक्रम की चर्चा कर मन में फूले नहीं समा रहे थे। देवताओं के बढ़ते अहंकार को शक्तियों के अधिष्ठाता ब्रह्म सुन रहे थे। अहंकार पतन और पराभव का कारण है। समय रहते उस पर अंकुश लगना चाहिए। यह सोचकर तेजस्वी दीप्तिमान महायज्ञ के शरीर में यह देव सभा के द्वार पर प्रकट हुए। कोलाहल बन्द हुआ। उसका स्थान नीरव स्तब्धता ने ले लिया।

आगे बढ़कर जातवेदा अग्नि ने सभा भवन का दरवाजा खोला और आगन्तुक से प्रश्न किया “आप कौन है? यहाँ आने का अनुग्रह कैसे किया?”

प्रश्न का बिना उत्तर दिए तेजस्वी व्यक्ति ने प्रति प्रश्न किया ‘तू कौन है?’

अग्नि ने अहंकार मिश्रित स्वर में अपना परिचय दिया “मैं जातवेदा अग्नि” हूँ। हर वस्तु को पल भर में जला देता हूँ। आगन्तुक ने एक तिनका सामने रखा और अग्नि से उसे जलाने को कहा। अग्नि को लगा जैसे किसी ने सारी शक्ति निचोड़ ली हो। वे अपने को निष्प्राण और निस्तेज अनुभव कर रहे थे । फिर भी जलाने का उपक्रम किया, पर असफल रहे। निराश और उदास होकर वहीं भूमि पर बैठ गये।

दरवाजे पर अग्नि को गये अधिक देरी हो चुकी थी। पवन देव वस्तुस्थिति का अवलोकन करने पहुँचे। भूमि पर निस्तेज अवस्था में अग्निदेव को बैठे देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। सामने सूर्य की भाँति तेजस्वी अतिथि को उन्होंने पूछा “महाभाग! आपका परिचय?”

अतिथि ने उलटकर वही प्रश्न पवनदेव से भी किया। पवन ने कहा “मुझे वेगवान ‘मातरिश्वा’ कहते हैं। मैं बहता हूँ और अपने प्रवाह में बहुतों को बहा ले जाता हूँ।” आगन्तुक के अधरों पर मन्द मुस्कान तैर गई। उसने वहीं तिनका पवन के सामने रखकर उसे उड़ाने के लिए कहा। मातरिश्वा ने अथक प्रयत्न किया पर तिनका चट्टान की भाँति अड़ा रहा। टस से मस न हुआ। हारे थके पवन भी सिर झुकाकर ‘जातवेदा’ के निकट बैठ गये।

अग्नि और पवन के वापिस न लौटने पर देवगण को चिन्ता बढ़ी। सभी वरिष्ठ देवता स्थिति को जानने के लिए द्वार पर पहुँचे। पवन और अग्नि के सिर झुकाये बैठे देखकर सभी आतंकित हो उठे। वरुण और अन्तरिक्ष में परिचय पूछा तो आगन्तुक ने वहीं पद्धति दुहराई। अपना परिचय दिए बिना उनसे उलटकर प्रश्न पूछे। एक ने कहा मैं गीला कर देने वाला वरुण और दूसरे ने कहा मुझे सबको उदरस्थ करने वाला अन्तरिक्ष कहते हैं। दोनों के सामने तिनका पड़ा था, पर न तो वे उसे गीला कर सके और न ही उदरस्थ कर सके। विवश होकर उन्हें भी अपने देव बन्धुओं की बगल में बैठ जाना पड़ा।

परम तेजस्वी आगन्तुक अब स्वयं आगे बड़ा और ऊँचे सिंहासन पर बैठे देवाधिराज इन्द्र से पूछा कि ‘क्या तू भी अपनी शक्ति का परिचय दे सकता है?’ साथियों की दुर्गति इन्द्र के सामने थी। वे क्या उत्तर देते? सबका अहंकार चूर हो गया था। सभा में नीरवता छा गई।

स्तब्धता को भंग करते हुए तेजस्वी पुरुष ने स्वयं अपना परिचय दिया - मैं महायक्ष हूँ मुझे सर्वशक्तिमान ब्रह्म कहते हैं। आत्मबल के रूप में मुझे जाना जाता है। मेरे तेज से ही शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। सभी शक्तियों का अधिष्ठाता में हूँ। मेरी सत्ता से ही जड़−चेतन में हलचल और चैतन्यता पायी जाती है। देवताओं! पंचतत्वों से बने कलेवरों और उपकरणों की प्रशंसा न करो। ब्रह्म ही बल है। ब्रह्म तेजस ही विजय होता है। अस्तु प्रशंसा करनी हो तो उसी की करो। महत्ता उसी की समझो। आराधना उसी की करो।

आगन्तुक महायक्ष देवगण को वास्तविकता को बोध कराकर अपनी आभा के साथ अन्तरिक्ष में अदृश्य हो गये। देवताओं का मिथ्या अहंकार समाप्त हुआ और तब से वे आत्मबल की आराधना में संलग्न हो गये।


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