चेतना की बौद्धिक और आदतों के समुच्चय वाली परतों की सही जानकारी और उन्हें उपयोग में लाने की विधि-व्यवस्था हाथ लग सके तो समझना चाहिए कि तथाकथित “कारुँ के खजाने” से भी अधिक बहुमूल्य सम्पदा हाथ लग गई। पिछड़ी हुई परिस्थिति वस्तुतः अनगढ़ मनःस्थिति की ही परिणति होती है। अन्यथा हर किसी के चेतन में इतनी क्षमता विद्यमान है कि आज का पिछड़ापन कल सुसम्पन्न वैभव में विकसित किया जा सके। कालिदास, वरदराज आदि कितने ही लोग ऐसे हुए है जो मस्तिष्कीय पिछड़ेपन के कारण मूर्ख माने जाते थे, किन्तु जैसे ही उनने अपने उपेक्षित अस्त-व्यस्त अन्तराल को समेटना, सुधारना और ढालना प्रारम्भ किया वैसे ही वे मूर्धन्य विद्यावानों की श्रेणी में जा पहुँचे।
अचेतन तो उससे भी आगे है। आदतें सुधार लेने पर तो असंख्य पतितों को उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचते हुए देखा गया है। सूरदास, तुलसीदास, वाल्मीकि, अजामिल, अँगुलिमाल, अम्बपाली आदि अनेकों के गये-गुजरे जीवन सुधरे और ऊँचे उठे है। अचेतन हठी तो है पर ऐसा नहीं कि यदि संकल्पपूर्वक उसे बदलने, ढालने का प्रयत्न किया जाय तो सफलता नहीं ही मिले। आदतें आखिर अपनी विचारणा और कार्य पद्धति की परिणति है। क्रमिक विकास प्रक्रिया के अनुरूप वे बदलती सुधरती भी रही है। फिर कोई कारण नहीं कि अब उन्हें अधिक उपयुक्त परिष्कृत बनाने के लिए मोड़ा-मरोड़ा न जा सकें। ढलाई में दबाव की आवश्यकता पड़ती है। संयंत्रों को चलाने के लिए ऊर्जा चाहिए। रेल, मोटर, हवाई जहाज बहुत भारी होने पर भी तेजी से दौड़ते हैं। शर्त यही है कि उन्हें आवश्यक ईंधन मिलता रहे।
सामान्य बुद्धि की तुलना में अचेतन चित्त की स्थिति अधिक भारी और अधिक गरिमामयी है उसको आगे धकेलने के लिए आवश्यक ऊर्जा चाहिए। हाथ गाड़ी को ऐसे ही धक्का मारकर आगे बढ़ाया जा सकता है, किन्तु रेल चलानी हो तो शक्तिशाली ईंधन का प्रबन्ध करना पड़ेगा। बुद्धि को अध्ययन, परामर्श, से अधिक तीक्ष्ण समुन्नत बनाया जाना सरल है किन्तु अचेतन के अभ्यासों को नये ढाँचे में ढालने के लिए भट्टी जैसे सरंजाम जुटाने पड़ेंगे। धातुएँ कठोर होने पर भी पिघलती और ढलती रहती है किन्तु इसके लिए आवश्यक तापमान तो चाहिए ही आदतें धीरे-धीरे करके ढलती आई हैं। यदि नया कार्यक्रम शालीनतायुक्त बना लिया जाय तो वे धीरे-धीरे उसे भी अपना लेंगी। जिस प्रकार अब तक बदलने सुधरने में आना-कानी करते हुए भी अन्ततः सहमत होती ही चली आई हैं।
किन्तु यदि धीरे-धीरे सुधारने की प्रतीक्षा न करनी हो तो फिर अधिक सुदृढ़ संकल्प, प्रखर साहस और सुनिश्चित कार्यक्रम बनाकर उसे अपनाने के लिए व्रतशील होना पड़ता है। मन्दी आग पर वस्तुएँ धीरे-धीरे पकती है किन्तु उन्हें यदि जल्दी ही उबालना-खौलाना हो, तो चूल्हे की आग तेज करनी पड़ती है अन्तःक्षेत्र की सुधारात्मक प्रगति में यदि तीव्रता लानी हो तो उसके लिए दो ही उपाय रह जाते हैं (1) बाहरी परिस्थितियों का ऐसा दबाव जिसमें नई रीति अपनाने के अतिरिक्त और कोई चारा ही न रहेगा (2) अन्तःक्षेत्र में से वह दबाव स्वयं उत्पन्न किया जाय। साधना या तपश्चर्या इसी को कहते हैं। साधना का बाह्य स्वरूप देखने पर ऐसा भ्रम होता है कि किसी बाहरी शक्ति से कुछ याचना की जा रही है और अभीष्ट वस्तु देने के लिए किसी बाहरी सत्ता के लिए नाक रगड़ने, गिड़गिड़ाने, लुभाने जैसी कुछ उथली बचकानी रीति-नीति अपनाई जा रही है। किन्तु वस्तुतः वैसा है नहीं। आत्म-सत्ता इतनी समर्थ है कि उसे थोड़ा-सा कुरेदने और थोड़ा-सा ईंधन डालने भर से चिनगारी को ज्वाला बनने में कोई कठिनाई पड़ने वाली नहीं है।
मनःशास्त्री बताते हैं कि बुद्ध वैभव से भी अधिक चमत्कारी अचेतन की रहस्यमय परतें है। उन्हें श्रेष्ठ प्रयोजन के लिए यदि थोड़ा कुरेदा, उकसाया जा सके तो व्यक्तित्व परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं। शरीर से बलिष्ठ, बुद्धि से प्रखर मनुष्यों को विविध विधि सफलताएँ प्राप्त करते देखा जाता है। यदि उससे एक कदम आगे और बढ़कर अचेतन के प्रसुप्त देवता को जागृत किया जा सके तो वह अंगद, हनुमान, भीम, अर्जुन, जैसा समर्थ और सहायक सिद्ध हो सकता है।
मनःसंस्थान का प्रायः सात प्रतिशत भाग ही सामान्यतः प्रयोग में आता है। अब तक इस संदर्भ में जो खोजे हुई है तथा उपलब्धियाँ हस्तगत हुई है, उन्हें समूची क्षमता का तेरह प्रतिशत माना जाता है। यदि इससे आगे की जानकारी, जागृति तथा क्षमता हस्तगत हो सके तो निश्चय ही मनुष्य सामान्य न रहकर असामान्य बन जाय। उसे महामानव अति मानव की संज्ञा दी जा सकेगी। सामान्यजन इन्द्रिय शक्ति के सहारे ही अपना ढर्रा चलाते हैं किन्तु यदि किसी को अचेतन के सम्हालने सजाने में सफलता मिल सकें तो वह अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न होगा। ऐसा बलिष्ठ-जिसे देव या दैत्य कहा जा सके। ऋद्धि, सिद्धियों की चमत्कारी चर्चा पढ़ने, सुनने को मिलती रहती है। यह किसी देवी-देवता की अनुकंपा का प्रसंग नहीं है वरन् अविज्ञात, अनगढ़ स्थिति में पड़ी रहने वाली अचेतन क्षमता की जागृति भर है।
मनुष्य क्या है ? यह पूछने की अपेक्षा यह देखना चाहिए कि वह क्या नहीं है ? ईश्वर ने अपने राजकुमार को अपने स्तर-का ही बनाया है और उसे अपनी सम्पदा का उत्तराधिकारी नहीं साझेदार बनाया है। वयस्क, परिपक्व होने पर ही बहुमूल्य वस्तुओं का सदुपयोग करना आता है। इसी दृष्टि से भगवान ने अचेतन की तिजोरी में ऐसी रत्नराशि भर दी है जो तभी खोली जा सके जब उसके सदुपयोग की पात्रता प्रामाणिकता अर्जित की जा सके। यह परिपक्व साधना के आधार पर अर्जित की जाती है।
सामान्य चेतन लोक व्यवहार में काम आता है और बुद्धि वैभव समझा जाता है। अचेतन से व्यक्तित्व के विकसित होने में सहायता मिलती है। प्रतिभावान् नेतृत्व कर सकने में समर्थ, मनस्वी व्यक्ति जीवन से हर क्षेत्र में सफलताएँ प्राप्त करता है। इसमें उसका विकसित व्यक्तित्व ही प्रधान भूमिका निभाता है। कहना न होगा कि व्यक्तित्व की विशेषता पूर्णतया अचेतन के स्तर पर निर्भर है। जिस प्रकार आहार-विहार से शरीरगत स्वास्थ्य बलिष्ठ बनाया जाता है, जिस प्रकार अध्ययन अनुभव से बुद्धिमता अर्जित की जाती है ठीक उसी प्रकार परिस्थितियाँ अथवा साधनाएँ अचेतन को किसी बड़ी छलाँग लगाने के लिए तत्पर करती है। यह व्यक्तित्व विकसित करने की प्रक्रिया है। जिसकी परिणति प्रतिभाओं, विशिष्टताओं, सफलताओं, सम्पन्नताओं के रूप में हस्तगत होती हैं। इसे लौकिक जीवन को ऋद्धि-सिद्धियों से भरा-पूरा बनाने वाला क्षेत्र कह सकते हैं।
अब इससे आगे एक कदम और बढ़ाया जाय। एक और ऊँचे लोक में प्रवेश किया जाय तो चेतना के उच्चतम लोक में प्रवेश मिल सकता है। यह सुपर चेतन है। जिसे अन्तःकरण कहा जाता है। उसमें आदतें नहीं आस्थाएँ निवास करती है। मान्यता, अभिरुचि, आकाँक्षा एवं संवेदना का समन्वय अन्तःकरण कहा जाता है। यह श्रद्धा विनिर्मित है। श्रद्धा बुद्धि से कहीं ऊँची है। बुद्धि को न्यायाधीश कहा जाय तो श्रद्धा को राष्ट्रपति की उपमा देनी पड़ेगी। श्रद्धा हर व्यक्ति की मौलिक सम्पदा है। वह किन्हीं न किन्हीं मान्यताओं के साथ जुड़ी अवश्य रहती है। कुकर्मियों की भी अपनी श्रद्धा होती है। यह दूसरी बात है कि उन्होंने दुष्टता के सिद्धान्तों और प्रयोगों को अपनाना उपयुक्त समझा हो। शिकारी-नशेबाज-प्रपंची, आततायी स्तर के व्यक्ति भी अपना अन्तराल एक खास किस्म का संजोये रहता है। उसी आधार पर उन्हें साहस करने और जोखिम उठाने में तत्पर होते देखा जाता है।
आमतौर से इस दुष्टता को श्रद्धा नहीं कहते हैं। इसे पवित्र एवं उत्कृष्ट मान्यताओं के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है। श्रद्धा की गरिमा और क्षमता पर प्रकाश डालते हुए गीतकार ने उसे एक शब्द में समूचा व्यक्तित्व ही कह दिया है। कथन है कि “जिसकी जैसी श्रद्धा है वह ठीक वैसा ही है।” किसी का वास्तविक मूल्याँकन करना हो तो उसके अन्तराल में सम्मिलित श्रद्धा के स्तर का पर्यवेक्षण करना चाहिए। अगणित प्रेरणाओं का उद्गम स्त्रोत -वही है। हर व्यक्ति का अपना सत्य है और वह उसकी मान्यताओं के ढाँचे में ढला हुआ है। हर व्यक्ति का अपना प्रिय एवं अभीष्ट है। यह उसकी आकाँक्षा द्वारा निर्धारित हुआ है। हर व्यक्ति की अपनी भाव संवेदनाएँ है वे उसकी आस्थाओं के साथ अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई है। इस अन्तराल को मानवी सत्ता का उद्गम केन्द्र कह सकते हैं।
परमाणु का ऊर्जा केन्द्र “नाभिक” को माना जाता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य की स्थिति एवं सम्भावनाओं का केन्द्र बिन्दु उसके अन्तःकरण अन्तराल को समझा जा सकता है। यहीं से मनःसंस्थान को निर्देश मिलता है। और वह एक अच्छे सेवक की तरह वैसा ही सोचना आरम्भ कर देता है। जिससे कि आकाँक्षा की पूर्ति सम्भव हो सके। मन की सोचने की दिशाधारा पूर्णतया अन्तःकरण के संकेतों पर निर्भर है वह तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण इसी स्तर के ढूँढ़ता है, और क्रमबद्ध करता है। जिससे अपने अधिष्ठाता अन्तःकरण की इच्छापूर्ण हो सके। इसके लिए वह चिन्तन तन्त्र को ही नियोजित नहीं करता वरन् शरीर वाहन को भी इसी प्रयोजन के लिए-नियोजित करता है। अन्तःकरण का आदेश मन मानता है और मन के इशारे पर चलने वाला शरीर स्वामी भक्त सेवक की भूमिका निभाने लगता है। इसमें उसे भला-बुरा सोचने या किसी प्रकार का ननुनच करने की भी इच्छा नहीं होती। संक्षेप में अन्तराल को ही मनःसंस्थान और कार्य-कलापों का सूत्राधार कह सकते हैं। जो किया या सोचा जाता है उस समूचे क्रिया तन्त्र का अधिष्ठाता अन्तःकरण को ही कहा-माना जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी यही है वह तथ्य जिसके आधार पर व्यक्तित्व का समूचा स्वरूप उसकी श्रद्धा पर अन्तःकरण की स्थिति से अविच्छिन्न-सम्बद्ध माना गया है। गीतकार की उपरोक्त उक्ति में इसी यथार्थता को उजागर किया गया है।
मनोविज्ञान की भाषा में अन्तःकरण को सुपर चेतन कहा गया है। अध्यात्म शास्त्र में इसे जीवात्मा का निवास कहा गया है। यह दुष्टता के साथ जुड़ जाने पर दर्पण की तरह कुरूपता से आच्छादित भी दिखाई पड़ सकता है। किन्तु यदि उसे उसकी वास्तविक एवं उच्चस्तरीय स्थिति में रहने का अवसर मिल सके तो इसे देवत्व का क्षेत्र कहा जा सकेगा। सुपर चेतन को ही भगवान कहा गया है। उसी की अनुकूलता अनुकंपा प्राप्त करने के लिए पूजा प्रार्थना की जाती है। परब्रह्म परमात्मा ही सृष्टि की नियामक सत्ता है वह प्रवाह चलाने व्यवस्था बनाने और सन्तुलन रखे रहने तक ही अपने मूलभूत उत्तरदायित्वों का वहन करती है। उसे न किसी से राग है न द्वेष। उसके लिए आस्तिक, नास्तिक सभी एक जैसे है। कर्म, व्यवस्था ही परब्रह्म का अनुशासन तथा परिपूजन है। मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने वाला उस पर अनुग्रह करने वाला वरदान देने वाला जो ईश्वर है, वह हर मनुष्य के साथ रहता और अन्तराल में बसता है। इसी को सुपर चेतन कहते हैं। तत्व दर्शन और योग विज्ञान पर आधारित ब्रह्म विद्या का एकमात्र उद्देश्य सुपर चेतन को अन्तःकरण के उच्चस्तरीय भाव संवेदनाओं, आस्थाओं, आकाँक्षाओं से अनुप्राणित करता है। यह ही मनुष्य का भाग्य विधाता है जो व्यक्ति द्वारा अपनाई गई रीति-नीति को बारीकी से देखता और उसी अनुरूप अनुकंपा एवं प्रताड़ना से पुरस्कृत, तिरस्कृत करता है।