अपनों से अपनी बात

October 1971

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सामान्य दृष्टि से मनुष्य हाड़माँस का पिण्ड भर दिखाई देता है, जो चलता है, बोलता है, हंसता है, गाता है अर्थात् जीवित है। स्थूल दृष्टि से कई प्राणी उससे बढ़-चढ़कर हैं। फिर भी मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है। इसका कारण उसकी बौद्धिक एवं भावनात्मक क्षमताएँ है। इन क्षमताओं के आधार पर ही वह शिक्षा, उद्योग, कृषि, चिकित्सा, शिल्पकला और विज्ञान आदि कई क्षेत्रों में अन्य प्राणियों से बहुत आगे बढ़ सका है और आश्चर्यजनक प्रगति कर सृष्टि का मुकुटमणि बना हुआ है। यह विस्मयकारी प्रगति उसकी बौद्धिक क्षमता के ही प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त भाव-सम्वेदना के क्षेत्र में भी वह अन्य प्राणियों से कहीं बढ़-चढ़कर है। सहानुभूति और प्रेम प्यार की कोमल सम्वेदनाओं के आधार पर उसने अपने पारस्परिक संबंधों को जितना मधुर बनाया है और चिन्तन के क्षेत्र में जितना रस विभोर करने का अवसर प्राप्त किया है, यह उसकी भावनात्मक क्षमता सम्भावना की प्रक्रिया का ही परिचायक है।

अन्य प्राणी बौद्धिक और भावनात्मक क्षेत्र में मनुष्य से पिछड़े होने के कारण ही, शरीर क्षेत्र में उससे अधिक बलिष्ठ और अधिक क्षमतावान् होने के बाद भी कनिष्ठ हैं। बौद्धिक और भावनात्मक क्षमताओं के कारण ही मनुष्य को वैसा श्रेय सौभाग्य मिला है, जो सृष्टि के अन्य प्राणियों को प्राप्त नहीं है। इन क्षमताओं से भी अधिक आश्चर्यजनक और विस्मयकारी है - मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना।

केवल सामान्य चिन्तन और बौद्धिक प्रगल्भता की सम्भावनाओं से भरा होने के कारण ही मानवी मस्तिष्क को जादुई पिटारा कहा जाता है। मस्तिष्क का यह परिचय उसकी विशेषताओं का यह विश्लेषण तो बहुत आधा-अधूरा है। इसके गहन अन्तराल में उतरने पर प्रतीत होता है कि इसमें वे दिव्य चेतनाएँ भरी हुई हैं जिन्हें अलौकिक और अतीन्द्रिय कहा जा सकें। इन सम्भावनाओं और विशेषताओं की व्याख्या सामान्य मस्तिष्कीय गतिविधियों के आधार पर नहीं की जा सकती। प्राचीन काल में ऋषि, मुनि योग-साधना द्वारा उस दिव्य चेतना को विकसित करने में एक बड़ी सीमा तक सफल हुए थे। इन दिनों चूँकि क्षमताओं को जागृत करने की वह विद्या लुप्त हो गई है इसलिए इन्हें बाजीगरी, हाथ की सफाई, जादुई करतब और मनोरंजन चमत्कार के समतुल्य माना जाने लगा। कुछ धूर्त लोगों ने मूर्खों को भ्रमग्रस्त करने और उन्हें ठगने के लिए, स्वार्थ साधन के लिए तथाकथित चमत्कार प्रस्तुत किए और लोगों में योग विज्ञान के प्रति अश्रद्धा बढ़ने लगी। इसे अवैज्ञानिक और ‘सूडोसाइन्स’ का फतवा देने वालों की आज सर्वत्र भरमार है। परन्तु इस संबंध में अब जो तथ्य सामने आते जा रहे है। उनके कारण अतीन्द्रिय चेतना वैज्ञानिक आधार पर भी प्रामाणित होने लगी है।

पिछले कई वर्षों से अनेक मनोवैज्ञानिक और परामनोवैज्ञानिक इन दिव्य क्षमताओं, अतीन्द्रिय शक्तियों का अध्ययन करते रहे हैं। इस संबंध में तरह-तरह की मान्यताएँ स्थापित की गई है। लेकिन मान्यताओं का आधार निरीक्षण और विवेचन मात्र था। इसलिए इन सम्भावनाओं को कोई वैज्ञानिक समर्थन नहीं मिला था। अब इन सम्भावनाओं और क्षमताओं का अध्ययन तथा परीक्षण कई भौतिक विज्ञानी भी कर रहे हैं और जो निष्कर्ष सामने आ रहे है, उनसे यही बात सिद्ध होती है कि अतीन्द्रिय चेतना को प्रामाणित करने के लिए पर्याप्त वैज्ञानिक आधार हैं। हाल ही में अमेरिका के दो प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. हेराल्ड पुरहोफ तथा डा. रसेल टार्ग ने अतीन्द्रिय चेतना के संबंध में ऐसे कई व्यक्तियों को अध्ययन किया जो अतीन्द्रिय चेतना से सम्पन्न बताए जाते थे। इन वैज्ञानिकों ने ऐसे व्यक्तियों का न केवल अध्ययन किया, वरन् कई तरह के प्रयोग भी किए और पाया कि अतीन्द्रिय शक्तियों के दावे निराधार या छलावे नहीं है।

प्रयोगों की शुरुआत अमेरिका के एक प्रसिद्ध लेखक रिचार्ड बाख से हुई। बाख अपने व्यवसायिक जीवन में एक उड़ाके थे। एक दिन समुद्र किनारे टहलते-टहलते सुना कि जैसे किसी ने पुकार कर कहा हो “जोनाथन लिविंग्सटन सीगल”। आवाज बहुत साफ थी और लग रहा था कि कोई बाख को ही संबोधित कर रहा हैं रिचर्ड बाख इस नाम के किसी भी व्यक्ति को नहीं जानते थे और न ही उन्हें किसी ने आज तक इस नाम से पुकार था। इस नाम को सुनने के बाद वे एक विचित्र सम्मोहित की-सी अवस्था में आ गए और तुरन्त ही घर लौट पड़े। लौटते ही उन्होंने जो लिखना शुरू किया तो चार-पाँच सौ पृष्ठों की एक मोटी किताब लिख डाली और वह भी एक ही बैठक में। यह एक उपन्यास था। इसके पहले बाख ने उपन्यास लिखना तो दूर रहा कोई लघु कथा भी नहीं लिखी थी।

बाख का दावा था कि यह पुस्तक उन्होंने परामनोवैज्ञानिक शक्तियों के वशवर्ती होकर लिखी थी। पुस्तक बाख के इस दावे के साथ प्रकाशित हुई। अमेरिका की प्रसिद्ध पत्रिका “साइकिक” ने रिचर्ड बाख से इस विषय पर भेंट वार्ता ली और प्रकाशित किया। यह भेंट वार्ता डा. रसेल टार्ग ने पढ़ी और उन्होंने इस दावे की सच्चाई को परखने का निश्चय कर लिया। इसके पूर्व भी डा. टार्ग और पुरहोफ अतीन्द्रिय शक्तियों से संबंधित दावों की सच्चाई परख चुके थे और इस विषय में कई प्रयोग कर चुके थे। दोनों वैज्ञानिकों ने सन् 1973 में इस तरह के अनुसन्धान प्रयोगों की योजना बनाई थी और पहला प्रयोग 29 मई 1973 को किया। प्रयोग के लिए न्यूयार्क के प्रसिद्ध कलाकार इंगो स्वान को चुना गया था। इंगो स्वान के संबंध में प्रसिद्ध है कि वह आँखें बन्द करके मीलों दूर के दृश्य देख लेता है। अर्थात् उसमें अतीन्द्रिय दर्शन की क्षमता है। इंगो को इस पराशक्ति पर प्रयोग करने के लिए राजी किया गया और उन्हें एक कमरे में बन्द कर दिया गया।

इस कमरे में इंगो के अतिरिक्त और कोई नहीं था। था तो केवल एक वीडियो रिकार्डर जो आवाज भी टेप करता है और तस्वीर भी। इंगो को कमरे में पहुँचने तक यह नहीं बताया गया था कि उनसे क्या क्या पूछा जाने वाला है। कमरे में प्रवेश करते ही प्रयोगकर्ता रसेल टार्ग की बातों का टेप, टेपरिकार्डर पर खोल दिया गया। पूछा गया था कि हमारा एक मित्र जो इस समय अमुख अक्षाँश और अमुक देशान्तर पर है, वहाँ क्या कर रहा हैं? हमें खुद भी इस बात का पता नहीं है कि वह कहाँ है और किस स्थिति में है? कौन से नगर या क्षेत्र के किस हिस्से में हैं?

इंगो ने आँखें बन्द की और कुछ देर तक अपने चित्त को एकाग्र क्या-क्या देख रहे हैं? बीच-बीच में वह कागज पर रेखाचित्र भी खींचते जाते थे। इस प्रकार इंगो ने उस साथी के संबंध में कई विवरण बताये और उस स्थान के नक्शे बनाए। कुछ हफ्तों बाद जब वह व्यक्ति वापस लौटा, जिसके बारे में प्रश्न किए गए थे तो उसे इंगो द्वारा बनाए गए नक्शे और दिए गए विवरण, जिन्हें टेप कर लिया गया था, बनाए गए। साथी ने बताया कि इंगो स्वान द्वारा दिये विवरण ही सही नहीं है बल्कि उन्होंने जो नक्शे खींचे और नक्शों में दृश्यों की दूरियों का जो अनुपात दिया है, वह भी हू-ब-हू सही है। पुरहोफ और रसेल टार्ग अपने इस प्रयोग के निष्कर्ष से चकित थे।

पर वह वैज्ञानिक ही क्या जो एकाध प्रयोग से ही सन्तुष्ट हो जाय। एकाध प्रयोगों पर भी आधारित हो सकती है। इसलिए उन्होंने प्रयोगों में विविधता लाकर इस निष्कर्ष का खरा-खोटापन भली-भाँति परख लेने का निश्चय किया। उन्होंने विभिन्न तरह के कई प्रयोग किए। इन प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्ष इनके विवरणों सहित प्रकाशित होने लगे तो वैज्ञानिक द्वय के पास दर्जनों फोन आने लगे कि हम अनुभव करते हैं, हमारे भीतर भी ऐसी कुछ शक्तियाँ हैं और उनका परीक्षण करने के लिए हम अपने को आपके प्रयोगों में सम्मिलित करना चाहते हैं।

स्वाभाविक ही सब प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया जा सकता था। कुछ खास प्रस्तावकर्ताओं को ही चुना जा सका। ऐसे प्रस्तावकों में एक थे वरबैंक शहर के उप-मेयर और पुलिस कमिश्नर रह चुके पैट्रिक एच. प्राइस। पैट्रिक ने अपनी इस क्षमता का उपयोग अपने पुलिस जीवन में भी किया था और कई अपराधियों को पकड़ा था। पैट्रिक पर डा. टर्ग और पुरहोफ ने फोन पर ही प्रयोग किए। इन प्रयोगों की कुल संख्या नौ थी और आश्चर्य की बात थी कि इनके निष्कर्ष अतीन्द्रिय चेतना के अस्तित्व को पूर्व प्रयोगों के समान ही पुष्ट करते थे। उल्लेखनीय है कि सभी प्रयोग भिन्न-भिन्न तरह के थे और उसके विवरण भी एक ऐसे वैज्ञानिक को विश्लेषण करने के लिए दिये गये थे जिसे यह भी पता नहीं था कि मामला क्या है? जिन नौ स्थानों को पैट्रिक ने बन्द कमरे में बैठकर पहचाना था उनकी दूरी वहाँ से दो से पन्द्रह किलोमीटर तक थी। विश्लेषण कर्ता वैज्ञानिक ने इन सभी विवरणों का विश्लेषण कर वही निष्कर्ष निकाले जो डा. टार्ग पुरहोफ ने निकाले थे।

पुरहोफ और टार्ग के अतिरिक्त और भी कई वैज्ञानिक अतीन्द्रिय चेतना की वास्तविकता जाँचने में लग हुए हैं। इस विषय में फ्राँस के डॉ. पाल गोल्डीन का नाम उल्लेखनीय है। वे अपने विषय का अध्ययन करने के लिए संसार के कई देशों की यात्रा कर चुके है। सैकड़ों प्रयोग और निरीक्षण करने के बाद डॉ. गोल्डीन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मनुष्य के पास एक छठी इन्द्रिय भी हैं, जिसके संबंध में लोगों को बहुत कम जानकारी है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों की सुनने, बोलने, देखने, सूँघने और स्पर्शानुभूति की क्षमता से तो सभी परिचित हैं, परन्तु छठी इन्द्रिय जिसे पराशक्ति भी कहा जाता सकता है, इन पाँचों इन्द्रियों से अधिक महत्वपूर्ण है। किन्हीं-किन्हीं में यह संयोगवश प्रकट होती है और देखने संपर्क में आने वालों को चकित कर देती है। किन्तु वह आकस्मिक है। प्रयत्नपूर्वक उसे बढ़ाया जा सकता है और उससे अधिक लाभ उठाया जा सकता है जो पाँच ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से प्राप्त होना संभव है।

अध्यात्म की इन मान्यताओं को, अतीन्द्रिय चेतना की इन सम्भावनाओं को विज्ञान ने आरम्भ में निराधार भावुक मान्यताओं की संज्ञा दी थी और कहा था कि इनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है, पर अब ऐसी बात नहीं है। चेतना के क्षेत्र में जो नित नवीन खोजें होती हैं कि मस्तिष्क मात्र चिन्तन का एवं शरीर मात्र संचालन, कार्य सम्पादन का उत्तरदायित्व ही नहीं सम्भालता है। शरीर और मस्तिष्क का कार्यक्षेत्र वहीं तक सीमित नहीं है। जितना कि समझा जाता है। बल्कि उसकी परिधि बहुत व्यापक है। परामनोविज्ञान जो काफी समय से इन शक्तियों का प्रतिपादन पुष्टीकरण करता आ रहा है, आरम्भ में भूत विद्या जैसी जादुई चर्चा कहा गया था। किन्तु अब प्राप्त तथ्यों ने इसे विज्ञान की ही एक शाखा मानने जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी है और उसकी गम्भीरता तथा वास्तविकता को स्वीकारा, समझा व माना जाने लगा है। अमेरिका की विज्ञान संस्था ए.ए.ए.एस. ने परामनोविज्ञान संस्था को अपना पूर्ण सदस्य माना है और उसके प्रतिनिधि अन्य वैज्ञानिकों के साथ बैठते, विज्ञान काँग्रेसों में भाग लेते हैं। परामनोविज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसमें मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले और मस्तिष्क द्वारा प्रभावित होने वाले सभी आधार सम्मिलित रखे गये हैं। उसी की एक शाखा अतीन्द्रिय विज्ञान है जिसे पी.एस.आई. कहा जाता है। इस शाखा में अतीन्द्रिय दृष्टि, पूर्वाभास, विचार सम्प्रेषण आदि कई धाराएँ सम्मिलित है।

अतीन्द्रिय चेतना की बहुत सीमित सम्भावनाओं पर ही अभी प्रयोग परीक्षण किए जा सके है। इस दिशा में प्रयोगों का क्रम जारी है और अगले दिनों बहुत कुछ प्राप्त होने की आशा की जा रही है तथा समझा जा रहा है कि मनुष्य अतीन्द्रिय चेतना के क्षेत्र में प्रगति कर विलक्षण सामर्थ्यों का अधिष्ठाता बन सकता है।


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