बीमारियाँ शरीर की नहीं- मन की

October 1971

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खोपड़ी की पिटारी में रखे हुए लिबलिबे भूरे पदार्थ की हलचलों को मन या मस्तिष्क कहते हैं। सोचने विचारने का काम इसी मशीन से चलता है। विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ एवं स्मृतियाँ इसी क्षेत्र में रहती हैं। तर्क, ऊहापोह, विश्लेषण, निर्धारण करने वाला तंत्र बुद्धि कहलाता है। मन तो मात्र इच्छा या कल्पना करता रहता है। इन्हीं दोनों के समन्वय से बनने वाली स्थिति को बुद्धिमत्ता कहते हैं। व्यवहार का निर्धारण एवं उसकी उलट-पुलट के लिए इसी संस्थान में सन्निहित अनुभव एवं चातुर्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते, प्रतिस्पर्धा जीतते तथा अवरोधों से जीतने, सफलता का पथ प्रशस्त करने में अपना कमाल दिखाते हैं।

मस्तिष्कीय कौशल की विशिष्टता सर्वविदित हैं। अस्तु, उसे समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न भी सर्वत्र किये जाते हैं। स्कूली शिक्षा का प्रधान उद्देश्य यही हैं। उसके माध्यम से वस्तुओं का स्वरूप एवं लोक-व्यवहार के अनेक पक्षों को समझने-समझाने का प्रयत्न किया जाता है। संपर्क, परामर्श, घटनाओं का निकटवर्ती पर्यवेक्षण इस प्रयोजन में विशेष रूप से काम आता है। इस संदर्भ में मस्तिष्कीय कोशिकाओं की संरचना भी तीक्ष्णता को न्यूनाधिक करती रहती है। समुन्नत मस्तिष्क व्यक्तियों का सहयोग अर्जित करने से लेकर अभीष्ट सफलताएँ उपलब्ध करने में अपने चमत्कार आये दिन दिखाता रहता है। आमतौर से इसी प्रतिभा के आधार पर मनुष्य का बाजारू मूल्याँकन होता और श्रेय मिलता है।

किन्तु समझा जाना चाहिए कि यह लोक-व्यवहार में काम आने वाला व्यक्ति की प्रवीणता निखारने वाला मस्तिष्क तंत्र बहुत कुछ होते हुए भी सब कुछ नहीं है। उसके भीतर दो और परतें हैं जिनमें से एक को अचेतन और दूसरी को अति चेतन कहते हैं। इन तीनों परतों में ही मनुष्य का समूचा व्यक्तित्व समाया है। अध्यात्म की भाषा में इन्हीं तीनों को स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनका समन्वय ही समग्र व्यक्तित्व है।

बाजारू व्यक्तित्व ही आमतौर से देखा जाता और खरीदा-बेचा जाता है। इतने पर भी इस रहस्य से अवगत होना ही चाहिए कि चेतना की गहराई में उतरने पर ही बहुमूल्य उपलब्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। धरती पर रेत, मिट्टी बिखरा पड़ा है पर गहराई में खोदने पर जीवन-प्राण समझा जाने वाला जल मिल जाता है और भी अधिक खोदने पर बहुमूल्य खनिज पदार्थ एवं तेल हाथ लगते हैं। समुद्र की ऊपरी सतह पर तो शैवाल, समुद्र फेन आदि तैरते रहते हैं। मोती तो गहराई में उतर कर ही हस्तगत होते हैं। नारियल की जटा तथा खोपड़ा तोड़ने के उपरान्त ही गिरी हाथ लगती है। ईंधन बरामदे में, कपड़े कोठरी में और जेवर तिजोरी में रहते हैं। इसी प्रकार चेतना की उथली परत बुद्धिमत्ता कहलाती है किन्तु उससे भीतर उतरने पर अचेतन मन का चमत्कार देखने को मिलता है।

आदतों का अपना महत्व है। मनुष्य का सारा ढर्रा उसी के आधार पर चलता है। गुण, कर्म, स्वभाव में इन आदतों का ही आधिपत्य दृष्टिगोचर होता है। तर्क का अपना महत्व है। विषय को समझने और विचार बदलने के लिए अध्ययन परामर्श से भी काम चल जाता है किन्तु आदतों को क्या कहाँ जाय, वे इतनी हठीली होती है कि किसी बात का औचित्य या अनौचित्य स्वीकार कर लेने पर भी तद्नुरूप परिवर्तन करने के लिए तैयार नहीं होती। नशेबाजी की आदत इसका हुए भी-उसे छोड़ने की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी नशेबाज एक प्रकार से अपने आप को विवश असहाय अनुभव करता है और अनुभव करता है कोई भूत-पिशाच उससे बलपूर्वक उस काम को करा रहा है। इसी हठीली परत को अचेतन कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे ‘चित्त’ कहते हैं। चित्त अर्थात् चिन्तन का परिपक्व अभ्यास।

शरीर की अन्तरंग क्रियाएं इसी चित्त - अचेतन के द्वारा गतिशील रहती है। माँसपेशियों का आकुँचन-प्रकुँचन, रक्त का आवागमन पलकों का निमेष -उन्मेष, फेफड़ों का श्वास-’प्रश्वास, ग्रहण, विसर्जन, शयन, जागरण आदि शरीर की अभ्यस्त गतिविधियों का संचालन यह चित्त ही सोते-जागते करता रहता है और मनुष्य को उनके होने न होने तक का अनुभव नहीं होता। न केवल शरीर संचालन में वरन् सोचने तथा काम करने के ढर्रे में भी इसी की प्रेरणाएँ काम करती है। घोड़ा अस्तबल में जा घुसता है और कबूतर दरबे में। वे यह नहीं सोचते कि इस बंधन में स्वतः प्रवेश करने से क्या लाभ? आदतों को नफा नुकसान से कोई मतलब नहीं होता, वे जिस ढाँचे में ढल जाते हैं, उसी ढर्रे को अपनाये रहने का हठ करती हैं। इन आदतों को डालने में लम्बा समय लगता है फिर उन्हें उखाड़ना तो और भी अधिक कठिन पड़ता है।

जो हो, इस तथ्य को स्वीकार किया ही जाना चाहिए कि व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने की यदि किसी को वास्तविक इच्छा हो तो उसे अपने अचेतन से जूझने की साहसिकता संजोनी चाहिए। क्योंकि आमतौर से अभ्यस्त आदतें वैसी घटिया स्तर की होती हैं जिन्हें पशु प्रवृत्तियाँ कहा जा सके। आधुनिक मनोविज्ञानी भ्रम वश इन्हीं कुसंस्कारों को मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति मानने लगे है और उनके सुधार परिष्कार की बात सोचने की अपेक्षा उल्टा समर्थन, पोषण, प्रोत्साहन करने लगे है।

मनुष्य को सृष्टि के आदि से लेकर अब तक की लम्बी जीवन यात्रा में अनेकानेक ऐसी परिस्थितियों में रहना पड़ा है जिन्हें मानवी सभ्यता की दृष्टि से हेय ही कहा जा सकता है। बच्चे को छोटी चड्ढी या फ्राक पर्याप्त होती है, पर वयस्क होने पर तो उसे पूरी पोशाक चाहिए। क्षुद्र योनियों को क्षुद्र परिस्थितियों में रहने पर जिस स्तर का जीवन जीना पड़ता है, उसकी संग्रहित आदतें मनुष्य जन्म में प्रवेश करते ही समाप्त नहीं हो जाती वरन् सभ्यता अपनाने का दबाव पड़ने पर भी अन्तराल के अंधेरे कोंतरों में छिपकर बैठी रहती है। नीति-मर्यादा के मानवीय अनुबंधों को तोड़-फोड़कर अभ्यस्त स्वेच्छाचारिता को अपनाने के लिए वे अवसर पाते ही उछाल लगातीं और करामात दिखाती रहती हैं। मानवी गरिमा के साथ उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य की विशिष्टता जुड़ी हुई है। उसे समझने समझाने में भी कोई बड़ी कठिनाई नहीं होती। उपदेश पग-पग पर नीति के एवं उदारता के समर्थन में सुने जाते हैं। उन्हें स्वीकारने में भी किसी को कोई आपत्ति ही होगी। किन्तु कठिनाई तब पड़ती है जब निकृष्ट परिस्थितियों से गुजरते-गुजरते जो आदतें अन्तरंग की गहराई में घुस गई हैं उन्हें सुधारने, बदलने की बात सोची जाती है।

अचेतन एक पूरा तिलस्म हैं। उसे खुलकर खेलने का अवसर नहीं मिलता तो छद्म अपनाता है और अनेकानेक बहाने गढ़कर मन की मौज बरतने के लिए दाँव पेंच लड़ाता है। वस्तुतः हर मनुष्य के भीतर एक अच्छा खासा महाभारत खड़ा रहता है। पशु प्रवृत्तियाँ अपना हठ नहीं छोड़ती और मानवी, गरिमा अपने आप को पतित पराजित स्थिति में रहने के लिए सहमत नहीं होतीं। दो साँड़ों के युद्ध में जिस प्रकार खेत से उगे पौधे नष्ट होते रहते हैं, दो पाटों के बीच जिस प्रकार अनाज पिसता रहता है, दो तलवार ठूँसने पर जिस प्रकार म्यान फटता रहता है उसी प्रकार इस अन्तर्द्वन्द्व में जीवन प्रगति का भी दिवाला पिटता रहता है। सारी शक्ति तो इस अन्तःकलह में ही चूक जाती है। फिर उत्कृष्टता की दिशा में चलने और उस क्षेत्र में कुछ पराक्रम, पुरुषार्थ करने का सुयोग कैसे बने ? उच्चस्तरीय प्रगति की आकाँक्षा हर किसी के भीतर रहती है पर उसका साधन तभी बन सकता है जब अचेतन को कुसंस्कारिता से मुक्ति दिलाने और सुसंस्कारिता के ढांचे में ढालने के लिए कोई कहने लायक कदम उठाया जा सकें।

अध्यात्म, तत्व ज्ञान और साधना विधान का प्राथमिक ढाँचा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सृजा गया है कि उस उपचार से अन्तःचेतना के अभ्यासों को बदलने, सुधारने एवं ढालने की प्रक्रिया चल पड़े। वस्तुतः यही परम पुरुषार्थ हैं। उपेक्षा के गर्त में गिराये हुए अचेतन का यदि सही मूल्याँकन किया जा सके और उसे मानवी गरिमा के अनुरूप आदतें अपनाने के लिए सहमत किया जा सके तो समझना चाहिए कि सर्वतोमुखी प्रगति के द्वार खुल गये। एक ऐसा समर्थ साथी मिल गया जिसकी सहायता से आसमान तक ऊँचा उठ सकना सम्भव हो सके। परिष्कृत अचेतन को यदि अंगद-हनुमान की, नल-नील की, भीम-अर्जुन की उपमा दी जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। जिन दैवी विभूतियों का ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से चमत्कारी वर्णन होता रहता है, उसे संक्षेप में अचेतन की उभरी हुई विशिष्टता ही समझा जाना चाहिए।

साधना मार्ग के संबंध में फैली हुई यह भ्रान्ति निरर्थक है कि यह प्रक्रिया देवी-देवताओं को चंगुल में फँसाकर उनसे चमत्कारी सिद्धि -वरदान झटक लेने के लिए प्रयुक्त की जाती है। वस्तुतः उस माध्यम से अचेतन और उच्च चेतन की रहस्यमय परतों को परिष्कृत समुन्नत किया जाता है। इसी क्षेत्र में अगणित अतीन्द्रिय क्षमताएँ और व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बना देने वाली विभूतियाँ छिपी पड़ी है। उनका जागरण उन्नयन होने से मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक समुन्नत सुसंस्कृत बनता है और देवोपम बनने की दिशा में द्रुतगति से अग्रसर होता है। साधना विज्ञान में मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान और उनकी विलक्षणताओं के प्रकटीकरण की अनुभूत विधि-व्यवस्थाओं का परिपूर्ण समावेश है।

‘लोअर सेल्फ या ‘स्व’ की परिधि से ऊपर की ओर की यात्रा ही अंतर्जगत की यात्रा है, आँतरिक प्रगति का सच्चा मार्ग है। केवल इस अनुभूति मात्र का उठना कि कुछ बिल्कुल अलग, रोजमर्रा के स्वरूप से विभिन्न मेरे भीतर कुछ हैं-सारे व्यक्तित्व को बदलकर रख देता है। जब क्रिया-कलाप भी उसी दिशा में नियोजित होने लगते हैं तो महामानव, देवमानव, सुपरमैन की परिधि में मनुष्य प्रवेश कर जाता है।

हमारा चिन्तन दुःखद विरोधी परिस्थितियों से न प्रभावित होकर अति मन के भीतर में उभर कर आना चाहिए। वस्तुतः जो कुछ भी सुन्दर है, शिव हैं, शुभ है वह मानवी स्थिति में नहीं, अतिमानवी स्थिति में ही करतलगत हो सकता है। केवल एक ही परिस्थिति ऐसी हो सकती है जिसमें स्थायी सुख-शान्ति, अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति हो। वह अतिमानव के स्तर पर बनती है जिसे “कास्मिक गुडनेस” “सुपर काँशसस्टेज” कहा जा सकता है। हर धर्म, पंथ, मत ने ही यही मूल दर्शन सबको सिखाया है कि परम तत्व को पाने के लिए भौतिक मन, ‘लोअर सेल्फ’ से ऊँचे उठो। ऊँचाई से सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है।


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