गायत्री मंत्र की भावनात्मक पृष्ठभूमि

October 1971

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गायत्री महामन्त्र के मन्त्र शिरोमणि होने एवं भारतीय संस्कृति में सर्वश्रेष्ठ मंत्र घोषित किये जाने के अनेकों कारण हैं। मंत्र में शब्दों का गुंथन इस वैज्ञानिक रीति से हुआ है कि उसके जप से साधक की अन्तःचेतना में प्रसुप्त सूक्ष्म संस्थानों पर आघात होता है। प्रसुप्ति जागृति में बदलती है। शक्ति स्रोतों के भंडार खुल जाते हैं। अन्तः जागरण बाह्य चेतन जगत से संपर्क जोड़कर इतनी सामर्थ्य को संचित कर लेता है जिसे असामान्य, चमत्कारी कहा जा सके। यह तो मंत्र का वैज्ञानिक पक्ष हुआ।

वैचारिक पक्ष में जीवन एवं जीवन से संबंधित प्रत्येक छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान समाहित है। मन्त्र में सन्निहित तत्व दर्शन में सृष्टि के सभी रहस्यों, तथ्यों का निरूपण किया गया है जो ईश्वर, जीव एवं प्रकृति के स्वरूप एवं आपसी संबंधों को व्यक्त करते हैं। मंत्र के 24 अक्षरों में छिपे तत्वज्ञान के चिन्तन-मनन द्वारा ज्ञान के उस स्त्रोत तक पहुंचा जा सकता है जिसे शास्त्रकारों से आत्म-ज्ञान, बाह्य-ज्ञान के नाम से वर्णन किया है।

वैज्ञानिक एवं वैचारिक पक्ष की तुलना में गायत्री महामन्त्र का भाव पक्ष कहीं अधिक प्रेरणादायक, समर्थ एवं प्रभावशाली है। विश्व की किसी भी संस्कृति में मात्र 24 अक्षरों में ब्रह्म विद्या एवं साधक विज्ञान का इतना सशक्त एवं समग्र दर्शन नहीं मिलता। भाव संवेदनाओं की पराकाष्ठा का दर्शन यदि कहीं करना हो तो गायत्री महामन्त्र में किया जा सकता है। भावों की उदात्तता के कारण ही सर्वश्रेष्ठ मन्त्र होने का श्रेय उसे प्राप्त हो सका है।

मन्त्र का देवता सविता है। सविता शब्द “षृड प्राणिगभैविमोचन याषू प्रेरणो” धातुओं से बना है। ‘षृड़’ धातु से बनाने पर “यः सुते चराचर जगत् उत्पादयति स सविता”-जो चराचर जगत को उत्पन्न करता है वही सविता है। ‘यू’ धातु से बनाने पर - यः सुवति प्रेरयति सर्वान् स सविता।” अर्थात् तो सबको सद्मार्ग की ओर प्रेरित करता है, वह सविता है। इन सभी अर्थों के अनुसार जड़ चेतन को उत्पन्न करने वाले तथा सबको पवित्र बनाने एवं श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले भगवान सविता है। सूर्य की भी सविता कहते हैं। सूर्य स्वयं प्रकाशमान है तथा दूसरों को प्रकाशित करते हैं। इसी प्रकार सविता देव भी स्वयं प्रकाश पुज हैं तथा सबमें अपने प्रकाश का आलोक वितरित करने वाले हैं। गायत्री उपासक - सविता का साधक भी इन्हीं उदात्त भावनाओं से सम्पन्न बनता चला जाता है।

मन्त्र के तीन चरण हैं। तीनों में दिव्य प्रेरणाएँ भरी पड़ी है। उन्हीं का आह्वान, अवगाहन साधक करता तथा अपनी धारणा शक्ति का विकास करता है। प्रथम चरण है - तत्सवितुर्वरेण्यं। पृथ्वी में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, अग्नि में, विद्युत में, सूर्य में सर्वत्र भगवान सविता का तेज समाया हुआ है। अपने भाव नेत्रों से इष्ट की - परमात्मा की झाँकी सविता के प्रकाश पुंज के रूप में सर्वत्र करता हुआ साधक भाव-विभोर हो उठता है। सविता को उज्ज्वल पवित्र ज्योति एक अनिवर्चनीय आनन्द में डुबोये रहती है। इस दिव्यज्योति का गुणगान उपनिषदों में भी मिलता है।

‘न तत्र सूर्योभाति न चन्डतारक, नेमा विद्युतोभान्ति कुतोयमग्निः। तमेव भान्त मनु भाँति सर्वें, तस्यमासा सर्वमिदविभति॥’

अर्थात् - उसकी ऐसी दिव्य ज्योति है कि उसके समक्ष सूर्य, चन्द्र तारे सभी फीके पड़ जाते हैं। बिजली की चमक उसके आगे कुछ नहीं हैं - अग्नि की बात ही क्या है। उसे महाज्योति पुँज से ही प्रकाश लेकर ये सभी अलोकित हो रहे हैं। उसी दिव्य ज्योति का अवगाहन, आराधन सविता साधक करता है। उस वरणीय ज्योति का अधिकारिक धारण करने की कामना करता है।

प्रथम चरण में सविता के रूप में उस परत सत्ता के दिव्य गुणों का वर्णन हुआ है, जिसकी स्तुति कर साधक फूला नहीं समाता स्तुति के उपरान्त प्रार्थना का क्रम है। सविता का प्रकाश स्तुति के उपरान्त साधक कह उठता है - “भर्गो देवस्य धीमहि” अर्थात् जिन दिव्य गुणों का विशेषताओं का हम ध्यान करते हैं वह हमारे अन्दर अवतरित हों। भक्त-भगवान का, साधक साध्य का, उपासक-उपास्य का, जीव-ब्रह्म का तादात्म्य, एकरूपता परस्पर के आदान-प्रदान इष्ट की दिव्यता के अवतरण से ही सम्भव हैं। मंत्र के द्वितीय चरण में यही प्रार्थना की गई है। हे प्रकाश-पुँज पापनाशक, दिव्य, आनन्द-दायक परमात्मा स्वरूप सविता देव आप हमारे अन्दर अवतरित हों। हम आपके दिव्य गुणों को अपने अन्दर धारण करते हैं। आप हमारे भीतर अवस्थित हो जायें जिससे आपके आलोक से हमारा अन्तःकरण जगमगा उठा।

मंत्र के तृतीय चरण में इस तथ्य का स्पष्टीकरण हुआ है कि दैवीय गुणों की शक्तियों को क्यों धारण करना चाहते हैं? “धियो योनः प्रचोदयात्”-- ताकि वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दें। बुद्धि प्रसुप्त तमिस्रा के घोर अन्धकार में सोयी पड़ी है। उसे अपने लक्ष्य का कर्तव्यों का बोध नहीं है। सांसारिक आकर्षणों में इस तरह भटक गयी है कि उसे अपनी गरिमा का भान नहीं है। मंत्रों के तृतीय भाग में यही प्रार्थना की गई है--”हे सविता देव अपने दिव्य गुणों के साथ हमारे अन्तः में अवतरित होकर बुद्धि को अन्धकार की तमिस्रा से प्रकाश की ओर ढकेल दो। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश प्रातःकाल अपने तेजस्वी स्वर्णिम किरणों के साथ आकर सोये हुए प्राणियों को जमा देता और कर्मों में प्रवृत्त करता है। उसी प्रकार सविता देव का प्रकाश भी गायत्री साधक के अन्तःकरण में आकार बुद्धि को प्रकाशित करता है। प्रसुप्ति-जागृति के रूप में परिलक्षित होती है। बुद्धि में प्रज्ञा का अवतरण होता है। असत्य की जड़ता की तमिस्रा छंटती है। सत् का- चैतन्यता का प्रादुर्भाव होता है। प्रज्ञा की और उन्मुख बुद्धि जड़ता के बन्धनों लोभ मोह के आकर्षणों में नहीं बंधती। उसके स्वः की परिधि संकुचित नहीं रहती। विस्तृत होकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में विस्तार ही जीवन का प्रयोजन है। गायत्री महामंत्र की दिव्य प्रेरणाओं को धारण कर साधक इसी लक्ष्य की प्राप्ति की और तत्पर होता है।

महामंत्र में वर्णित आशय से स्पष्ट हैं कि इसे इतना अधिक गौरवास्पद स्थान भारतीय संस्कृति में क्यों मिला हैं। इसमें किसी व वस्तु की कामना नहीं की गई हैं। की भी गई है। तो बुद्धि को निर्मल पवित्र बनाने - सन्मार्ग पर प्रेरित करने की । वह भी अपने लिए मात्र नहीं -समष्टि के लिए प्रार्थना की गई हैं । “यौनः” हम सबकी बुद्धि श्रेष्ठ मार्ग की ओर अग्रसर हो। दृष्टा ऋषि इस तथ्य से परिचित थे कि समष्टि के कल्याण में ही व्यक्ति का भी हित निहित हैं। इसी कारण प्रज्ञा के अवतरण की प्रार्थना भी समष्टि के लिए की गई है।

गायत्री मंत्र का भाव पक्ष इतना उदात्त इतना पवित्र एवं मानव मात्र के लिए कल्याणकारक हैं कि उसके चिन्तन एवं मनन द्वारा अन्तःकरण की भावनाएँ स्वतः उमड़ने लगती हैं। सही रूप से महामंत्र का अवगाहन, आराधन एवं चिन्तन मनन किया जा सके तो क्रमशः आत्मोत्कर्ष की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए विराट् सत्ता के निकट पहुँचा जा सकता है। जिसके निकट पहुँचने-उसके दिव्य स्वरूप का दिग्दर्शन करने के उपरान्त कोई कामना अवशेष नहीं रहती। एक अनिर्वचनीय आनन्द में साधक सदा डूबा भौतिक जगत में रहते हुए भी निर्लिप्त बना रहता है।


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