मृत्यु जीवन की अविच्छिन्न सहचरी

October 1971

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प्रगतिशीलता का अर्थ यदि सम्पन्नता किया जायेगा और उसके साथ चिन्तन की श्रेष्ठता को न जोड़ा जायेगा तो फिर लक्ष्य यही बन जायेगा कि भौतिक समृद्धि को किसी भी प्रकार उपार्जित किया जाय। समृद्धि के मन-चाहे उपयोग में आकर्षण की अधिकता रहती है। यदि उस पर भावनात्मक उत्कृष्टता का अंकुश न रहे, तो फिर समृद्धि की उत्कृष्टता ऐसी आतुरता उत्पन्न करेगी कि उसे धर्म-मर्यादाओं का स्मरण दिलाने से भी नियन्त्रित न किया जा सकेगा और वह कुछ भी-किसी भी उपाय से कर गुजरने-अनीति और उच्छृंखलता बरतने तक में प्रवृत्त होती दिखाई पड़ेगी। ऐसी प्रगति व्यक्ति को दुर्गुणी और समाज को अनाचारी बना देगी। कहना न होगा कि प्रकृति और चेतना के शाश्वत नियम इस प्रकार के अनुपयुक्त मार्ग से उपार्जित सम्पदा को सहन न करेंगे, फलतः सर्वत्र संकट, विग्रह और विनाश के दृश्य उपस्थित होंगे।

जीव-चेतना के साथ जुड़ी हुई जिस प्रगति आकाँक्षा की चर्चा की जाती है, उसे सुसंस्कृत दृष्टिकोण एवं शालीनता युक्त चरित्र के रूप में ही मान्यता दी जा सकती है। उसी के माध्यम से व्यक्ति की विशिष्टता बढ़ती है। व्यक्तित्व की विशिष्टता एक शक्तिशाली चुम्बक है, जिसके आकर्षण से उपयोगी साधन-सामग्री उतनी मात्रा में सहज ही उपार्जित होती रहती है, जितनी कि निर्वाह के लिए आवश्यक है। इससे अधिक मात्रा का उपार्जन एवं उपयोग व्यक्ति में अनेक दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा और समाज में अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देगा। दूरदर्शी विवेकशील सदा से यही कहते रहे हैं कि यदि भौतिक उपार्जन औसत नागरिक स्तर का ही किया जाना चाहिए। उसे संग्रह में -कुटुम्बियों में-मुफ्त बाँटने में-बर्बाद न करके लोकोपयोगी कार्य में खर्च कर दिया जाय। लालच इस नीति युक्त दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। फलतः बढ़ी हुई सम्पदा-प्रगति दिखते हुए भी सुखद प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करती। यही कारण है कि उत्कृष्टता का अंकुश न रहने पर समृद्धि सर्वत्र दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती देखी गई है। भले ही उसके अधिपति कुछ समय तक विलासी-संग्रही के रूप में अपने अहंकार का प्रदर्शन करते फिरे।

यह कठिनाई भावनात्मक प्रगति में नहीं है। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता-विचारणा में दूरदर्शिता और गतिविधियों में शालीनता का समावेश बढ़ता चले तो क्रमशः व्यक्तित्व का वजन बढ़ता जायेगा। ऐसा व्यक्ति अपनी आँखों में समूचे समुदाय की आँखों में वजनदार बनता जायेगा। जिसका जितना मूल्याँकन किया जाता है, उसे उसी स्तर के प्रतिफल, अनुदान एवं उपहार भी मिलते रहते हैं। व्यक्तित्ववानों की अपनी क्षमताएँ विकसित होती हैं और उनके सहारे उपयुक्त निर्वाह की साधन सामग्री सहज ही उपार्जित की जा सकती है। इसके विपरीत संकीर्ण-स्वार्थपरता में निमग्न व्यक्ति प्रायः अनुदार असामाजिक और कई वार अपराधी प्रवृत्ति के भी होते हैं। ऐसे लोगों का मूल्य सर्वसाधारण की दृष्टि में गिर जाता है। फलतः वे दूसरे की सहानुभूति, सहायता, आत्मीयता से वंचित रहने पर उपार्जन उपयोग भी एक सीमा तक ही कर पाते हैं। उसकी छीन-झपट का एक नया सिलसिला चल पड़ता है। फलतः कड़ुवे-मीठे आक्रमण करने वाले- अपने-बिरानों से चमड़ी बचाना तक कठिन हो जाता है।

गुण-अवगुण की कतिपय कसौटियाँ पार करने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि एकाँगी समृद्धि चमकीले साँप की तरह लगती तो आकर्षक है, पर वे अपने विष-दंश से असीम हानि पहुँचाती है। इसके विपरीत व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने का लक्ष्य निर्धारित करने पर घाटा तो इतना ही हो सकता है कि निर्वाह के अनिवार्य साधनों से सन्तुष्ट रहना पड़े और ठाट-बाट में धनवानों जैसा सरंजाम न जुट सके। इतने पर भी इस मार्ग पर चलते हुए जो सन्तोष और सम्मान मिलता है उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक मूल्य कुछ कम नहीं है।

वे दिन बहुत पीछे रह गये जब सम्पन्नताजन्य ठाट-बाट को -अपव्यय को- देखकर लोग अमीरों को ईश्वर का प्यारा- भाग्यवान् बुद्धिमान् मानते और नत-मस्तक होते थे। अब मूल्याँकन की कसौटियों में जमीन आसमान जितना अन्तर आ गया है। इन दिनों समाजवादी साम्यवादी-चिन्तन व्यवहार में भले ही बेहतर पाया हो-अर्थ-दर्शन के रूप में वह पूरी तरह लोक-समर्थन प्राप्त कर रहा है। उस मान्यता के अनुरूप अधिक संग्रही, अधिक विलासी, अधिक अपव्ययी लोग नीतिवान नहीं समझे जाते। अस्तु, उन पर ‘अनीति की कमाई-विलास की लड़ाई’- की उक्ति के अनुरूप तरह-तरह के लाँछन लगाये जाते हैं। वैभव की चकाचौंध तो अभी भी है और उसे लोग झपटना हड़पना तो अभी भी चाहते हैं किन्तु इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि वैभववानों की प्रशंसा एवं प्रभावों के दिन लद गये। उन पर हर कोई अनीति उपार्जन का लाँछन लगाता है, भले ही वह अनुचित ही क्यों न हो ? पुरातन काल में अपना-अपना भाग्य कहकर सन्तोष कर लिया जाता था, पर अब तो ईर्ष्या के उभार का मौसम है। साम्यवादी प्रतिपादन ने ऐसी ही लोक-दृष्टि का विस्तार किया है और वह अधिकाँश जन-समुदाय के गले उतर गई है। अपराधी को दण्ड देने के प्रचलन में, सम्पन्नों को कोसने-लाँछित करने गरमागरम चर्चा तो होती ही है। साथ ही अपहरण के सफल-असफल उपाय भी दिमागों में चलते एवं जब तक क्रियान्वित भी होते रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि लोगों के बीच बड़ी हुई आर्थिक असमानता ने अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को इन दिनों अत्यधिक बढ़ावा दिया है। विश्लेषण करने पर इसी नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि दूसरों प्रभावित करने, उनसे इज्जत पाने का सपना सर्वथा निरर्थक निकला उलटे तीन हानियाँ हुई - पैसा गया, प्रामाणिकता घटी, संकट बढ़ा और दुर्गुणी दुर्व्यसनों का ऐसा भार अकारण ही लद गया जो व्यक्तित्व का मूल्य गिराता और मनः संस्थान पर तनाव उत्पन्न करने वाले जंजालों से जकड़ता है।

संचय को उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ना या भोगना उसी हालात में उसी मात्रा में उचित है जितने से उनके वयस्क होने तक का गुजारा एवं स्वावलम्बन का आधार खड़ा हो सकें। ब्याज-भाड़े की कमाई बैठे-बैठे खाते रहने का प्रबंध करना, मुफ्त का माल अनगढ़ पीढ़ी पर छोड़कर चले जाना, उनका हित-साधन नहीं है और न दुलार का परिचय देने वाला तरीका। यह तो विनाश का मार्ग है, जिस पर अभिभावक अनजाने ही दुलार के नाम पर अपनी सन्तान को धकेलते हैं।

यही सब है, उन सफलताओं की परिणित, जिन्हें भौतिक सम्पदा कहते हैं। विद्या, बुद्धि प्रतिभा, कला का - पदासीन या प्रतापी होने का लाभ तभी है, जब उनके साथ शालीनता का अनुशासन जकड़ा रहे। उसकी पकड़ ढीली होते ही यह सभी विभूतियाँ अनुपयुक्त मार्ग पर चल पड़ती हैं। दुर्बलों को दबोचने और उनसे अपना उल्लू सीधा करने के काम आती है।

मात्र वैभव बड़प्पन का मार्ग तो बारूद का खेल-खेलने की तरह है। उसमें फुलझड़ी उड़ती तो दिखती है, पर चिनगारी से जलने और पैसे की बर्बादी होने की हानि भी स्पष्टतः सामने खड़ी रहती है। वैभव का उपार्जन एक बात है और उसके उत्पादन एवं उपयोग में शालीनता का समावेश होना-सर्वथा दूसरी। सम्पदा तो दुधारी तलवार है। यदि उसका अभ्यास एवं प्रयोग सही न हुआ तो उसका होना, न होने से भी अधिक महंगा पड़ेगा। अविवेकी के हाथ में पड़ा हुआ वैभव तो बन्दर के हाथ में तलवार के समान है जिसने मक्खी मारने का लाभ सोचने पर भी मालिक की नाक काटकर हानि पहुँचायी थी।

इन तथ्यों पर विचार करते हुए हमें शान्त चित्त से-निष्पक्ष न्यायाधीश जैसे विवेक का उपयोग करते हुए यह देखना होगा कि सम्पदा को प्रमुखता दी जाय या महानता को ? निश्चय ही दूरदर्शिता का फैसला महानता की गरिमा स्वीकारने और उसे उपलब्ध करने के प्रयास में जुट पड़ने का ही होगा।


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