अग्निहोत्र का स्वास्थ्य पर प्रभाव

October 1971

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भारतीय संस्कृति में जीवन के चार प्रमुख लक्ष्य माने गये है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म, अर्थ और मोक्ष की तरह काम को भी उतना ही महत्व मिला है। काम का अर्थ सामान्यतया रति कर्म समझा जाता है, पर विशिष्ट अर्थ विनोद, उल्लास, उमंग, उत्साह और आनन्द माना जाता है। काम वस्तुतः जड़ चेतन में समाहित एक ऐसी शक्ति है जो सतत् हलचल करने, आगे बढ़ने - ऊँचे उठने और साहसिक प्रयत्न करने की प्रेरणा उभारती रहती है। काम सृष्टि की समस्त हलचलों का मूलभूत कारण है।

जड़-पदार्थों में यही धन और ऋण विद्युत के रूप में कार्य करता और परमाणुओं में सन्तुलन बनाये रखते हुए प्रचण्ड गति भरता है। वृक्ष वनस्पतियों के विकसित अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होने पर काम का उभार की कारण बनता है। चेतन प्राणियों में नर, नारी जैसे विपरीत तत्वों के रूप में प्रकट होता है। चिड़ियों की चहचहाहट, नन्हें जीवों का फुदकना, मचलना, कुलाचें भरना सबमें काम की क्रीडा उल्लास की ही प्रेरणाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। किशोर वय में वह उभार, उफान के रूप में प्रकट होकर शरीर में नये परिवर्तनों के रूप में लड़के और लड़कियों में विभिन्न शारीरिक, मानसिक उभारों में अपना परिचय देता है। युवावस्था में जोश, उमंग और उत्साह दिखायी देता है। वृक्ष वनस्पतियों में जब उभार आता है तो उनमें नई-नई कोपलें निकलती कलियाँ खिलती और पुष्पित होकर उनकी शोभा बढ़ाती है।

जीव-जन्तु भी यौवन आते ही सहचर की खोज में निकल पड़ते हैं और साथी मिलते ही परस्पर आबद्ध हो जाते हैं। सन्तानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। किशोर वय में लड़के, लड़कियों के बीच स्वाभाविक आकर्षण होता है। जिसकी परिणति आगे चलकर दांपत्ति सूत्रों में होती है। नर-नारी आदान-प्रदान द्वारा संतानोत्पत्ति की ओर अग्रसर होते हैं। बनने और बढ़ने वाले इस नये परिवार की व्यवस्था जुटाने में उनकी अधिकाँश क्षमताएँ खप जाती है, यह काम बीज की ही परिणति है जो विशाल वट वृक्ष की तरह विस्तारित होकर विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ती है।

काम को हेय और घृणित तब माना जाता है जब वह यौनाचार के संकीर्ण अर्थों में प्रयुक्त होता है और उसे वासना तृप्ति का एकमात्र आधार समझ कर असामाजिक, अनैतिक एवं अमर्यादित रूप में क्रियान्वित किया जाता है। प्रकृति प्रेरणा से मनुष्य ही नहीं, अन्याय जीव जन्तुओं में भी यह प्रक्रिया अपने आप चलती रहती है। मनुष्य भी यदि काम जैसी सृजनात्मक शक्ति को यौन सन्तुष्टि और प्रजनन तक सीमित रखता है तो उसमें और अन्य जीव जन्तुओं में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता और तब काम जैसी महाशक्ति की वह गरिमा नहीं रहती जो शास्त्रों में वर्णित है-जिसकी स्तुति अभ्यर्थना की गई है।

‘सेक्स’ शब्द जिन अर्थों में प्रयुक्त है वह काम का स्थूल धरातल है। काम की परिष्कृत धारा प्रेम है। शौर्य, साहस पराक्रम, जीवट, उत्साह और उमंग उसकी ही विभिन्न भौतिक विशेषताएँ है। उत्कृष्ट विशेषताएँ उदात्त भाव सम्वेदनाएँ काम की आध्यात्मिक विशेषताएँ हैं। सेक्स के इंद्रियां धरातल से उठकर प्रेम और भाव सम्वेदनाओं के विस्तृत क्षेत्र में पहुँचना ही काम का परम लक्ष्य है। इन्द्रिय सीमा में लिप्त काम अतृप्ति और अशान्ति को ही जन्म देता है। पवित्र प्रेम में परिवर्तित होकर सन्तोष और दिव्य आनन्द का कारण बनता है।

शरीर, मन और बुद्धि तीनों में ही काम शक्ति क्रियाशील है। संयम और उर्ध्वगमन की साधना द्वारा ‘काम’ का रूपांतरण होता है। रूपांतरण का अर्थ है सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उल्लास का समावेश हो जाना।

प्रायः समझा यह जाता है कि दांपत्ति-जीवन में काम सेवन अनिवार्य है और इसके बिना पति-पत्नि के बीच प्रेम और घनिष्ठता स्थापित नहीं हो सकती। यह मान्यता निराधार है। कितने ही महापुरुष ऐसे हुए हैं जो आजीवन ब्रह्मचारी रहे और उनका दांपत्ति-जीवन अन्य व्यक्तियों की तुलना में कहीं अधिक सुखी, सन्तुष्ट सरस और आनन्ददायक बना रहा। महात्मा गाँधी ने 32 वर्ष की अवधि में ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया और आजीवन उस व्रत का पालन किया। इससे कस्तूरबा और उनके बीच घनिष्ठता घटी नहीं बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। शारदामणि के साथ जीवन पर्यन्त साथ रहते हुये भी रामकृष्ण परमहंस आजीवन ब्रह्मचारी रहे। उन दोनों के बीच जो माधुर्य प्रेम और आत्मीयता थी वह देखते बनती थी।

काम के संयम का अर्थ हैं - उसे रचनात्मक दिशा देना। दमन से तो विकृति उत्पन्न होती और अनेकानेक मनोरोगों को जन्म देती है। नदियों की प्रचण्डधारा को मोड़कर बाँध बनाया, विद्युत उत्पन्न किया जाता है। छोटी-बड़ी नहरों में छोड़कर खेतों को सींचने का काम लिया जाता है। उस धारा को रोक दिया जाय और दिशा न दी जाय तो पानी फूट-फूटकर बह निकलेगा और समीपवर्ती क्षेत्र की आप्लावित कर देगा। ‘काम’ के साथ भी यही बात लागू होती है।

वैचारिक और भावनात्मक क्षेत्र में काम शक्ति का नियोजन कर क्षणिक इन्द्रिय तुष्टि की तुलना में कहीं उच्चस्तरीय और स्थायी आनन्द की अनुभूति की जा सकती है। कवि, कलाकार साहित्यकार संगीतज्ञ प्रायः अपनी ही धुन और मस्ती में खोये रहते हैं। इन्द्रियों के स्थूल धरातल से वे ऊपर उठे होते हैं। कला, साहित्य, संगीत, कविता जब साधना का अंग बन जाती है तो उसमें होने वाली रसानुभूति की तुलना में काम सेवन तुच्छ और हेय जान पड़ता है।

ललित कलाओं में गायन विद्या सर्वश्रेष्ठ है। इसमें भावों के प्रवाहित होने के लिए ऊँचे और सरस क्षेत्र मिल जाने से काम का स्थूल आवेश समाप्त हो जाता है। बुद्धि क्षेत्र में उच्चस्तरीय दार्शनिक विचारों का चिन्तन-मनन काम परिष्कार का सशक्त माध्यम है। बुद्धि और भाव के क्षेत्र में काम की शक्तिधारा परिष्कृत और परिशोधित होकर प्रवाहित होने पर उनमें उत्कृष्ट विचारों और उदात्त भावों से भर देती है। शरीर के स्थूल केंद्रों की ओर उसका प्रवाह अपने-आप कम होता जाता है। फलतः कामोद्वेग नहीं रहता।

काम की चरम परिणति ईश्वर प्रेम के रूप में होती है। भक्त भगवान के बीच भाव-तादात्म्य घनिष्ठता आत्मीयता, सरसता की एकरूपता स्थापित हो जाने से दिव्य आनन्द की निर्झरिणी प्रवाहित होने लगती है जिसके समक्ष सभी साँसारिक सुख निस्सार जान पड़ते हैं। इसे ही काम बीज का ज्ञान बीज में उत्कर्ष कहते हैं। यही है काम का परम लक्ष्य।


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