नारी के गले में पराधीनता की नई फाँसी

October 1971

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आँख उठाकर मोटी दृष्टि से देखने पर ऊपर आसमान में एक नीली सी चादर तनी दिखती है उसमें कुछ जुगनू जैसे चाँद सितारे टँके चमकते दृष्टिगोचर होते हैं। मोटी दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्य भी इसी प्रकार छोटे-मोटे हलके-फुलके प्रतीत होते हैं, पर यदि गम्भीरतापूर्वक देखा और बारीकी में उतारा जाय तो कितनी ही रहस्यमय परतें खुलती चली जाती हैं और उथली दृष्टि से जो सामान्य जैसा प्रतीत होता था वह अत्यन्त महत्वपूर्ण लगने लगता है।

आकाश को रात में देखने पर एक धुँधली सी सफेद बदली सिर के ऊपर दीखती है। दादी अपने नाती-पोते पोतियों को उसे ‘हाथी की सड़क’ बताती और कहती है कि आधी रात इस पर होकर इन्द्र राजा का हाथी गुजरता है। यह बदली हमारी आकाश गंगा है। उसी की बेटी वह देवयानी निहारिका है जिसमें हमारा सौर-मण्डल एक कोने में बैठा-बैठा दिन काटता और चरखा चलाता है। लटकते हुए सितारे वस्तुतः अपने सूर्य के भाई बन्धु हैं। दूरी इतनी अधिक है कि उसके मीलों की गणना करते-करते सिर चकराने लगे।

इस संदर्भ में प्रश्न उठता है कि यह विश्व ब्रह्मांड आखिर बना कैसे ? जब यह नहीं बना था तब क्या स्थिति थी। क्या प्राणियों की तरह यह ब्रह्माण्ड भी जन्मता, बढ़ता और मरता है। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करते हुए संक्षेप में इस सृष्टि की जन्मपत्री पढ़नी और उसकी ग्रह दशा देखनी चाहिए।

बीसवीं सदी में भौतिक (फिजिक्स) के क्षेत्र में असाधारण प्रगति हुई है। खगोल विज्ञानियों ने भौतिकी के कुछ सिद्धान्तों एवं उपकरणों का प्रयोग खगोल-विज्ञान में किया फलस्वरूप ‘खगोल भौतिकी’ नामक विज्ञान की एक नई शाखा का उदय हुआ। खगोल भौतिकी से खगोल विज्ञान की जानकारियों एवं गवेषणाओं में महत्वपूर्ण योगदान मिला है।

ई.पी. हब्बल ने 1942 में ‘साइन्स इन प्रोग्रेस’ की तीसरी सिरीज के “दी प्रोबलम ऑफ एक्सपेन्डिग यूनीवर्स” नामक लेख में लिखा है कि “यह ब्रह्माण्ड लगभग शून्य है। ब्रह्माण्ड के महाशून्य में भौतिक पदार्थ पिण्ड बहुत दूर-दूर फैले हुए है। ब्रह्माण्ड के महाशून्य की तुलना में स्थूल भौतिक पदार्थ अत्यन्त न्यून परिणाम में है।

पहले खगोल विज्ञानियों की मान्यता थी कि सूर्य ब्रह्माण्ड का केन्द्र हैं, परन्तु खगोल भौतिकी के अनुसन्धानों से पता चला कि हमारा सूर्य तो एक छोटा सा नक्षत्र है। ऐसे अरबों-खरबों सौर मण्डल एक निहारिका (नेबुला) के अंतर्गत हैं। अपना सौर-मण्डल जिस निहारिका का सदस्य है उसे ‘देवयानी’ नाम दिया गया है। कई अरब निहारिकाओं का समुच्चय आकाश गंगा (मिल्की वे या गैलेक्सी) कहा जाता है। ब्रह्माण्ड में असंख्यों आकाश गंगाएँ हैं। अपनी ‘देवयानी’ निहारिका मन्दाकिनी आकाश गंगा की एक निहारिका है। लगभग 20 हजार निहारिकाओं के अस्तित्व के बारे में स्पष्ट पता चला है। हब्बल महोदय के अनुमान के अनुसार निहारिकाओं की संख्या इसके अतिरिक्त और दस गुनी होगी। उन्होंने अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से यह प्रामाणित किया कि ब्रह्माण्ड फैलता जा रहा है, निहारिकाएं एक-दूसरे से दूर हटती जा रही है।

हमारी आकाश गंगा (गैलेक्सी या मिल्की वे) मन्दाकिनी का व्यास आर.ए. लिटलटन की “दी माडर्न यूनीवर्स” के अनुसार एक लाख प्रकाश वर्ष है। प्रकाश की चाल 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है। इस गति को 1 वर्ष कहा जाता है। ब्रह्माण्ड की विशालता की कल्पना से मानवीय बुद्धि हतप्रभ रह जाती है।

वी.जे. बाक और पी.एफ. बाक की “दी मिल्की वे” के अनुसार अपनी आकाश गंगा (मिल्की वे) में लगभग 1000 हजार खरब नक्षत्र हैं। मन्दाकिनी मिल्कीवे की निकटवर्ती गैलेक्सी को एन्ड्रमेडा कहा जाता है। इसका आकार भी हमारी गैलेक्सी के लगभग बराबर हैं।

“दी माडर्न यूनीवर्स” नामक पुस्तक में आर.ए. लिटलटन ने उल्लेख किया है कि खगोल भौतिकीविदों के अनुसार ब्रह्माण्ड में लाखों गैलेक्सी विद्यमान हैं। मानव-निरीक्षण सीमा से परे भी गैलेक्सियाँ है उनको किसी भी उपाय से जाना नहीं जा सकता क्योंकि उनकी गति निरन्तर बढ़ती जाती है और अन्ततः उनका वेग प्रकाश के वेग से अधिक हो जाता है, तब वे अदृश्य हो जाती हैं। ब्रह्माण्ड सतत् फैलता बढ़ता जा रहा है।

वीलेन डी. सिट्टेर ने “थ्योरीज ऑफ दी यूनीवर्स” में बताया है कि ब्रह्माण्ड शून्य है उसमें भौतिक पदार्थ नगण्य हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि शून्य की तुलना में भौतिक पदार्थ द्वारा घेरा हुआ अवकाश अत्यल्प है इसलिए ब्रह्माण्ड का घनत्व समग्र भौतिक पदार्थ के घनत्व की अपेक्षा लाखों गुना कम है। उसके अनुसार गैलेक्सियाँ निरन्तर और तेजी से एक दूसरे से दूर भाग रही है।

ए.एस. एडिंगटन ने “दी एक्सपेन्डिग यूनीवर्स” एवं जी.जे. ह्नीट्रो ने “दी स्ट्रक्चर ऑफ दी यूनीवर्स” वीलेन डी. सिट्टेर के ब्रह्माण्डीय मॉडल का समर्थन किया है।

“दी न्यू पाथवेज ऑफ साइन्स” में ए.एस. एडिंगटन महोदय ने भौतिक तन्त्र और विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में गहरा संपर्क बतलाया है। उन्होंने भी ब्रह्माण्डीय प्रसार के सिद्धान्त को स्वीकारा है।

“दी क्रीएशन आँव दी यूनीवर्स” में जी. गैमो ने उल्लेख किया है कि खरबों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड में भौतिक पदार्थ बहुत ही संपीड़ित अवस्था में था और उसका निरन्तर क्रम विकास हो रहा है। उनके अनुसार ब्रह्माण्ड का फैलाव सदैव होता रहेगा। उसकी कोई सीमा रेखा नहीं है वह अनन्तदिक तक फैलता ही रहेगा।

“दी थ्यौरीज आँव कास्मोलाजी” लेख में एच. ब्रोण्डी ने उल्लेख किया है कि एक ओर तो गैलेक्सियाँ एक दूसरे से दूर हटती जा रही है और अन्त में अदृश्य होती जा रही है, दूसरी ओर भौतिक पदार्थ की निरन्तर रचना हो रही है जिससे नयी गैलेक्सियों का निर्माण भी हो रहा है। इस कारण ब्रह्माण्ड में भौतिक पदार्थ का अस्तित्व सदा बना रहेगा, ब्रोण्डी महोदय ने गैलेक्सियों की तुलना मनुष्यों एवं जीवधारियों से की है। जिस प्रकार कुछ व्यक्ति मरते हैं और अन्य नये जन्म लेते हैं, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में कुछ आकाश गंगाएँ (गैलेक्सियाँ) दूर जाते-जाते अदृश्य हो जाती हैं और उसके स्थान पर नीय गैलेक्सियों की उत्पत्ति होती रहती है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड में गैलेक्सियों की संख्या सदा लगभग एक-सी रहती है। डी.डब्ल्यू. स्कियामा ने भी अपने “इबोल्यूशनरी प्रोसेस इन कास्मोलॉजी” नामक लेख में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है कि ब्रह्माण्ड में गैलेक्सियाँ पहले भी विद्यमान थीं और भविष्य में भी बनीं रहेंगी, ब्रह्माण्ड कभी भी गैलेक्सियों से रिक्त नहीं होगा।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि हमारे विश्व-ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त एक और भी जगत है जो भौतिक पदार्थों के विपरीत तत्वों से बना हुआ है। भौतिक तत्वों से विनिर्मित अपने जगत को - ‘कॉसमॉस’ कहा जाता है तथा विपरित तत्वों या प्रति पदार्थ से बने जगत को ‘एन्टी कॉसमॉस’ नाम दिया गया है।

काल गणना के सामान्य माप दण्ड चार हैं दिन, सप्ताह, मास एवं वर्ष। दिन की गणना सूर्यास्त तक के काल से की जाती है। सप्ताह की काल गणना सूर्य का परिभ्रमण करने वाले ग्रहों से संबंधित है। मास, चन्द्र द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा का काल है। वर्ष, सूर्य की पृथ्वी द्वारा परिक्रमा का समय है।

प्रकाश पिंडों को मोटेतौर पर चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - एक सूर्य जिसका प्रकाश इतना तीव्र है कि उसकी उप स्थिति में अन्य प्रकाश पिण्ड दिखाई नहीं पड़ते। पृथ्वी के जितने भाग पर सूर्य का प्रकाश जितने, समय तक रहता है, उसे दिन कहा जाता है। पृथ्वी के ध्रुवों पर प्रायः छह-छह महीने के दिन-रात होते हैं। पृथ्वी की आकृति गोलाकार होने से उसका लगभग आधा भाग ही हर समय सूर्य के सामने रह पाता है। उसी भाग में दिन और शेष में रात्रि रहती है। भूमध्य रेखीय देशों में दिन-रात बराबर होते हैं। चूँकि पृथ्वी 24 घण्टे में अपनी कक्षा पर परिभ्रमण कर लेती हैं। इसलिए प्रायः दिन-रात 24 घण्टे का होता है। सूर्य के अतिरिक्त अन्य प्रकाश पिण्ड रात्रि के समय ही दिखाई पड़ते हैं। रात्रि में दिखाई पड़ने वाले ज्योति पिण्डों में सबसे निकटवर्ती होने के कारण सबसे बड़ा ‘चन्द्रमा’ मालूम होता है। अन्य तारों को एवं तारा गुच्छों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - एक तो वे तारे जो टिमटिमाते हैं - दूसरे वे जो नहीं टिमटिमाते। वस्तुतः वे तारे टिमटिमाते दिखाई पड़ते हैं जो सूर्य के परितः परिभ्रमण नहीं करते। ये तारे सूर्य से छोटे एवं कम प्रकाशवान नहीं हैं, वरन् अनेकों गुना बड़े एवं प्रकाश युक्त हैं, परन्तु सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी से अत्यधिक दूरी पर आकाश में अवस्थित होने के कारण छोटे दिखाई देते हैं।

अवकाश में पृथ्वी जिस मार्ग से सूर्य के चारों ओर घूमती है, उसे 12 भागों में बाँटा गया है। एक भाग को एक राशि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। एक माह में पृथ्वी जितनी दूरी घूम जाती है वह ‘राशि’ कहलाती है। इस क्षेत्र में आने वाले विशिष्ट तारा गुच्छों को 12 विभिन्न नाम दिये गये हैं जिन्हें मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन। चन्द्रमा प्रतिदिन अवकाश में जितना मार्ग तय करता दिखाई देता है, उतने को नक्षत्र कहते हैं, पृथ्वी एक माह में जितना मार्ग तय करती दिखाई देती हैं, चन्द्रमा एक दिन में उससे सवा दो गुना मार्ग तय करता दिखाई पड़ता है। नक्षत्रों की संख्या 28 हैं।

सृष्टि के सृजन और उसके अन्त तक के विनाश का यह संक्षिप्त परिचय है। अभी अपना ब्रह्माण्ड किशोरावस्था में चल रहा है। यौवन और प्रौढ़ता तक पहुँचते-पहुँचते उसमें और भी अधिक वृद्धि होगी और परिपक्वता बढ़ेगी। वह स्थिति भी सदा न रहेगी वह क्रमशः जराजीर्ण होते हुए मरण का वरण करेगा। इसके बाद फिर वही क्रम चलेगा। हर छोटी-बड़ी वस्तु को इसी जन्म-मरण के चक्र में समान रूप से परिभ्रमण करना पड़ता है। कैसी है यह सृष्टा की बाल-क्रीड़ा, जिसमें रहकर वह स्वयं मोद मनाता है और दूसरों को हँसने रोने का खट्टा-मीठा स्वाद चखाता है।


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