मालिकों को जगाओ-प्रजातंत्र को बचाओ-2

October 1971

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समर्थता -वैभव-बड़प्पन तथा साधनों का बाहुल्य होते हुए भी दूरदर्शिता, तेजस्विता एवं साहसिकता के अभाव में हर किसी को पतन, पराभव का सामना करना पड़ सकता है। इस तथ्य को साक्षी वे विशालकाय प्राणी देते हैं जो कभी इस धरती पर छाये हुए थे और जिनकी सामर्थ्य अद्भुत थी।

जीवों के विकास क्रम की आरम्भिक अवधि में महागज, महा सरीसृप एवं महागरुड़, धरती समुद्र एवं आकाश में अपना आधिपत्य जमाये हुए थे। उनके लिए आहार की भी कमी नहीं थी, फिर भी वे अपना अस्तित्व पूरी नहर गंवा बैठे। अब उनके वंशजों तक का अता-पता नहीं मिलता। मात्र उपलब्ध अस्थि पिंजरों से ही उनके अस्तित्व तथा विनाश की जानकारी मिलती है। वैभव की महत्ता तो है किन्तु परिस्थितियों से जूझने की क्षमता भी तो चाहिए ही।

सदियों वर्ष पूर्व धरती पर दानवाकार अत्यन्त बुद्धिशाली डायनोसौर ‘महासरीसृप’ अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गये थे। बुद्धिमान होते हुए भी वे अपनी परम्परा को कायम न रख सके और रहस्यमय ढंग से अचानक विलुप्त हो गये।

साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व आर्कटिक क्षेत्र में ऐसे जीवधारी बहुतायत से पाये जाते थे जो न तो मैमल्स (महागज) और न ही रेप्टाइल्स (सरीसृप) इन्हें ‘डायनोसौर’ कहा जाता था। 50 हजार वर्ष पूर्व जब दीप समूहों के किनारे धीरे-धीरे एक दूसरे से अलग होने लगे तथा पहाड़ियां सिकुड़कर बड़े-बड़े पर्वतों का रूप धारण करने लगीं उसी समय डायनोसौर तेजी से विकसित होकर विश्व के समस्त क्षेत्र में (मात्र अन्टार्कटिका को छोड़कर) फैल गये थे। सैकड़ों फुट लम्बे तथा हजारों टन वजनी ये जीवधारी अपने समय के इतिहास प्रसिद्ध प्राणी थे। इनमें सबसे अधिक विकसित “सोरो निथोइडेस डायनोसौर” थे इन्हें बर्ड लाइक रेप्टाइल्स (महागरुड़) कहा जाता था। इनका मस्तिष्क विकसित, लम्बा तथा चिड़ियों जैसे चोंच-पंख आदि विकसित थे। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एड्रियन जे. डेस्माण्ड के अनुसार ये जन्तु अन्य डायनोसौर से भिन्न एवं अधिक बुद्धिमान थे। इनके पास अपनी सुरक्षा के लिए चिड़ियों जैसी चोंच भी थी। फिर भी नष्ट होने से ये बच नहीं पाये। कुछ इस प्रकार की आपाती घटनाएँ घटित हुई कि डायनोसौर की छोटी बड़ी सभी स्थलीय एवं समुद्री जातियाँ हर प्रकार की जलवायु में रहने वाली जातियाँ विलुप्त हो गयी। किसी भी जीव के आश्चर्यजनक रूप से इस तरह विलुप्त होने की विश्व में यह आश्चर्यजनक घटना है।

डायनोसौर के बारे में प्रारम्भिक मान्यताएँ थीं कि ये जीव दानवाकार भारी भरकम शरीर वाले मन्द बुद्धि कोल्ड ब्लडेड, ओवर इवाल्वड (अति विकसित) तथा अपने लिए स्वयं भारभूत थे। शरीर के अनुपात में मस्तिष्क छोटा होने के कारण अपनी रक्षा करने में ये प्राणी असफल रहे। आठ टन वजन वाला टाइनोसोर्स अपनी दो टांगों पर चलता था। जबकि 50 टन वजनी ‘ब्रोन्टोसोरस’ जमीन से सटकर चलता था। अतः यह स्वीकारा जाने लगा है कि डायनोसौर गर्म रक्त वाले प्राणी होने चाहिए। इनमें से अधिकाँश बहुत ही बुद्धिमान एवं उच्च विकसित कोटि के प्राणी थे।

डायनोसौर भारी भरकम काया होने के कारण विकास की चरम सीमा को प्राप्त कर अचानक गायब हो गये। वातावरण में एकाएक परिवर्तन तथा पर्वतों के सिमटने के कारण ये जीव स्वयं को परिवर्तन के अनुकूल ढाल नहीं पाये। वस्तुतः अस्तित्व का मूल-मंत्र शारीरिक विकास नहीं-बड़ा शक्तिशाली होना नहीं-तेजस्वी होना है। शरीर विशाल होते हुए भी अन्दर परिस्थितियों से मोर्चा लेने की क्षमता न हो तो वह सामर्थ्य किस काम की। पुरुषार्थ किया जाय, पर साहस वर्धन - तेजस् वृद्धि की दृष्टि से, न कि शरीर-बल बढ़ाने के लिये।


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