॥ शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र॥
शिव पञ्चाक्षर मंत्र है 'नमः शिवाय'। इस स्तोत्र के पाँचों पद क्रमशः पञ्चाक्षर मंत्र के एक एक अक्षर से प्रारम्भ होने वाले भगवान् शिव के सम्बोधनों से युक्त हैं, पर प्रचलित पञ्चाक्षर स्तोत्र में कही कमियाँ भाषित होती थीं, जैसे सम्बद्ध अक्षर वाले शिव के सम्बोधन हर पद में कम ही थे, गण दोष के कारण गायन में लय भी बाधित होती थी। उन कमियों को दूर करते हुए यह स्तोत्र 'वेद विभाग, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, गायत्रीकुञ्ज- शान्तिकुञ्ज' ने प्रस्तुत किया है। आशा है, यह स्तोत्र शिव भक्तों को रुचेगा।
नागेन्द्रहाराय नगेश्वराय, न्यग्रोधरूपाय नटेश्वराय।
नित्याय नाथाय निजेश्वराय, तस्मै 'न' काराय नमः शिवाय॥ १॥
मृत्युञ्जयायादि- महेश्वराय, मखान्तकायागमवन्दिताय।
मत्स्येन्द्रनाथाय महीधराय, तस्मै 'म' काराय नमः शिवाय॥ २॥
शिवाय सौराष्ट्रशुभेश्वराय, श्रीसोमनाथाय शिवाप्रियाय।
शान्ताय सत्यं शशिशेखराय,तस्मै 'शि' काराय नमः शिवाय॥ ३॥
वेदाय विश्वार्चनवेङ्कटाय, विश्वाय विष्णोरपिवन्दिताय।
व्यालाय व्याघ्राय वृषध्वजाय, तस्मै 'व' काराय नमः शिवाय॥ ४॥
यज्ञस्वरूपाय युगेश्वराय, योगीन्द्रनाथाय यमान्तकाय।
यूनां यविष्ठाय यतीश्वराय, तस्मै 'य' काराय नमः शिवाय॥ ५॥
॥ श्रीमहाकालाष्टकम्॥
असम्भवं सम्भव- कर्तुमुद्यतं, प्रचण्ड- झञ्झावृतिरोधसक्षमम्।
युगस्य निर्माणकृते समुद्यतं, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ १॥
यदा धरायामशान्तिः प्रवृद्धा, तदा च तस्यां शान्तिं प्रवर्धितुम्।
विनिर्मितं शान्तिकुञ्जाख्यतीर्थकं, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ २॥
अनाद्यनन्तं परमं महीयसं, विभोःस्वरूपं परिचाययन्मुहुः।
युगानुरूपं च पथं व्यदर्शयत्, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ ३॥
उपेक्षिता यज्ञमहादिकाः क्रियाः, विलुप्ताप्रायं खलु सान्ध्यमाह्निकम्।
समुद्धृतं येन जगद्धिताय वै, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ ४॥
तिरस्कृतं विस्मृतमप्युपेक्षितं, आरोग्यवाहं यजनं प्रचारितुम्।
कलौ कृतं यो रचितुं समुद्यतः, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ ५॥
तपः कृतं येन जगद्धिताय वै, विभीषिकायाश्च जगन्नु रक्षितुम्।
समुज्ज्वला यस्य भविष्य- घोषणा, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ ६॥
उदार- नम्रं हृदयं नु यस्य यत्, तथैव तीक्ष्णं गहनं च चिन्तनम्।
ऋषेश्चरित्रं परमं पवित्रकं, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ ७॥
जनेषु देवत्ववृतिं प्रवर्द्धितुं, नभोधरायाञ्च विधातुमक्षयम्।
युगस्य निर्माण कृता च योजना, परं महाकालममुं नमाम्यहम्॥ ८॥
यः पठेच्चिन्तयेच्चापि, महाकाल- स्वरूपकम्।
लभेत परमां प्रीतिं, महाकालकृपादृशा॥ ९॥
॥ श्री महाकालाष्टक॥ (पद्यानुवाद)
असम्भव पराक्रम के हेतु तत्पर, विध्वंस का जो करता दलन है।
नवयुग सृजन पुण्य सङ्कल्प जिनका, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ १॥
भू पर भरी भ्रान्ति की आग के बीच, जो शक्ति के तत्त्व करता चयन है।
विकसित किये शान्तिकुञ्जादि युगतीर्थ, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ २॥
अनादि अनुपम अनश्वर अगोचर, जिनका सभी भाँति अनुभव कठिन है।
युग शक्ति का बोध सबको कराया, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ ३॥
विस्मृत- उपेक्षित पड़ी साधना का, जिनने किया जागरण- उन्नयन है।
घर- घर प्रतिष्ठित हुईं वेदमाता, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ ४॥
यज्ञीय विज्ञान, यज्ञीय जीवन, जो सृष्टि- पोषक दिव्याचरण है।
उसको उबारा प्रतिष्ठित बनाया, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ ५॥
मनुष्यता के दुःख दूर करने, तपकर कमाया परम पुण्य धन है।
उज्ज्वल भविष्यत् की घोषणा की, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ ६॥
अनीति भञ्जक शुभ कोप जिनका, शुभ ज्ञानयुत श्रेष्ठ चिन्तन गहन है।
ऋषि कल्प जीवन जिनका परिष्कृत, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ ७॥
देवत्व मानव- मन में जगाकर, सङ्कल्प भू पर अमरपुर सृजन है।
युग की सृजन योजना के प्रणेता, ऐसे महाकाल को नित नमन है॥ ८॥
महाकालकीप्रेरणा, श्रद्धायुतचितलाय।
नरपावे सद्गति परं,त्रिविधताप मिट जायँ॥ ९॥
॥ श्रीरुद्राष्टकम्॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥ १॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसार सारं नतोऽहम्॥ २॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारुगङ्गा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकण्ठं दयालम्॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्॥
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥ ५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदासज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानन्दसन्दोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥ ६॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणाम्॥
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं, विप्रेणहरतुष्टये।
ये पठन्तिनराभक्त्या,तेषां शम्भुःप्रसीदति॥ ९॥