कर्मकांड प्रदीप

जन्मदिवस संस्कार

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जन्मदिन संस्कार यज्ञ के साथ ही मनाया जाना चाहिए। अन्तःकरण को प्रभावित करने की यज्ञ की अपनी क्षमता विशेष है; परन्तु चूँकि इसे जन- जन का आन्दोलन बनाना है, इसलिए यदि परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तो केवल दीपयज्ञ करके भी जन्मदिन संस्कार कराये जा सकते हैं। नीचे लिखी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखी जाएँ। 
  
पञ्च तत्त्व पूजन के लिए चावल की पाँच छोटी ढेरियाँ पूजन वेदी पर बना देनी चाहिए। पाँच तत्त्वों के लिए पाँच रङ्ग के चावल भी रँगकर अलग- अलग छोटी डिबियों या पुड़ियों में रखे जा सकते हैं। उनकी रङ्गीन ढेरियाँ लगा देने से शोभा और भी अच्छी बन जाती है। 
तत्त्वों के क्रम और रङ्ग इस प्रकार हैं-

१. पृथ्वी- हरा, 
२.वरुण- काला, 
३. अग्नि- लाल, 
४. वायु- पीला और 
 ५. आकाश- सफेद। इसी क्रम से ढेरियाँ लगाकर रखनी चाहिए।

दीपदान- जन्मोत्सव के लिए दीपक बनाकर रखें जाएँ। जितने वर्ष पूरे किये हों, उतने छोटे दीपक तथा नये वर्ष का थोड़ा बड़ा दीपक बनाया जाए। दीपक आटे के भी बनाये जा सकते हैं और मिट्टी के भी रखे जा सकते हैं। अभाव में मोमबत्तियों के टुकड़े भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं, उन्हें थाली या ट्रे में सुन्दर आकारों में सजाकर रखना चाहिए। व्रत धारण में क्या व्रत लिया जाना है? इसकी चर्चा पहले से ही कर लेनी चाहिए।
  
॥ विशेष कर्मकाण्ड॥ 
अन्य संस्कारों की तरह मङ्गलाचरण से रक्षाविधान (पृष्ठ.२४-७८) तक के उपचार पूरे किये जाएँ। इसके बाद क्रमशः ये कर्मकाण्ड कराये जाएँ। 
  
॥ पञ्चतत्त्व पूजन॥

क्रिया और भावना- 
हाथ में अक्षत- पुष्प लेकर सूत्र दुहरायें-

ॐ श्रेयसां पथे चरिष्यामि। 
(जीवन को कल्याणकारी मार्ग पर चलायेंगे।)

प्रत्येक तत्त्व के पूजन के पूर्व उसकी प्रेरणाएँ उभारी जाएँ। हाथ में अक्षत, पुष्प देकर मन्त्रोच्चार के साथ सम्बन्धित प्रतीक पर अर्पित कराएँ। भावना की जाए कि सृष्टि रचना के इन घटकों के अन्दर जो सूक्ष्म संस्कार हैं, वे पूजन के द्वारा साधक को प्राप्त हो रहे हैं।

पृथ्वी- पृथ्वी माता हमें उर्वरता और सहनशीलता दें।

ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥ 
 ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -८.३२ 
  
जल- वरुण देवता हमें शीतलता और सरसता दें।

ॐ तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानः तदा
 शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश* स मा नऽ आयुः प्रमोषीः॥ 
ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१८.४९ 

अग्नि- अग्नि देवता हमें तेजस् और वर्चस् प्रदान करें।

ॐ त्वं नोऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो 
  विश्वा द्वेषा* सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥ 
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -२१.३ 

वायु- वायु देवता हमें गतिशीलता और जीवनी शक्ति प्रदान करें। 

ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर* सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम्। 
वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥ 
ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।- २७.२८ 

आकाश- आकाश देवता हमें उदात्त और महान् बनायें।

ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपयामगृहीतोऽस्यश्विभ्यां, त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा॥ 
ॐ आकाशाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।- ७.११ 

॥ दीपदान॥

क्रिया और भावना- थाली में सजाये दीपकों को क्रमशः प्रज्वलित किया जाए। भावना की जाए कि मनुष्य कितने भी कम साधनों में जी रहा हो, छोटे से नाचीज दीपक की तरह सबका प्रिय प्रकाशदाता बन सकता है। छोटी- सी पात्रता, थोड़ा- सा स्नेह और जरा- सी वर्तिका (लगन) को ठीक क्रम से सजाकर ज्योतिदान प्राप्त कर सकता है। ज्योतित जीवन की कामना, प्रार्थना करते हुए दिव्य शक्तियों द्वारा उसकी पूर्ति की भावना की जानी चाहिए।

सूत्र दुहरायें-

ॐ परमार्थमेव स्वार्थ मनिष्ये। (परमार्थ को ही स्वार्थ मानेंगे।)

भावसूत्र- 
(क) दीपक की तरह हमें अखण्ड पात्रता प्राप्त हो। 
(ख) हमें अक्षय स्नेह की प्राप्ति हो। 
(ग) हमारी निष्ठा उर्ध्वमुखी हो।

ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। 
अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।
ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा। -३.९ 

॥ व्रतधारण॥ 
अगला क्रम जन्मोत्सव का व्रत धारण है। व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष्य की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है। मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में- अग्नि की साक्षी में व्रतधारण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए साहस एकत्रित करना चाहिए। 
  
शिक्षण एवं प्रेरणा- दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है। मांसाहार, तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन; व्यभिचार, चोरी, बेईमानी, जुआ, फैशन- परस्ती, आलस्य, गन्दगी, क्रोध, चटोरापन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईर्ष्या, द्वेष, कृतघ्नता आदि बुराइयों को जो अपने में विद्यमान हों, उन्हें छोड़ना चाहिए। कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं, जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं। 
  
किसी वंश में जन्म लेने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अनाधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली जलाना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पशुबलि, भूत- पलीत, टोना- टोटका, अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, गाली- गलौज की असभ्यता, बाल- विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं। इन मान्यताओं के विरुद्ध- विद्रोह करने की आवश्यकता है। इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए। इसी प्रकार अनेक बुराइयाँ हो सकती हैं। उनमें से जो अपने में हों, उन्हें सङ्कल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्मदिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है। 
  
यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, तो अपने में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का व्रत इस अवसर पर ग्रहण करना चाहिए। रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरण स्पर्शपूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययिता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण, दिनचर्या निर्धारण, निरालस्य, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोकसेवा के लिए समयदान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए। 
  
इस प्रकार कम से कम एक अच्छी आदत अपनाने का सङ्कल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उसी अवसर पर छोड़ देनी चाहिए। ये दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्मदिन पर चलता रहे, तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मङ्गलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा। 
  
क्रिया और भावना- 
हाथ में अक्षत- पुष्प लेकर सूत्र दुहरायें-

ॐ महत्त्वाकांक्षां सीमितं विधास्यामि।

(हम महत्त्वाकांक्षाओं को संयमित रखेंगे।) लिये गये व्रतों की घोषणा की जाए। उनका स्मरण रखते हुए व्रतपति देवशक्तियों से उनकी वृत्ति एवं शक्ति सहित मार्गदर्शन की याचना करें। दोनों हाथ उठाकर व्रतधारण करें। एक देवता का मन्त्र पूरा होने पर हाथ जोड़कर नमस्कार करें, फिर पहले जैसी मुद्रा बना लें। 

ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। 
तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ अग्नये नमः॥ १॥ 

ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। 
तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ वायवे नमः॥ २॥ 

ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। 
तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ सूर्याय नमः॥ ३॥ 
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। 
तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ चन्द्राय नमः॥ ४॥ 

ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। 
तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ इन्द्राय नमः॥ ५॥ -- मं०ब्रा०१.६.९ 

॥ विशेष आहुति॥

व्रत धारण के बाद यज्ञादि क्रम से पूरे किये जाएँ। गायत्री मन्त्र की आहुति के बाद महामृत्युञ्जय मन्त्र की आहुतियाँ दी जाएँ। 

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्। 
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् स्वाहा॥ 
इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम। -३.६०, ऋग्वेद ७.५९.१२ 

इसके बाद यज्ञ के शेष उपचार से पूरा करके आशीर्वाद आदि के साथ समापन किया जाए। 
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