कर्मकांड प्रदीप

त्रिदेव पूजन

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१- आद्यशक्ति गायत्री-
भारतीय संस्कृति- देवसंस्कृति की जननी गायत्री, जिन्हें वेदमाता, देवमाता एवं विश्वमाता के नाम से भी जानते हैं, सद्भाव एवं सद्विचारों का उभार- उन्नयन इन्हीं की कृपा से, इनसे सम्बन्धित गुह्य सूत्रों को धारण करने से सम्भव होता है। अनास्था असुर के सर्वव्यापी अस्तित्व को यही असुर निकन्दिनी, महाप्रज्ञा के रूप में समाप्त करेगी। 

२- यज्ञ भगवान्-
यह सृष्टि यज्ञमय है। ईश्वरीय अनुशासन से चलने वाले आदान- प्रदान के क्रम को यज्ञ कहा जाता है। इसीलिए इसे देव धर्म का जनक कहा गया है। यज्ञीय भाव की स्थापना से ही कर्म और व्यवहार में से अधोगामी प्रवृत्ति समाप्त होकर श्रेष्ठता की ऊर्ध्वगामी प्रवृत्तियों का विकास होगा। इसी आधार पर नवयुग की स्थापना सम्भव होगी। 

३- ज्योतिपुरुष-
युग शक्ति निष्कलङ्क अवतार के लीला- सन्दोह का प्रतीक जनशक्ति युक्त मशाल का चिह्न है। दिव्य संरक्षण और अनुशासन  में जन समर्थित प्रचण्ड शक्ति का प्रवाह उदय होता है। अवाञ्छनीयता के निवारण और वाञ्छनीयता की स्थापना में असम्भव को सम्भव यही बनाएगी। ध्वंस और सृजन की, गलाई और ढलाई की संयुक्त प्रक्रिया इसी के द्वारा सञ्चालित होगी। 
क्रिया और भावना- हाथ में जल, पुष्प, अक्षत लेकर भावनापूर्वक मन्त्रोच्चार के साथ पूजन वेदी पर क्रमशः अर्पित करें। 

१- गायत्री 
ॐ गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् पङ्क्त्या सह। 
बृहत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥ 
ॐ गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२३.३३

अर्थात्- हे अश्व (यज्ञाग्ने)! गायत्री छन्द, त्रिष्टुप् छन्द, जगती छन्द, अनुष्टुप् छन्द, पंक्ति छन्द सहित बृहती छन्द, उष्णिक् छन्द, एवं ककुप् छन्द आदि सूचियों के माध्यम से आपको शान्त करें। 

२- यज्ञपुरुष 
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः। 
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥-३१.१६

अर्थात्- आदिकालीन श्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ द्वारा यज्ञ रूप विराट् का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले (याजक) पूर्वकाल के सिद्ध- साध्यगणों तथा देवताओं के निवास महिमाशाली स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। 

३- ज्योतिपुरुष 
ॐ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥ 
 ॐ ज्योतिपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.३६,

अर्थात्- दिव्य गुणों से युक्त हे अग्निदेव! आप सम्पूर्ण मार्गों को जानते हुए हम याजकों को यज्ञ फल प्राप्त करने के लिए सन्मार्ग पर ले चलें। हमको कुटिल आचरण करने वाले शत्रुओं तथा पापों से मुक्त करें। हम आपके लिए स्तोत्र एवं नमस्कारों का विधान करते हैं। 
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