कर्मकांड प्रदीप

पञ्चवेदी पूजन

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सूत्र सङ्केत- हमारा शरीर अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश के द्वारा विनिर्मित है। स्वेदज, अण्डज, उद्भिज, जरायुज चार प्रकार के प्राणी और पाँचवें जड़ पदार्थ, यह पञ्चधा प्रकृति भी इन्हीं पाँच देवताओं की प्रतिक्रिया है। जड़- चेतन  इस जगत् के पञ्चधा विश्लेषण को पञ्चदेवों के रूप में माना गया है। पञ्चतत्त्वों को भी उसी श्रेणी में गिना जाता है। इन्हीं से यह जगत् बना है। शरीर से लेकर समस्त दृश्य जड़ जगत् केवल परमाणुओं का बना पदार्थ ही नहीं है, वरन् उसके अन्तराल में दैवी चेतना काम करती है। जड़ में चेतन की भावना- यही अध्यात्मवाद है। चेतन को जड़ मानना, यही भौतिकवाद है। सृष्टि के आधारभूत पञ्चतत्त्वों को अध्यात्म ने चेतन- देवसत्ता से ओत- प्रोत माना है, उसका स्थूल रूप तो कलेवर मात्र है। इस तत्त्व- आत्मा को ही अनुष्ठानों में देवरूप में प्रतिष्ठापित और पूजित किया जाता है। बड़े यज्ञों में कथा, अनुष्ठान, नवरात्र पर्व, संस्कार आदि जहाँ आवश्यक लगे, पञ्चवेदियाँ स्थापित की जा सकती हैं। 

क्रम व्यवस्था- जहाँ स्थापना की जाए, वहाँ चार कोनों पर चार चौकियाँ रखकर उन पर पीले कपड़े बिछाये जाएँ। ऊपर रँगे हुए चावलों के मङ्गल चिह्न युक्त कोष्ठ (वर्ग) बना दिये जाएँ। मध्य में सुसज्जित कलश रखे जाएँ। यह चार तत्त्वों के चार कलश हुए। मध्य पीठ को प्रधान देवता की चौकी को आकाश कलश माना जाए। 

नैऋर्त्य (दक्षिण- पश्चिम दिशा के मध्य) में पृथ्वी वेदी (रङ्ग हरा), ऐशान्य (उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य) में वरुण वेदी (रङ्ग काला), आग्नेय (पूर्व- दक्षिण दिशा के मध्य) में अग्निवेदी (रङ्ग लाल) और वायव्य (पश्चिम- उत्तर दिशा के बीच) में वायु वेदी (रङ्ग पीला) स्थापित की जाती है। 
आकाश का कोई रंग नहीं, उसका प्रतीक सर्वतोभद्रचक्र सब रंगों से मिलाकर बनाया जाता है। यदि सर्वतोभद्रचक्र न बनाना हो, तो उसके स्थान पर आकाश तत्त्व के लिए सफेद चावलों का अन्य तत्त्वों जैसा कोष्ठ बना देना चाहिए। 

क्रिया और भावना- पाँच चौकियों पर स्थापित पाँच कलशों को एक- एक देवता का प्रतीक मानकर प्रत्येक का पूजन गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप  और नैवेद्य इन पाँच वस्तुओं से किया जाए। पाँच देवों के मन्त्र नीचे दिये गये हैं।
  
॥ पृथ्वी॥ 
ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥ 
 ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- ८.३२

अर्थात्- महान् द्युलोक और पृथवीलोक, स्वर्ण- रत्नादि, धन- धान्यों से परिपूर्ण वैभव द्वारा हमारे इस श्रेष्ठ कर्मरूपी यज्ञ को सम्पन्न करें तथा उसे संरक्षित करें। 

॥ वरुण॥ 
ॐ तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानः तदा 
  शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेडमानो वरुणेह बोध्यरुश 
  * स मा न ऽ आयुः प्र मोषीः॥ 
ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। प्र.सं. -१८.४९

अर्थात्- वेद मन्त्रों द्वारा अभिनन्दित हे वरुणदेव! हवियों का दान देकर यजमान लौकिक सुखों की आकांक्षा करता है। हम वेद- वाणियों के ज्ञाता (ब्राह्मण) यजमान की तुष्टि एवं प्रसन्नता के निमित्त स्तुतियों द्वारा आपकी प्रार्थना करते हैं। सबके द्वारा स्तुत्य देव! इस स्थान में आप क्रोध  न करके हमारी प्रार्थना सुनें। हमारी आयु को किसी प्रकार क्षीण न करें। 

॥ अग्नि॥ 
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य 
हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो 
विश्वा द्वेषा * सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्। 
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२१.३ 
  
॥ वायु॥ 
ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर * सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम्।
वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः। 
ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२७.२८ 

॥ आकाश॥ 
ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। 
उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा॥ 
ॐ आकाशाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -७.११ 

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