कर्मकांड प्रदीप

पुरुष सूक्त

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सूत्र सङ्केत-
पुुरुष सूक्त का प्रयोग विशेष पूजन के क्रम में किया जाता है। षोडशोपचार पूजन के एक- एक उपचार के साथ क्रमशः एक- एक मन्त्र बोला जाता है। जहाँ कहीं भी किसी देवशक्ति का पूजन विस्तार से करना हो, तो पुरुष सूक्त के मन्त्रों के साथ षोडशोपचार द्वारा पूजन करा दिया जाता है। पञ्चोपचार पूजन में भी इस सूक्त से सम्बन्धित मन्त्रों का प्रयोग किया जा सकता है। यज्ञादि के विस्तृत देवपूजन में, पर्वों पर, पर्व से सम्बन्धित देव शक्ति के पूजन में बहुधा इसका प्रयोग किया जाता है। वातावरण में पवित्रता और श्रद्धा के सञ्चार के लिए भी पुरुष सूक्त का पाठ सधे हुए कण्ठ वाले व्यक्ति सामूहिक रूप से करते हैं। 

शिक्षण एवं प्रेरणा- 
 पुरुष सूक्त में परमात्मा की विराट् सत्ता का वर्णन किया गया है। उस महत् चेतना के विस्तार के सङ्कल्प से ही इस जड़- चेतन की सृष्टि हुई है। किसी भी प्रतीक देव विग्रह का पूजन करते यही चिन्तन उभरता रहता है कि हम उसी एक विराट्,सनातन, अविनाशी का पूजन कर रहे हैं।  

क्रिया और भावना-
पुरुष सूक्त से पूजन प्रारम्भ करने के पूर्व उपस्थित श्रद्धालुओं को उक्त सिद्धान्त बतलाया जाना चाहिए, ताकि पूजन में उनका भी भाव- संयोग हो सके। यदि सम्भव हो, तो सभी के हाथ में अथवा पूजन वेदी के निकटवर्ती प्रतिनिधियों के हाथ में अक्षत,पुष्प दे देने चाहिए। उसे पूरे पूजन के साथ हाथ में रखें, भाव पूजन में सम्मिलित रहें और वे पुष्पाञ्जलि के साथ उन्हें अर्पित करें। भावना करें कि हमारे पास जो कुछ भी है, उसी का दिया हुआ है। उसके विराट् स्वरूप एवं उद्देश्यों को हम पहचानें और उनके निमित्त अपने साधनों को, क्षमताओं  को अर्पित करते हुए उन्हें सार्थक करें, धन्य बनाएँ। उस सर्वव्यापी को,उसके आदर्शों को हर कदम पर,हर स्तर पर, हर प्रसङ्ग में प्रत्यक्ष की तरह देखते हुए श्रद्धासिक्त होकर पूजन भाव से सक्रिय रहें। उसके दिये साधनों को उसके उद्देश्यों में लगाने में कृपणता न बरतें,उदार भक्ति भावना का परिचय प्रमाण दें। 

पूजन से सम्बन्धित सामग्री हाथ में लेकर मन्त्र बोला जाए। मन्त्र पूरा होने पर जिस देवशक्ति का पूजन है, उसका नाम लेते हुए षोडशोपचार के आधार पर स्थापयामि, समर्पयामि आदि कहते हुए उसे चढ़ाते चलें।

१- आवाहनम् 
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। 
स भूमि * सर्वतस्पृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥

अर्थात्- (जो) सहस्रों सिर वाले, सहस्रों नेत्र वाले और सहस्रों चरण वाले विराट् पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं। 

२- आसनम् 
ॐ पुरुषऽ एवेद * सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्। 
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥

अर्थात्- जो सृष्टि बन चुकी है, जो बनने वाली है, यह सब विराट् पुरुष ही है। इस अमर जीव- जगत् के भी वही स्वामी हैं। जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वही स्वामी हैं। 

३- पाद्यम् 
ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः। 
पादोस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥

अर्थात्- विराट् पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनन्त अन्तरिक्ष में स्थित है। 

४- अर्घ्यम् 
ॐ त्रिपादूर्ध्व ऽ उदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत्पुनः। 
ततो विष्वङ्व्यक्रामत् साशनानशने अभि॥

अर्थात्- चार भागों वाले विराट् पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है और इसके तीन भाग अनन्त अन्तरिक्ष में समाये हुए हैं। 

५- आचमनम् 
ॐ ततो विराडजायत विराजो अधिपूरुषः। 
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः॥

अर्थात्- उस विराट् पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उस विराट् से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया। 

६ -- स्नानम् 
ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः 
  सम्भृतं पृषदाज्यम्। 
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥

अर्थात्- उस सर्वश्रेष्ठ विराट् प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट् पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से सम्बन्धित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट् पुरुष के द्वारा ही हुई। 

७- वस्त्रम् 
ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽ ऋचः सामानि जज्ञिरे। 
छन्दा * सि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत॥

अर्थात्- उस विराट् यज्ञपुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ, अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ। 

८- यज्ञोपवीतम् 
ॐ तस्मादश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाताऽ अजावयः॥

अर्थात्- उस विराट् यज्ञपुरुष से दोनों तरफ दाँत वाले घोड़े हुए और उसी विराट् पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।
  
९- गन्धम् 
ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। 
तेन देवाऽअयजन्त साध्या ऽ ऋषयश्च ये॥ 
  
अर्थात्- मन्त्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए विराट् पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान् ब्रह्माण्ड रूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी परमपुरुष से ही यज्ञ का प्रादुर्भाव किया। 

१०- पुष्पाणि 
ॐ यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। 
मुखं किमस्यासीत्किं बाहू 
किमूरू पादाऽ उच्येते॥

अर्थात्- सङ्कल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट् पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं? उसका मुख क्या है? भुजा, जंघाएँ और पाँव कौन से हैं? शरीर संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना। 

११- धूपम् 
ॐ ब्राह्मणोऽ स्यमुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। 
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या * शूद्रो अजायत॥

अर्थात्- विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण (ज्ञानीजन) हुए, क्षत्रिय (पराक्रमी व्यक्ति), उसके बाहुओं से बने। वैश्य अर्थात् पोषण शक्ति सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघाओं एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैरों से प्रकट हुए। 

१२- दीपम् 
ॐ चन्द्रमा मनसो जातः 
  चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोताद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत॥

अर्थात्- विराट् पुरुष के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कानों से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्राकट्य हुआ है। 

१३- नैवेद्यम् 
ॐ नाभ्याऽ आसीदन्तरिक्ष * शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत। 
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकाँ२ अकल्पयन्।

अर्थात्- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)। 

१४- ताम्बूलपूगीफलानि 
ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। 
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽ इध्मःशरद्धविः।

अर्थात्- जब देवों ने विराट् पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसन्त ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद् ऋतु हुई। 

१५- दक्षिणा 
ॐ सप्तास्यासन्परिधयः त्रिः सप्त समिधः कृताः। 
देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽ अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥

अर्थात्- देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट् पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया)। उसमें यज्ञ की सात परिधियों (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छन्द) समिधाएँ हुईं। 

१६- मन्त्र पुष्पाञ्जलिः 
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः 
 तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
ते ह नाकं महिमानः सचन्त 
 यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥- ३१.१ १-१६

अर्थात्- आदिकालीन श्रेष्ठ धर्म- परायण देवों ने, यज्ञ द्वारा यज्ञ रूप विराट् का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले (याजक) पूर्ण काल के सिद्ध- साध्यगणों तथा देवतओं के निवास महिमाशाली स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।
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