कर्मकांड प्रदीप

अन्नप्राशन संस्कार

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विशेष व्यवस्था- यज्ञ देवपूजन आदि की व्यवस्था के साथ अन्नप्राशन के लिए लिखी व्यवस्था विशेष रूप से बनाकर रखनी चाहिए। 
* अन्नप्राशन के लिए प्रयुक्त होने वाली कटोरी तथा चम्मच। चटाने के लिए चाँदी का चम्मच या उपकरण हो सके, तो अच्छा है। 
* अलग पात्र में बनी हुई चावल या सूजी (रवा) की खीर, शहद, घी, तुलसीदल तथा गङ्गाजल- ये पाँच वस्तुएँ तैयार रखनी चाहिए। 
निर्धारित क्रम में मङ्गलाचरण से लेकर रक्षाविधान तक के क्रम पूरे करके विशेष कर्मकाण्ड कराया जाता है। उसमें- 
(१) पात्रपूजन, (२) अन्न- संस्कार, (३) विशेष आहुति तथा (४) क्षीर (खीर) प्राशन सम्मिलित हैं। 
  
॥ पात्र- पूजन॥ 
क्रिया और भावना- मन्त्रोच्चार के साथ अभिभावक पात्र के बाहर चन्दन, रोली से स्वस्तिक बनाएँ। अक्षत- पुष्प चढ़ाएँ। भावना करें कि पवित्र वातावरण के प्रभाव से पात्रों में दिव्यता की स्थापना की जा रही है, जो बालक के लिए रखे गये अन्न को दिव्यता प्रदान करेगी, उसकी रक्षा करेगी। माता- पिता हाथ में रोली या चन्दन लेकर सूत्र दुहरायें- 
ॐ सुपात्रतां प्रदास्यामि। 
(शिशु में सुपात्रता का विकास करेंगे।) 
मन्त्र- ॐ हिरण्मयेन पात्रेण 
सत्यस्यापिहितं मुखम्। 
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥ -ईशा० उ० १५ 

॥ अन्न संस्कार॥ 
क्रिया और भावना- 
नीचे लिखे मन्त्रों के पाठ के साथ अन्नप्राशन के लिए रखे गये पात्र में एक- एक करके भावनापूर्वक सभी वस्तुएँ डाली- मिलाई जाएँ। पात्र में खीर डालें। मात्रा इतनी लें कि ५ आहुतियाँ देने के बाद भी शिशु को चटाने के लिए कुछ बची रहे। भावना करें कि यह अन्न दिव्य संस्कारों को ग्रहण करके बालक में उन्हें स्थापित करने जा रहा है। प्रतिनिधि खीर के पात्र को हाथ में लें और सूत्र दुहरवायें-

ॐ कुसंस्काराः दूरीभूयासुः। (अन्न के पूर्व कुसंस्कारों का निवारण करते हैं।) 
मन्त्र- ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ 
ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। 
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥- १८.३६

पात्र की खीर के साथ थोड़ा शहद मिलाएँ। भावना करें कि यह मधु उसे सुस्वादु बनाने के साथ- साथ उसमें मधुरता के संस्कार उत्पन्न कर रहा है। इससे शिशु के आचरण, वाणी- व्यवहार सभी में मधुरता बढ़ेगी। सूत्र दुहरायें-

ॐ सुसंस्काराः स्थिरीभूयासुः। 
(इसमें सात्त्विक सुसंस्कारों की स्थापना करते हैं।) 
ॐ मधु वाता ऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥ 
ॐ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव * रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥ 
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ२ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥ -१३.२७- २९ 
पात्र में थोड़ा घी डालें, मन्त्र के साथ मिलाएँ। यह घी रूखापन मिटाकर स्निग्धता देगा। यह पदार्थ बालक के अन्दर शुष्कता का निवारण करके उसके जीवन में स्नेह, स्निग्धता, सरसता का सञ्चार करेगा। 
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः। 
पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा। दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽ 
 उद्दिशो दिग्भ्यःस्वाहा॥- ६.१९

पात्र में तुलसीदल के टुकड़े मन्त्र के साथ डालें। यह ओषधि शारीरिक ही नहीं; वरन् आधिदैविक, आध्यात्मिक रोगों का शमन करने में भी सक्षम है। यह अपनी तरह ईश्वर को समर्पित होने के संस्कार बालक को प्रदान करेगी।

ॐ याऽ ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। 
मनै नु बभ्रूणामह* शतं धामानि सप्त च॥- १२.७५

गङ्गाजल की कुछ बूँदें पात्र में डालकर मिलाएँ। पतितपावनी गङ्गा खाद्य की पापवृत्तियों का हनन करके उसमें पुण्य संवर्द्धन के संस्कार पैदा    कर रही हैं। ऐसी भावना के साथ उसे चम्मच से मिलाकर एक दिल कर दें। जैसे यह सब भिन्न- भिन्न वस्तुएँ एक हो गयीं, उसी प्रकार भिन्न- भिन्न श्रेष्ठ संस्कार बालक को एक समग्र श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करें।

ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः। 
सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥- ३४.११

सभी वस्तुएँ मिलाकर वह मिश्रण पूजा वेदी के सामने संस्कारित होने के लिए रख दिया जाए। इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने तक का क्रम चलाया जाए। 
  
॥ विशेष आहुति॥ 
गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी हो जाने पर पहले तैयार की गयी खीर से ५ आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र के साथ दी जाएँ। भावना की जाए कि वह    खीर इस प्रकार यज्ञ भगवान् का प्रसाद बन रही है।

ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। 
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥ 
इदं वाचे इदं न मम। -ऋ० ८.१००.११ 

॥ अन्नप्राशन॥

आहुतियाँ पूरी होने पर शेष खीर से बच्चे को अन्नप्राशन कराया जाए।

क्रिया और भावना- 
खीर का थोड़ा- सा अंश चम्मच से मन्त्र के साथ बालक को चटा दिया जाए। भावना की जाए कि वह यज्ञावशिष्ट खीर अमृतोपम गुणयुक्त है और बालक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, वैचारिक उत्कृष्टता तथा चारित्रिक प्रामाणिकता का पथ प्रशस्त करेगी।

ॐ अन्नपतेन्नस्य नो 
देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। 
प्रप्रदातारं तारिषऽऊर्जं 
 नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥ -११.८३

इसके बाद स्विष्टकृत् होम से लेकर विसर्जन तक के कर्म पूरे किये जाएँ। विसर्जन के पूर्व बालक को सभी लोग आशीर्वाद दें। 
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