कर्मकांड प्रदीप

पञ्चामृतकरण

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सूत्र सङ्केत-
गौ का महत्त्व ब्राह्मण और माँ के समान कहा गया है। उसके महत्त्व को समझने तथा उसके गुणों का लाभ उठाने के लिए धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ पञ्चामृत पान का क्रम जोड़ा गया है। सामान्य क्रम में पञ्चामृत बनाकर रखा जाता है तथा उसका प्रसाद बनाकर वितरित किया जाता है। जहाँ कहीं उचित और आवश्यक लगे, देव पूजन के साथ पञ्चामृत बनाकर भोग लगाकर पान कराया जाना चाहिए। पञ्चामृत बनाने और पान कराने के मन्त्र एक साथ दिये जा रहे हैं, परन्तु बनाने और पान कराने की क्रियाएँ क्रम- व्यवस्था के अनुसार अलग- अलग समय पर ही कराई जानी चाहिए। 

शिक्षा एवं प्रेरणा- प्रसाद अमृत तुल्य, पौष्टिक और सुसंस्कार देने में समर्थ पदार्थों का ही बनाया जाए। उसे ही प्रभु अर्पित किया जाए और प्रसाद रूप में पान किया जाए। इसके लिए प्रतीक रूप में गोरस लिया जाता है। 

तुलसी, आँवला, पीपल, बेल की तरह गाय में दिव्यता (सतोगुण) की मात्रा अत्यधिक है। गोरस हमारे शरीर को ही नहीं, मन- मस्तिष्क और अन्तःकरण को भी उत्कृष्टता के तत्त्वों से भर देता है। 

गोरस केवल उत्तम आहार ही नहीं, दिव्यगुण सम्पन्न देव प्रसाद भी है। उसकी सात्त्विकता का अनुष्ठानों में समुचित समावेश होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, यज्ञ आहुतियों के लिए गोघृत का प्रबन्ध करना चाहिए। न मिलने पर ही दूसरे घृत काम में लाने चाहिए। इसी प्रकार प्रसाद के रूप में पञ्चामृत को ही उसकी विशेषताओं के कारण उपयोगी मानना चाहिए। सस्ता होने की दृष्टि से भी वह सर्वसुलभ है। उपस्थिति अधिक हो जाने पर जल और शर्करा मिला देने से सहजही बढ़ भी सकता है, यह सुविधा अन्य किसी प्रसाद में नहीं है। गौरक्षा की दृष्टि से यह नितान्त आवश्यक है कि हमारे धर्मानुष्ठानों में गौ रक्षा का महत्त्व जन साधारण गोरस हमारे शरीर को ही नहीं, मन- मस्तिष्क और अन्तःकरण को भी उत्कृष्टता के तत्त्वों से भर देता है। गोरस केवल उत्तम आहार ही नहीं, दिव्यगुण सम्पन्न देव प्रसाद भी है। उसकी सात्त्विकता का अनुष्ठानों में समुचित समावेश होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, यज्ञ आहुतियों के लिए गोघृत का प्रबन्ध करना चाहिए। न मिलने पर ही दूसरे घृत काम में लाने चाहिए। इसी प्रकार प्रसाद के रूप में पञ्चामृत को ही उसकी विशेषताओं के कारण उपयोगी मानना चाहिए। सस्ता होने की दृष्टि से भी वह सर्वसुलभ है। उपस्थिति अधिक हो जाने पर जल और शर्करा मिला देने से सहज ही बढ़ भी सकता है, यह सुविधा अन्य किसी प्रसाद में नहीं है। गौरक्षा की दृष्टि से यह नितान्त आवश्यक है कि हमारे धर्मानुष्ठानों में गौ रक्षा का महत्त्व जन साधारण को विदित होता रहे और उस ओर आज जो उपेक्षा बरती जा रही है, उसका अन्त हो सके। गोरस के उपयोग का प्रचलन करने से ही गौरक्षा, गौ- संवर्धन सम्भव हो सकेगा। 

क्रम व्यवस्था- पञ्चामृत में पाँच वस्तुएँ काम में आती हैं- १. दूध, २. दही, ३.घृत, ४. शहद या शक्कर और ५. तुलसी पत्र। प्राचीन काल में शहद का बाहुल्य था, इसलिए उसे मिलाते थे। आज की परिस्थितियों में शक्कर भी किसी जमाने के शहद से अनेक गुनी महँगी है, अब शक्कर से ही काम चलाना पड़ता है। सम्भव हो सके, तो पाउडर का उपयोग किये बिना, बनने वाली देशी शक्कर (खाण्डसारी) को प्राथमिकता देनी चाहिए। गोरस न मिले, तो ही भैंस का दूध- दही लेना चाहिए। तुलसी पत्र प्रायः हर जगह मिल जाते हैं। धर्मानुष्ठानों पर विश्वास  रखने वालों को उसे अपने घरों में स्थापित करना चाहिए। 

दूध अधिक, दही कम, घी बहुत थोड़ा, शक्कर भी आवश्यकतानुसार यह सब अन्दाज से बना लेना चाहिए। इसका कोई अनुपात निश्चित नहीं किया जा सकता। तुलसी पत्र के महीन टुकड़े करके डालने चाहिए, ताकि कुछ टुकड़े हर किसी के पास जा सकें। जल भी आवश्यकतानुसार  मिलाया जा सकता है। पञ्चामृत की सभी वस्तुएँ अलग- अलग पात्रों में रखी जाएँ। जिस पात्र में पञ्चामृत बनाया जाना है, उसमें एक- एक वस्तु क्रमशः मन्त्रोच्चार के साथ डालें। यज्ञ के अन्त में प्रसाद स्वरूप यह पञ्चामृत दिया जाए। लोग इसे दाहिनी हथेली पर लें। हाथ चिपचिपे हो जाते हैं, इसलिए पास ही बाल्टी- लोटा हाथ धुलाने और हाथ पोंछने के लिए तौलिया भी रखनी चाहिए। 

पात्र में दूध डालने का मन्त्र

ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ  
 ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। 
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -१८.३६

अर्थात्- हे अग्ने! आप इस पृथ्वी पर समस्त पोषक रसों को स्थापित करें। ओषधियों में जीवनरस को स्थापित करें। द्युलोक में दिव्यरस को स्थापित करें। अन्तरिक्ष में श्रेष्ठरस को स्थापित करें। हमारे लिए ये सब दिशाएँ व उपदिशाएँ अभीष्ट रसों को देने वाली हों। 

दही मिलाने का मन्त्र

ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं 
जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। 
सुरभि नो मुखा करत्प्र णऽ आयू * षि तारिषत्। -२३.३२ 
अर्थात्- मनुष्य को धारण करने वाली, तीव्र गतिवाले, सबको जीतने में समर्थ अश्व (यज्ञाग्नि) को हम संस्कारित करते हैं। यह अश्व (अग्नि) इस यज्ञ के प्रभाव से हमारे मुखों को सुरभित करने वाला और आयु को बढ़ाने वाला हो। 

घी मिलाने का मन्त्र

ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा।
दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽ उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा॥ -६.१९

अर्थात्- घृत एवं वसा का सेवन करने वाले पुरुषो! आप इनका उपयोग करें। हे वसा (धन, धान्य, साधनादि) आप अन्तरिक्ष के लिए हवि के रूप में हों, (लोकहित में) हम आहुति देते हैं। सभी दिशाओं, सभी उपदिशाओं, आगे- पीछे ऊपर- नीचे सभी दिशाओं को हम आहुति प्रदान करते हैं। 

शहद मिलाने का मन्त्र

ॐ मधु वाता ऽ ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः। 
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। 
ॐ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव * रजः। मधुद्यौरस्तु नः पिता। 
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः। -१३.२७- २९

अर्थात्- यज्ञ कर्म करने वालों के लिए वायु एवं नदियाँ मधुर प्रवाह पैदा करें। सभी औषधियाँ मधुरता से सम्पन्न हों। पिता की तरह पोषणकर्त्ता दिव्य लोक हमारे लिए माधुर्य- युक्त हों, मातृवत् रक्षक पृथिवी की रज भी मधु के समान आनन्दप्रद हों। सम्पूर्ण वनस्पतियाँ हमारे लिए मधुरता  (आरोग्य) प्रदायक हों। सूर्यदेव हमें अपने माधुर्य (प्राण ऊर्जा) से परिपुष्ट करें तथा गौएँ भी हमारे लिए अमृत स्वरूप मधुर दुग्धरस प्रदान करने में सक्षम हों। 

तुलसी दल मिलाने का मन्त्र

ॐ याऽ ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। 
मनै नु बभ्रूणामह * शतं धामानि सप्त च॥ -१२.७५

अर्थात्- सृष्टि के प्रारम्भ में जो ओषधियाँ देवताओं द्वारा वसन्त, वर्षा, शरद् इन तीनों ऋतुओं में उत्पन्न हुई हैं, पककर पीत वर्ण से युक्त उन सैकड़ों ओषधियों और ब्रीहि- यवादि सप्त धान्यों की सामर्थ्यों का ज्ञान हमें है।

पञ्चामृत पान का मन्त्र

ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां, स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। 
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय, मा गामनागामदितिं वधिष्ट। -ऋ०८.१०१.१५

अर्थात्- हम विद्वान् लोगों से यही कहते हैं कि वे अपराध रहित तथा न मारने योग्य गौओं को न मारें, क्योंकि गौ- रुद्रों की माँ, वसुओं की पुत्री, आदित्य की बहिन तथा अमृत की मूल हैं। 
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