सनातन धर्म में यह भी व्यवस्था है कि कोई व्यक्ति चाहे तो अपने जीवन काल में ही श्राद्ध कर्म को स्वयं सम्पन्न कर सकता है। इस प्रक्रिया को ‘जीवित श्राद्ध’ कहा जाता है। जिन्होंने ‘जीवित श्राद्ध’ कर लिया हो, उनके परिवार वालों को यह छूट रहती है कि चाहे तो आशौच आदि का निर्वाह करें या ना करें। तात्पर्य यह है कि उस परिवार के परिजनो पर आशौच के नियम अनिवार्यतः लागू नही होते। यदि श्रद्धावश वे श्राद्धकर्म आदि करना चाहे तो कर भी सकते हैं। महात्मागांधी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सर सञ्चालक गुरु गोलवरकर जी आदि ने अपना श्राद्धकर्म (जीवित श्राद्ध) स्वयं किया था। शान्तिकुञ्ज द्वारा भी अनेक व्यक्तियों का जीवित श्राद्ध सम्पन्न कराया गया है।
मर्यादाएँ-
प्रत्येक संस्कार की तरह स्व- श्राद्ध की भी कुछ मर्यादाएँ हैं। करने वालों को इन्हें भली प्रकार समझ लेना चाहिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में धर्मविज्ञान के विभागाध्यक्ष महामहोपाध्याय श्री प्रभुदत्त शास्त्री कृत संस्कृत में मुद्रित पुस्तक ‘‘जीविच्छ्राद्ध प्रयोग’’ में उल्लेख है कि यह प्रयोग को किसी भी वर्ण के नर- नारी सम्पन्न कर सकते हैं। जो यह प्रयोग करना चाहें, उन्हें इससे पहले निम्नाङ्कित कार्य कर लेने चाहिए-
- अपनी जानकारी के आधार पर अपने सभी प्रकार के ऋणों से मुक्त हो लें। अपेक्षित लेन- देन पूरा करके, मन हलका कर लें।
- जाने- अनजाने में अपने द्वारा हुए पातकों से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त, गोदान सहित दस महादान आदि सम्पन्न कर लें।
- प्रायश्चित्त के प्रत्यक्ष चरण इस प्रकार हैं-
- अपने जीवन की समीक्षा पूरी ईमानदारी से करें, यदि कहीं किसी का अधिकार छीना हो, किसी को पीड़ा पहुँचाई हो, अनधिकार चेष्टा की हो; तो उसे अपने इष्ट एवं गुरु के सामने निष्कपट भाव से स्वीकार करें।
- जिस स्तर की भूलें की हों, उनके अनुरूप जप- तप अनुष्ठान सङ्कल्पपूर्वक करें।
- अपने द्वारा प्रकृति, व्यक्ति या समाज को जितनी क्षति पहुँचाई गयी हो, उसकी पूर्ति अपनी सामर्थ्य भर ईमानदारी से करने का प्रयास करें।
- अपनी मनोभूमि और व्यवस्था कुछ इस प्रकार बना लें कि स्व- श्राद्ध के बाद लगभग निष्काम, निरपेक्ष जीवन जी सकें।
- निर्देशित क्रमानुसार यह प्रयोग किया- कराया जा सकता है।
प्रयोग विधि-
यह प्रयोग किसी भी माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि से प्रारम्भ करके अमावस्या तिथि को पूर्ण किये जाने का विधान है।
कृष्ण द्वादशी (प्रथम दिन) का कृत्य
आवश्यक सामग्री- प्रायश्चित्त विधान के लिए- अक्षत, पुष्प, रोली, कलावा, यज्ञोपवीत, गंगाजल या शुद्धजल, गोदुग्ध, गो दधि, गोघृत, शहद, हल्दी, कुश, यज्ञभस्म, मिट्टी, गोबर, गोमूत्र, मिट्टी के दीपक १० नग या स्टील की कटोरी १० नग, तौलिया- या गमछा- २ नग, पञ्चपात्र, आचमनी, दान करने हेतु गाय सहित सभी आवश्यक वस्तुएँ।
प्रयोग करने वाला व्यक्ति द्वादशी के दिन उपवास (फलाहार- शाकाहार, या एक बार अस्वाद भोजन) करे।
कृष्ण द्वादशी के दो प्रमुख कर्मकाण्ड
१. प्रायश्चित्त विधान।
२. गाय सहित दस महादान।
कर्मकाण्ड (जीवित श्राद्ध विधान)
मङ्गलाचरण, पवित्रीकरण से स्वस्तिवाचन तक इसी पुस्तक के (पेज २४-७५) प्रारम्भिक कर्मकाण्ड से सम्पन्न करायें, तत्पश्चात् तीर्थ आवाहन करें।
॥ तीर्थ आवाहनम्॥
ॐ पुष्करादीनि तीर्थानि, गंगाद्याः सरितस्तथा।
आगन्छन्तु पवित्राणि, स्नानकाले सदा मम॥
त्वं राजा सर्वतीर्थानां, त्वमेव जगतः पिता।
याचितं देहि मे तीर्थं, तीर्थराज नमोऽस्तु ते॥
अपामधिपतिस्त्वं च, तीर्थेषु वसतिस्तव।
वरुणाय नमस्तुभ्यं, स्नानानुज्ञां प्रयच्छ मे।
गंगे च यमुने चैव, गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि, जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
॥ दशविध स्नान॥
भावना और प्रेरणा-
१. भस्म से स्नान करने की भावना यह है कि शरीर भस्मान्त है। कभी भी मृत्यु आ सकती है, इसलिए सम्भावित मृत्यु को स्मरण रखते हुए, भावी मरणोत्तर जीवन की सुख- शान्ति के लिए तैयारी आरम्भ की जा रही है।
२. मिट्टी से स्नान का मतलब है कि जिस मातृभूमि का असीम ऋण अपने ऊपर है, उससे उऋण होने के लिये देशभक्ति का, मातृभूमि की सेवा का व्रत ग्रहण किया जा रहा है।
३. गोबर से तात्पर्य है- गोबर की तरह शरीर को खाद बनाकर संसार को फलने- फूलने के लिए उत्सर्ग करना।
४. गोमूत्र क्षार प्रधान रहने से मलिनता नाशक माना गया है। रोग कीटाणुओं को नष्ट करता है। इस स्नान में शारीरिक और मानसिक दोष- दुर्गुणों को हटाकर भीतरी और बाहरी स्वच्छता की नीति हृदयंगम करनी चाहिए।
५. दुग्ध स्नान में जीवन को दूध- सा धवल, स्वच्छ, निर्मल, सफेद, उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा है।
६. दधि स्नान का अर्थ है- नियन्त्रित होना, दूध पतला होने से इधर- उधर ढुलकता है, पर दही गाढ़ा होकर स्थिर बन जाता है। भाव करें- अब अपनी रीति- नीति दही के समान स्थिर रहे।
७. घृत स्नान की भावना है, चिकनाई। जीवन क्रम को चिकना- सरल बनाना, जीवन में प्यार की प्रचुरता भरे रहना।
८. सर्वौषधि (हल्दी) स्नान का अर्थ है- अवांछनीय तत्त्वों से संघर्ष। हल्दी रोग- कीटाणुओं का नाश करती है, शरीर एवं मन में जो दोष- दुर्गण हों, समाज में जो भी विकृतियाँ दीखें, उनसे संघर्ष करने को तत्पर होना।
९. कुशाओं के स्पर्श का अर्थ है- तीक्ष्णतायुक्त रहना। अनीति के प्रति नुकीले, तीखे बने रहना।
१०. मधु स्नान का अर्थ है- समग्र मिठास। सज्जनता, मधुर भाषण आदि सबको प्रिय लगने वाले गुणों का अभ्यास। दस स्नानों का कृत्य सम्पन्न करने से दिव्य प्रभाव पड़ता है। उनके साथ समाविष्ट प्रेरणा से आन्तरिक उत्कर्ष में सहायता मिलती है।
१. भस्मस्नानम्
ॐ प्रसद्य भस्मना योनिमपश्च पृथिवीमग्ने।
स* सृज्य मातृभिष्ट्वं ज्योतिष्मान् पुनराऽसदः॥ -१२.३८
२. मृत्तिकास्नानम्
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।
समूढस्य पा* सुरे स्वाहा।। -५.१५
३. गोमयस्नानम्
ॐ मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे।।- १६.१६
४. गोमूत्रस्नानम्
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ -३६.३
५. दुग्धस्नानम्
ॐ आ प्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्।
भवा वाजस्य सङ्गथे।। -१२.११२
६. दधिस्नानम्
ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुख करत्प्र णऽ आयू* षि तारिषत्।।- २३.३२
७. घृतस्नानम्
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा।
दिशः प्रदिशऽ आदिशो विदिशऽ उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा।। -६.१९
८. सर्वौषधिस्नानम्
ॐ ओषधयः समवदन्त सोमेन सह राज्ञा।
यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्त * राजन् पारयामसि।। -१२.९६
९. कुशोदकस्नानम्
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोः बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।
सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वसाम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ॥ -९.३०
१०. मधुस्नानम्
ॐ मधु वाता ऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः।
ॐ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव * रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।
-१३.२७ से २९
॥ शुद्धोदकस्नानम्॥
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः
श्येतः श्येताक्षोऽरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽ
अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाः पार्जन्याः॥ -२४.३
यज्ञोपवीतधारणम् से रक्षासूत्रम् तक (पेज ३५-३९) में देखें।
॥ हेमाद्रि सङ्कल्प॥
क्रिया और भावना- हाथों में सङ्कल्प के अक्षत- पुष्प दें तथा भावनापूर्वक सङ्कल्प दुहराने का आग्रह करें। भावना करें कि हम विशाल तन्त्र के एक छोटे, किन्तु प्रामाणिक पुर्जे हैं। विराट् सृष्टि ईश्वरीय योजना, देव संस्कृति के अनुरूप हमें बनना है, ढलना है। हमारे सङ्कल्प के साथ वातावरण की शुचिता और देव अनुग्रह का योगदान मिल रहा है। परमात्म सत्ता की प्रतिनिधि आत्मसत्ता पुलकित- हर्षित होकर सक्रिय हो रही है।
ॐ विष्णुर्विष्णुःर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया
प्रवर्त्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे
वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपान्तर्गते भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते.....क्षेत्रे.....मासानां मासोत्तमेमास.....मासे.....पक्षे
.....तिथौ.....वासरे.....गोत्रोत्पन्नः.....नामाहं ज्ञाताज्ञात- स्तेय अनृतभाषण-नैष्ठुर्य-सङ्कीर्णभाव-असमानता-कपट-विश्वासघात-कटूक्ति-पति-पत्नी व्रतोत्सर्ग-ईर्ष्या-द्वेष-कार्पण्य-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मात्सर्य-जनक-जननी गुर्वादि-पूज्यजन-अवज्ञा-जाति-लिङ्गादि-जनित-उच्चनीचादि असमता-मादकपदार्थ सेवन-सुरापन-मांसादि अभक्ष्यआहार-आलस्य-अतिसङ्ग्रह-द्यूतक्रीडा-इन्द्रिय-असंयमानां स्वकृतचतुर्विंशति संख्यकानां दोषाणां परिहारार्थं प्रायश्चित्त सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
२. धेनु सहित दश महादान-
१. गाय (जैसी स्थिति हो, योग्य व्यक्ति या संस्था को गो दान किया जाय अथवा गौ सेवा के लिए दान किया जाय),
२. भूमि (यदि अपने पास स्वयं सँभालने से अधिक भूमि हो, तो उसका कुछ अंश किसी भूमिहीन या लोकसेवी संस्था को दान दें),
३. धन (जरूरत मन्दों को दान दें)
४. वस्त्र (वस्त्रहीनों को दान दें)
५. निवास (किसी सत्पात्र को आवास देना या उसके आवास की मरम्मत कराना)
६. अन्न (भूखों को भोजन कराएँ)
७. शिक्षा (गरीब छात्रों को स्कॉलर शिप आदि व्यवस्था बनाएँ)
८. स्वास्थ्य (व्यायाम शाला आदि के निर्माण में योगदान दें)
९. स्वच्छता (सार्वजनिक स्थलों में योगदान)
१०. ब्रह्मभोज में सत्साहित्य बाँटें। उक्त ये सभी दान किसी सत्पात्र पुरुष या लोकसेवी संस्था को अपनी आर्थिक स्थिति देखकर ही दें।
॥ गो- आवाहन॥
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥
- ऋ० ८.१०१,१५
ॐ गोभ्यः नमः। जलं, गन्धाक्षतं, पुष्पं, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
॥ गो प्रार्थना॥
हाथ जोड़कर निम्न मन्त्र से गो माता की प्रार्थना करें।
नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः, सौरभेयीभ्य एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च, पवित्राभ्यो नमोनमः॥
गावो ममाग्रतः सन्तु, गावो मे सन्तु पृष्ठतः।
गावो मे सर्वतः सन्तु, गवां मध्ये वसाम्यहम्॥
॥ गोपाल पूजन॥
ॐ वसुदेव सुतं देवं, कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं, कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥
॥ आचार्य पूजन॥
ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय, गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय, गोविन्दायनमो नमः॥
॥ सवत्स गो सहित दशमहादान का सङ्कल्प॥
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो
महापुरुषस्य विष्णेराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो
द्वितीये परार्धेश्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वमन्वन्तरे
भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैक-
देशान्तर्गते.....क्षेत्रे.....नद्यास्तटे....स्थले.....विक्रम संवत्सरे मासानां
मासोत्तमे मासे....मासे.....पक्षे....तिथौ....वासरे....गोत्रोत्पन्नः नामाहं मम श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्तये ज्ञाताज्ञात अनेक जन्मार्जित पाप शमनार्थं धन- धान्य आरोग्य निखिल वाञ्चित सिद्धये पितृणां जीविच्छ्राद्ध- स्वश्राद्ध तृप्ति- मुक्ति हेतु निरतिशयानन्द ब्रह्मलोकावाप्तये च इमां सुपूजितां सालङ्कारां सवत्सां गो सहित दश महादान सत्पात्र पुरुष अथवा लोकसेवी संस्थायाः निमित्तं तुभ्यमहं सम्प्रददे।
सङ्कल्प के पश्चात् शान्तिपाठ करते हुए कृष्ण द्वादशी (प्रथम दिन का क्रम समाप्त करें।)
कृष्ण त्रयोदशी (द्वितीय दिन) का कृत्य- (देवपूजन)
आवश्यक सामग्री- २ मीटर सफेद वस्त्र, यज्ञोपवीत ५ नग, छाता, उपानह (जूता, चट्टी, खड़ाऊँ), आँवला, ताँबे के दो गिलास या दो कटोरी, तीन कलश स्टील, पीतल, कलावा,पुष्प, अक्षत, रोली, पञ्चपात्र, आचमनी, काले तिल २५० सौ ग्राम, अगरबत्ती, माचिस, रूईबत्ती, दीपक, मिष्टान्न, कपूर।
त्रयोदशी के दिन प्रातःकाल सुसज्जित पूजा स्थली के सामने तीन कलश (मुख्य कलश से भिन्न) सफेद वस्त्र में स्थापित करें। कलशों के नीचे किसी चौड़े (मिट्टी या धातु की प्लेट) पात्र में काले तिल भरकर रखें। उत्तर दिशा में सोम, मध्य में यम तथा दक्षिण में अग्नि के प्रतीक तीन कलश स्थापित करें। मध्य वाले कलश के पास यज्ञोपवीत, छत्र (छतरी), उपानह (जूता+चट्टी, खड़ाऊँ), तिल एवं आँवला भी रखें। अपने दैनिक उपासना क्रम से निवृत्त होकर यह विशिष्ट पूजन प्रारम्भ करें।
॥ विशिष्ट देवपूजन॥
देव पूजन का क्रम पवित्रीकरण से स्वस्तिवाचन तक देवपूजन में कर्मप्रधान देवों के रूप में सोम, यम एवं अग्निदेव का भी आवाहन करें। अब तीनों कलशों के लिए क्रमशः एक- एक मन्त्र बोलकर उन्हें स्पर्श करें। तीन कलशों के तीन प्रधान देवों (सोम, यम, अग्नि) का आवाहन निम्न मन्त्रों से करें।
॥ सोम देवता का आवाहन॥
ॐ सोमस्य त्विषिरसि तवेव मे त्विषिर्भूयात्।
मृत्योःपाह्योजोसि सहोस्यमृतमसि॥
ॐ सोमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।- १०.१५
॥ यम देवता का आवाहन॥
ॐ सुगन्नुपन्थां प्रतिशन्नऽ एहि ज्योतिष्मध्येह्यजरन्नऽ आयुः।
अपैतु मृत्युममृतं मऽ आगात् वैवस्वतोनोऽ अभयं कृणोतु।
ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
॥ अग्नि देवता का आवाहन॥
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा * सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्।
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- २१.३
आवाहनोपरान्त पञ्चोपचार विधि से पूजन करें। पुरुषसूक्त पृष्ठ (186 से 1980 से भी षोडशोपचार पूजन कर सकते हैं।
॥ पञ्चोपचार पूजनम्॥
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, जलं,
गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
इसके बाद श्राद्ध करने वाले साधक उत्तर दिशा की ओर मुख करके सव्य स्थिति (यज्ञोपवीत बायें कन्धे पर) में ३० मिनट गायत्री महामन्त्र का जप करें। जप पूरा होने पर कुश या पवित्र नदी या स्थल की रेत बिछाकर उस पर पिण्डदान करें। पिण्डदान के लिए देखें।
प्रत्येक पिण्ड पर सूत्र- कलावा चढ़ायें। काले तिल से भरे ताँबे के दो पात्रों में से एक देवों के निमित्त और दूसरा पितरों के निमित्त अर्पित करें। तत्पश्चात् शान्तिपाठ के साथ सिञ्चन कर सूर्यार्घ्य दें।
यह कर्म पूरा होने तक उष्ण- शीत पेय (जलपान) या फल ही लें तथा एक ही बार (दोपहर बाद तथा सूर्यास्त से पहले) सात्विक आहार ग्रहण करें। तथा दिन में मौन, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन में ही अपना समय बिताएँ। सायंकाल सूर्यास्त के समय पुनः गायत्री मन्त्र का जप करें। षट्कर्म आदि करके पहले १० मिनट गायत्री महामन्त्र, फिर १० मिनट नारायण गायत्री और बाद में दस मिनट पुनः गायत्री मन्त्र का जप करें तत्पश्चात् सूर्यार्घ्य देकर समापन करें।
॥ नारायण (विष्णु) गायत्री मन्त्र॥
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो नारायणः प्रचोदयात्।
रात्रि में आठ बजे के बाद पुनः उक्त क्रम से गायत्री महामन्त्र, नारायण गायत्री एवं गायत्री महामन्त्र का जप करें।
॥ नारायण (विष्णु) गायत्री मन्त्र॥
ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
रात्रि में यथा शक्ति जागरण करते हुए काया की नश्वरता तथा जीवन की अनश्वरता का चिन्तन करते हए इष्ट या गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करते- करते निद्रा देवी की गोद में जायें।
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्। -३६.३
कृष्ण चतुर्दशी (तृतीय दिन) का कृत्य- (स्व- अन्त्येष्टि)
आवश्यक सामग्री- कुश, शुद्ध पुआल (पैरा) या सूखी घास १ लोटा, १ गिलास, यज्ञ कुण्ड, माचिस, रूई बत्ती, कपूर, घी १ कि.ग्रा., काले तिल २५० ग्राम, अक्षत २५० ग्राम, कलावा, लोहे के टुकड़े, हवन सामग्री १ कि.ग्रा., मिष्टान्न, नारियल गोला २ नग, मिट्टी के कुल्हड़ १५ नग दोने- ४० नग, पत्तल १२ नग, गोदुग्ध १ कि.ग्रा. मूँग २५० ग्राम, चावल ५०० ग्राम, काले तिल १५० ग्राम, पके चावल (भात) ५०० ग्राम, समिधा (आम की लकड़ी) ५ कि.ग्रा. छोटी- छोटी।
प्रातःकाल स्नान उपासनादि क्रम से निवृत्त हों। पूजन एवं कर्मकाण्ड सामग्री सहित किसी शुद्ध जलाशय, नदी आदि के तट पर जायें।
कुश और शुद्ध पुआल- घास आदि से मनुष्याकृति का प्रतीकात्मक पुतला (लगभग एक हाथ- १५ इञ्च प्रमाण का) बनायें। पुतला बनाने में बाँधने के लिए ऊन का प्रयोग करें। उसके ऊपर जौ के आटे का लेप कर दें। अपनी सुविधानुसार पुतला पहले से तैयार करके भी ले जा सकते हैं अथवा उसी स्थान पर पहुँचकर भी बना सकते हैं।
जिस स्थान पर स्व- अन्त्येष्टि कर्म करना है, उस स्थान और कर्म सामग्री को साधनादि पवित्रीकरण मन्त्र द्वारा जल से सिञ्चन करें।
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा॥ -१९.३९
पुनः नीचे लिखे मन्त्र से उस क्षेत्र में जौ, लोहे के टुकड़े तथा कलावा पुनः नीचे लिखे मन्त्र से उस क्षेत्र में जौ, लोहे के टुकड़े तथा कलावा के टुकड़े बिखेरें।
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां
पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि
बहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिविषञ्चाम्यसौ।।- ९.३०
अब किसी धातु के कुण्ड में या फिर छोटी वेदिका बनाकर उसमें अग्नि स्थापन मन्त्र से अग्नि स्थापित करें।
॥ अग्निस्थापनम्॥
ॐ भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि
देवयजनि पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे। अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे।
देवाँ२ आ सादयादिह।- ३.५, २२.१७
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
जौ, तिल, चावलयुक्त हवन सामग्री द्वारा तीन आहुतियाँ गायत्री मन्त्र से समर्पित करें।
॥ गायत्री मन्त्राहुतिः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं गायत्र्यै इदं न मम्। -३६.३
पुनः उपर्युक्त मन्त्र- ॐ देवस्य त्वा सवितुः.....से उस क्षेत्र में जौ, लोहे के टुकड़े तथा कलावा के टुकड़े बिखेरें, जहाँ पुतले का संस्कार करेंगे।
पुतले के आकार के अनुरूप चिता बनायें तथा पुतले को उस पर लिटा दें, एक पात्र में जल लेकर उसमें सभी तीर्थों का आवाहन करें।
॥ तीर्थ आवाहन मन्त्र॥
अयोध्या मथुरा माया, काशी काञ्ची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव, सप्तैता मोक्षदायिका॥
ॐ पुष्करादीनि तीर्थानि, गङ्गाद्याः सरिस्तथा।
आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥
निम्न मन्त्र से चिताक्षेत्र तथा पुतले को सिञ्चित करें।
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त ऽ आश्विनाः
श्येतः श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽ
अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥ -२४.३
अब अपसब्य होकर निम्न मन्त्र से छोटी मशाल बनाकर उसे वेदिका की अग्नि से प्रज्वलित करें।
ॐ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देववयुनानि विद्वान्
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम। -५.३६
चिता की सात परिक्रमा करें तथा उसके साथ एक- एक समिधा पुतले पर रखते चलें। सिर की तरफ से रखते हुए क्रमशः पैरों तक (सिर, गर्दन, छाती, पेट, कूल्हे, घुटने, पञ्जे आदि स्थानों) पर रखें।
प्रज्वलित अग्नि में गायत्री मन्त्र से ५, ९, १२, २४ आहुतियाँ दें। तथा
ॐ आयुर्यज्ञेन............मन्त्र से आहुतियाँ प्रदान करें।
॥ गायत्री मन्त्राहुतिः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं गायत्र्यै इदं न मम्।- ३६.३
॥ शरीर यज्ञ मन्त्राहुतिः॥
क्रिया और भावना- एक- एक मन्त्र से आहुति देते हुए भावना करें कि हमारा व्यक्तित्व यज्ञीय धारा के योग्य बने।
१. ॐ आयुर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
२. ॐ प्राणो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
३. ॐ अपानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
४. ॐ व्यानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
५. ॐ उदानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
६. ॐ समानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
७. ॐ चक्षुर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
८. ॐ श्रोतं यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
९. ॐ वाग्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१०. ॐ मनो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
११ ॐ आत्मा यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१२. ॐ ब्रह्म यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१३. ॐ ज्योतिर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१४. ॐ स्वर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१५. ॐ पृष्ठं यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१७. ॐ सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा।
आ पो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वाहा।
-ऋग्वेद१०.१६.३
॥ पूर्णाहुतिः॥
पूर्णाहुति मन्त्र से पूर्णत्व का भाव करते हुए पुतले के सिर के पास कपाल क्रिया के रूप में नारियल का गोला समर्पित करें।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत।
वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज * शतक्रतो स्वाहा।- ३.४९
ॐ सर्वं वै पूर्ण * स्वाहा।
॥ वसोर्धारा॥
बचे हुए घृत को वसोर्धारा के रूप में नारियल एवं पुतले के ऊपर इस भाव से छोड़ें कि स्नेह की निर्झरणी जीवन में सदा प्रवाहित होती रहे।
ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा। -१.३
मिट्टी के तीन सकोरों (कुल्हड़) या तीन दोनों में मूँग, तन्दुल (चावल) में काले तिल मिलाकर भरें और स्व तृप्ति हेतु क्रमशः तीन बलि (भोज्य पदार्थ) गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए समर्पित करें। इसके बाद पन्द्रह मिनट निकट बैठकर गायत्री महामन्त्र एवं महामृत्युञ्जय मन्त्र का जप करें।
॥ शान्ति मन्त्र॥
अब दूध एवं जल के मिश्रण से सिञ्चन करके पुतले की अग्नि को नीचे लिखे मन्त्रों से शान्त करें।
ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥ -१८.३६
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं * शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिःसर्व*शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ -३६.१७
नोट- (इस सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित 'अन्त्येष्टि विधान' पुस्तक का भी सहारा ले सकते हैं)
इसके बाद पुनः स्नान करके दक्षिण दिशा की ओर मुख करके अपसब्य होकर यमादि देवों को जलाञ्जलि प्रदान करें।
ॐ यमादिचतुर्दशदेवाः आगच्छन्तु गृह्णतु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ यमाय नमः॥ ३॥
ॐ धर्मराजाय नमः॥ ३॥
ॐ मृत्यवे नमः॥ ३॥ अन्तकायः नमः॥ ३॥
ॐ वैवस्वताय नमः॥ ३॥
ॐ कालाय नमः॥ ३॥
ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः॥ ३॥
ॐ औदुम्बराय नमः॥ ३॥
ॐ दध्नाय नमः॥ ३॥
ॐ नीलाय नमः॥ ३॥
ॐ परमेष्ठिने नमः॥ ३॥
ॐ वृकोदराय नमः॥ ३॥
ॐ चित्राय नमः॥ ३॥
ॐ चित्रगुप्ताय नमः॥ ३॥
बायाँ घुटना भूमि से टिकाकर कुशाग्र से दक्षिण दिशा में (अपसब्य स्थिति में) तीन अञ्जलि जल नीचे लिखे मन्त्र से प्रदान करें।
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। तन्नो यमः प्रचोदयात्।
यम गायत्री
जल से बाहर आकर सूखे वस्त्र पहन लें। मिट्टी के छोटे कुल्हड़ में जल भरें तथा उसमें काले तिल भी थोड़े से मिला लें। रुद्रदेव का ध्यान करते हुए नीचे लिखे मन्त्र से उस जल को भूमि पर बिखेरें।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः।
बाहुभ्यामुत ते नमः॥- १६.१
अब पके हुए चावल (भात) में काले तिल मिलाकर दस पिण्ड बनायें। दोने में एक- एक करके पिण्ड रखें, उन्हें क्रमशः निम्न विधि से समर्पित करें।
१. सिर के लिए पिण्ड रखकर एक अञ्जलि जल छोड़ें।
२. कान, आँख एवं नासिका के लिए पिण्ड रखकर दो अञ्जलि जल छोड़ें।
३. गला, कन्धा, भुजा, वक्ष के लिए पिण्ड रखकर तीन अञ्जलि जल छोड़ें।
४. नाभि, लिङ्ग, गुदा के लिए पिण्ड रखकर चार अञ्जलि जल छोड़ें।
५. घुटना, पिण्डली, पैर के लिए पिण्ड रखकर पाँच अञ्जलि जल छोड़ें।
६. सभी मर्म स्थलों के लिए पिण्ड रखकर छः अञ्जलि जल छोड़ें।
७. सभी नस- नाड़ियों के लिए पिण्ड रखकर सात अञ्जलि जल छोड़ें।
८. दाँत एवं रोमादि के लिए पिण्ड रखकर आठ अञ्जलि जल छोड़ें।
९. पूर्णत्व, भूख- प्यास आदि के लिए पिण्ड रखकर दस अञ्जलिजल छोड़ें।
नीचे लिखे मन्त्र से पिण्डों पर जल सिञ्चन करें।
पुनः नीचे लिखे मन्त्र से उस क्षेत्र में जौ, लोहे के टुकड़े तथा कलावा के टुकड़े बिखेरें।
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।
सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिविषञ्चाम्यसौ।।- ९.३०
अब किसी धातु के कुण्ड में या फिर छोटी वेदिका बनाकर उसमें अग्नि स्थापन मन्त्र से अग्नि स्थापित करें।
॥ अग्निस्थापनम्॥
ॐ भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे।
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुपब्रुवे। देवाँ२ आ सादयादिह।- ३.५, २२.१७
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
जौ, तिल, चावलयुक्त हवन सामग्री द्वारा तीन आहुतियाँ गायत्री मन्त्र से समर्पित करें।
॥ गायत्री मन्त्राहुतिः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं गायत्र्यै इदं न मम्। -३६.३
पुनः उपर्युक्त मन्त्र- ॐ देवस्य त्वा सवितुः.....से उस क्षेत्र में जौ, लोहे के टुकड़े तथा कलावा के टुकड़े बिखेरें, जहाँ पुतले का संस्कार करेंगे।
पुतले के आकार के अनुरूप चिता बनायें तथा पुतले को उस पर लिटा दें, एक पात्र में जल लेकर उसमें सभी तीर्थों का आवाहन करें।
॥ तीर्थ आवाहन मन्त्र॥
अयोध्या मथुरा माया, काशी काञ्ची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव, सप्तैता मोक्षदायिका॥
ॐ पुष्करादीनि तीर्थानि, गङ्गाद्याः सरिस्तथा।
आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥
निम्न मन्त्र से चिताक्षेत्र तथा पुतले को सिञ्चित करें।
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त ऽ आश्विनाः
श्येतः श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽ
अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥ -२४.३
अब अपसब्य होकर निम्न मन्त्र से छोटी मशाल बनाकर उसे वेदिका की अग्नि से प्रज्वलित करें।
ॐ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देववयुनानि विद्वान्
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम। -५.३६
चिता की सात परिक्रमा करें तथा उसके साथ एक- एक समिधा पुतले पर रखते चलें। सिर की तरफ से रखते हुए क्रमशः पैरों तक (सिर, गर्दन, छाती, पेट, कूल्हे, घुटने, पञ्जे आदि स्थानों) पर रखें।
प्रज्वलित अग्नि में गायत्री मन्त्र से ५, ९, १२, २४ आहुतियाँ दें। तथा
ॐ आयुर्यज्ञेन............मन्त्र से आहुतियाँ प्रदान करें।
॥ गायत्री मन्त्राहुतिः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं गायत्र्यै इदं न मम्।- ३६.३
॥ शरीर यज्ञ मन्त्राहुतिः॥
क्रिया और भावना- एक- एक मन्त्र से आहुति देते हुए भावना करें कि हमारा व्यक्तित्व यज्ञीय धारा के योग्य बने।
१. ॐ आयुर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
२. ॐ प्राणो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
३. ॐ अपानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
४. ॐ व्यानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
५. ॐ उदानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
६. ॐ समानो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
७. ॐ चक्षुर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
८. ॐ श्रोतं यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
९. ॐ वाग्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१०. ॐ मनो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
११ ॐ आत्मा यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१२. ॐ ब्रह्म यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१३. ॐ ज्योतिर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१४. ॐ स्वर्यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१५. ॐ पृष्ठं यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१६. ॐ यज्ञो यज्ञेन कल्पता * स्वाहा।
१७. ॐ सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा।
आ पो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वाहा।
-ऋग्वेद१०.१६.३
॥ पूर्णाहुतिः॥
पूर्णाहुति मन्त्र से पूर्णत्व का भाव करते हुए पुतले के सिर के पास कपाल क्रिया के रूप में नारियल का गोला समर्पित करें।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत।
वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज * शतक्रतो स्वाहा।- ३.४९
ॐ सर्वं वै पूर्ण * स्वाहा।
॥ वसोर्धारा॥
बचे हुए घृत को वसोर्धारा के रूप में नारियल एवं पुतले के ऊपर इस भाव से छोड़ें कि स्नेह की निर्झरणी जीवन में सदा प्रवाहित होती रहे।
ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा। -१.३
मिट्टी के तीन सकोरों (कुल्हड़) या तीन दोनों में मूँग, तन्दुल (चावल) में काले तिल मिलाकर भरें और स्व तृप्ति हेतु क्रमशः तीन बलि (भोज्य पदार्थ) गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए समर्पित करें। इसके बाद पन्द्रह मिनट निकट बैठकर गायत्री महामन्त्र एवं महामृत्युञ्जय मन्त्र का जप करें।
॥ शान्ति मन्त्र॥
अब दूध एवं जल के मिश्रण से सिञ्चन करके पुतले की अग्नि को नीचे लिखे मन्त्रों से शान्त करें।
ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥ -१८.३६
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं œ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिःसर्वœशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ -३६.१७
नोट- (इस सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित च्अन्त्येष्टि विधानज् पुस्तक का भी सहारा ले सकते हैं)
इसके बाद पुनः स्नान करके दक्षिण दिशा की ओर मुख करके अपसब्य होकर यमादि देवों को जलाञ्जलि प्रदान करें।
ॐ यमादिचतुर्दशदेवाः आगच्छन्तु गृöन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ यमाय नमः॥ ३॥
ॐ धर्मराजाय नमः॥ ३॥
ॐ मृत्यवे नमः॥ ३॥
अन्तकायः नमः॥ ३॥
ॐ वैवस्वताय नमः॥ ३॥
ॐ कालाय नमः॥ ३॥
ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः॥ ३॥
ॐ औदुम्बराय नमः॥ ३॥
ॐ दध्नाय नमः॥ ३॥
ॐ नीलाय नमः॥ ३॥
ॐ परमेष्ठिने नमः॥ ३॥
ॐ वृकोदराय नमः॥ ३॥
ॐ चित्राय नमः॥ ३॥
ॐ चित्रगुप्ताय नमः॥ ३॥
बायाँ घुटना भूमि से टिकाकर कुशाग्र से दक्षिण दिशा में (अपसब्य स्थिति में) तीन अञ्जलि जल नीचे लिखे मन्त्र से प्रदान करें।
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। तन्नो यमः प्रचोदयात्।
-यम गायत्री
जल से बाहर आकर सूखे वस्त्र पहन लें। मिट्टी के छोटे कुल्हड़ में जल भरें तथा उसमें काले तिल भी थोड़े से मिला लें। रुद्रदेव का ध्यान करते हुए नीचे लिखे मन्त्र से उस जल को भूमि पर बिखेरें।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः।
बाहुभ्यामुत ते नमः॥- १६.१
अब पके हुए चावल (भात) में काले तिल मिलाकर दस पिण्ड बनायें। दोने में एक- एक करके पिण्ड रखें, उन्हें क्रमशः निम्न विधि से समर्पित करें।
१. सिर के लिए पिण्ड रखकर एक अञ्जलि जल छोड़ें।
२. कान, आँख एवं नासिका के लिए पिण्ड रखकर दो अञ्जलि जल छोड़ें।
३. गला, कन्धा, भुजा, वक्ष के लिए पिण्ड रखकर तीन अञ्जलि जल छोड़ें।
४. नाभि, लिङ्ग, गुदा के लिए पिण्ड रखकर चार अञ्जलि जल छोड़ें।
५. घुटना, पिण्डली, पैर के लिए पिण्ड रखकर पाँच अञ्जलि जल छोड़ें।
६. सभी मर्म स्थलों के लिए पिण्ड रखकर छः अञ्जलि जल छोड़ें।
७. सभी नस- नाड़ियों के लिए पिण्ड रखकर सात अञ्जलि जल छोड़ें।
८. दाँत एवं रोमादि के लिए पिण्ड रखकर आठ अञ्जलि जल छोड़ें।
९. पूर्णत्व, भूख- प्यास आदि के लिए पिण्ड रखकर दस अञ्जलिजल छोड़ें।
नीचे लिखे मन्त्र से पिण्डों पर जल सिञ्चन करें।
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः तानऽ
ऊर्जेदधातन। महे रणाय चक्षसे।
ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य
भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्मा ऽअरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपोजनयथा च नः॥ -११.५०- ५२
॥ सूर्यार्घ्यदान॥
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या, गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः।
उक्त कृत्य पूर्ण हुआ, अब घर पहुँचें, सूर्यास्त से पहले एक बार सात्विक भोजन लें। शाम के समय गोधूलि वेला में घर के द्वार के पास जीव की तृप्ति के लिए एक पात्र में दूध मिला जल समर्पित करें। पुष्प एवं दीपक निवेदित करें। प्रकृति का दर्शन करें, सब जगह अपनी आत्म- चेतना के विस्तार का भाव करें।
रात्रि में भूमि पर दरी, कम्बल आदि बिछाकर उसके नीचे तीन कुश दक्षिणाग्र करके रखें। रात्रि में उत्तर दिशा की ओर सिर तथा दक्षिण दिशा की ओर पैर करके शयन करें।
अमावस्या (चतुर्थ दिन) का कृत्य
आवश्यक सामग्री- तर्पण, पिण्डदान हेतु- दो तसले स्टील या पीतल के, काले तिल २५० ग्रा. अक्षत, पुष्प, रोली, कलावा, अगरबत्ती, माचिस रूईबत्ती, कुश, दूध १ कि.ग्रा. दही २५० ग्राम, शहद १० ग्राम, गुँथा आटा १ कि.ग्रा., जल ५ लीटर, जौ २५० ग्राम।
यज्ञ हेतु- शाकल्य १ कि. ग्रा., जौ, तिल, चावल सभी ढाई- ढाई सौ ग्राम, देशी घी ५०० ग्राम, अगरबत्ती, माचिस, कपूर, समिधा ५ कि.ग्रा.कलावा, रोली, पुष्प, गुरुदेव- गायत्री माता (इष्टदेव) का चित्र, यज्ञकुण्ड १० कटोरी, १० प्लेट स्टील या २० नग दोने, पंखा, मिष्टान्न, ऋतुफल, गुड़ (खॉड़) आदि।
प्रातःकाल उठकर नित्य कर्म, उपासनादि से निवृत्त हों। तर्पण- पिण्डदान आदि श्राद्धकर्म करें।
॥ तर्पण- पिण्डदान॥
पवित्रीकरण से रक्षाविधान तक पृष्ठ ९ से २७ का क्रम सम्पन्न करके ही तर्पण- पिण्डदान करें।
॥ कुशपवित्रीधारण॥
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसुवऽ उत्पुनाम्यच्छिद्रेण
पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम्॥ -१.१२,१०.६
॥ सर्वतीर्थ आवाहन॥
ॐ गयादीनि च तीर्थानि, ये च पुण्याः शिलोच्चयाः।
कुरुक्षेत्रं च गंगा च, यमुना च सरिद्वरा॥
कौशिकी चन्द्रभागा च, सर्व पाप प्रणाशिनी।
नन्दाभद्राऽवकाशा च, गण्डकी सरयूस्तथा॥
भैरवं च वराहं च, तीर्थं पिण्डारकं तथा।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि, चत्वारः सागरास्तथा।
प्रेतस्यास्य प्रशान्त्यर्थं, अस्मिन्स्तोये विशन्तुवै॥
ॐ तीर्थ देवताभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
॥ यम आवाहन॥
हाथ में यव (जौ)- अक्षत लेकर जीवन- मृत्यु चक्र का अनुशासन बनाये रखने वाले तन्त्र के अधिष्ठाता यमदेव का आवाहन करें- भावना करें कि यम का अनुशासन हम सबके लिए कल्याणकारी बने।
ॐ यमाय त्वा मखाय त्वा सूर्यस्य त्वा तपसे।
देवस्त्वा सविता मध्वानक्तु पृथिव्याः स * स्पृशस्पाहि।
अर्चिरसि शोचिरसि तपोसि॥ -३७.११
ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ पितृ आवाहन- पूजन॥
हाथ में जौ, तिल, अक्षत लेकर मृतात्मा के आवाहन की भावना करें और प्रधान दीपक की लौ में उसे प्रकाशित हुआ देखें। मन्त्रोच्चार के बाद हाथ में रखे जौ, तिल, आदि पूजा चौकी पर छोड़ दिये जाएँ। आवाहित पितृ का स्वागत- सम्मान षोडशोपचार या पञ्चोपचार पूजन द्वारा किया जाए।
ॐ विश्वे देवासऽ आगत शृणुता म इम * हवम्। एदं बर्हिर्निषीदत।
ॐ विश्वे देवाः शृणुतेम * हवं मे ये अन्तरिक्षे यऽ उप द्यवि ष्ठ।
ये अग्निजिह्वा उत वा यजत्रा आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयध्वम्।
-७.३४,३३.५३
ॐ पितृभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥तर्पण॥
दिशा एवं प्रेरणा- आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। जल में दूध, जौ, तिल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए।
तर्पण को छः भागों में विभक्त किया गया है-
१. देव- तर्पण,
२. ऋषि- तर्पण,
३. दिव्य- मानव,
४. दिव्य- पितृ,
५. यम- तर्पण और
६. मनुष्य- पितृ।
सभी तर्पण नीचे लिखे क्रम से किये जाते हैं।
॥ देव तर्पण॥
यजमान दोनों हाथों की अनामिका अंगुली में पवित्री धारण करें।
ॐ आगच्छन्तु महाभागाः, विश्वेदेवा महाबलाः।
ये तर्पणेऽत्र विहिताः, सावधाना भवन्तु ते॥
जल में चावल डालें। कुश- मोटक सीधे लें। यज्ञोपवीत सव्य (बायें कन्धे पर) सामान्य स्थिति में रखें। तर्पण के समय अञ्जलि में जल भरकर सभी अंगुलियों के अग्र भाग से अर्पित करें। इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक देवशक्ति के लिए एक- एक अञ्जलि जल पूर्वाभिमुख होकर देते चलें।
ॐ ब्रह्मादयो देवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ ब्रह्मा तृप्यताम्। ॐ विष्णुस्तृप्यताम्।
ॐ रुद्रस्तृप्यताम्। ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम्।
ॐ देवास्तृप्यन्ताम्। ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ वेदास्तृप्यन्ताम्। ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम्। ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम्।
ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम्। ॐ संवत्सरः सावयवस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम्। ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम्। ॐ नागास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सागरास्तृप्यन्ताम्। ॐपर्वतास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सरितस्तृप्यन्ताम्। ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम्। ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम्। ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतानि तृप्यन्ताम्। ॐ पशवस्तृप्यन्ताम्। ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्। ॐ भूतग्रामःचतुर्विधस्तृप्यताम्।
॥ ऋषि तर्पण॥
दूसरा तर्पण ऋषियों के लिए है। व्यास, वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनि, दधीचि आदि के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ऋषि तर्पण द्वारा की जाती है। ऋषियों को भी देवों की तरह देवतीर्थ मुद्रा से एक- एक अञ्जलि जल दिया जाता है।
ॐ मरीच्यादि दशऋषयः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ मरीचिस्तृप्यताम्। ॐ अत्रिस्तृप्यताम्।
ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम्। ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्।
ॐ पुलहस्तृप्यताम्। ॐ क्रतुस्तृप्यताम्।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्। ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्।
ॐ भृगुस्तृप्यताम्। ॐ नारदस्तृप्यताम्।
॥ दिव्य- मनुष्य तर्पण॥
दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख होकर किया जाता है। जल में जौ डालें। जनेऊ कण्ठ में माला की तरह रखें। कुश हाथों में आड़े कर लें। अञ्जलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी उँगली) की जड़ के पास से जल छोड़ें, इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक सम्बोधन के साथ दो- दो अञ्जलि जल दें-
ॐ सनकादयः दिव्यमानवाः
आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ सनकस्तृप्यताम्॥ २॥ ॐ सनन्दनस्तृप्यताम्॥ २॥
ॐ सनातनस्तृप्यताम्॥२॥ ॐ कपिलस्तृप्यताम्॥२॥
ॐ आसुरिस्तृप्यताम्॥ २॥ ॐ वोढुस्तृप्यताम्॥ २॥
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम्॥ २॥
॥ दिव्य- पितृ-तर्पण॥
इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों। वामजानु (बायाँ घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कन्धे पर सामान्य से उलटी स्थिति में) रखें। कुशा दुहरे कर लें। जल में जौ, तिल डालें। अञ्जलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अँगूठे के सहारे जल गिराएँ। इसे पितृतीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक पितृ को तीन- तीन अञ्जलि जल दें।
ॐ कव्यवाडादयो दिव्यपितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ कव्यवाडानलस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
ॐ सोमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥३॥
ॐ यमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
ॐ अर्यमा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलंवा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्। इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः॥ ३॥
ॐ सोमपाःपितरस्तृप्यन्ताम्। इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः॥ ३॥
ॐ बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः॥ ३॥
॥ यम तर्पण ॥
दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीर्थ से तीन- तीन अञ्जलि जल यमों को भी दिया जाता है।
ॐ यमादिचतुर्दशदेवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ यमाय नमः॥ ३॥ ॐ धर्मराजाय नमः॥ ३॥
ॐ मृत्यवे नमः॥ ३॥ ॐ अन्तकाय नमः॥ ३॥
ॐ वैवस्वताय नमः॥ ३॥ ॐ कालाय नमः॥ ३॥
ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः॥३॥ ॐ औदुम्बराय नमः॥३॥
ॐ दध्नाय नमः॥ ३॥ ॐ नीलाय नमः॥३॥
ॐ परमेष्ठिने नमः॥ ३॥ ॐवृकोदरायनमः॥३॥
ॐ चित्राय नमः॥ ३॥ ॐ चित्रगुप्ताय नमः॥ ३॥
तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों से यम देवता को नमस्कार करें-
ॐ यमाय धर्मराजाय, मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय, सर्वभूतक्षयाय च॥
औदुम्बराय दध्नाय, नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय, चित्रगुप्ताय वै नमः॥
॥ मनुष्य- पितृ-तर्पण
इसके बाद अपने परिवार से सम्बन्धित दिवंगत नर- नारियों का क्रम आता है।
१- पिता, बाबा (दादा) परबाबा (परदादा) माता, दादी, परदादी।
२- नाना, परनाना, बूढ़े परनाना, नानी, परनानी, बूढ़ी परनानी।
३- पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, बुआ, मौसी, बहिन, सास, ससुर, गुरु, गुरुपत्नी, शिष्य, मित्र आदि। यह तीन वंशावलियाँ तर्पण के लिए हैं। पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है।
..... गोत्रोत्पन्नाः अस्मत् पितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
अस्मत्पिता (पिता) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्पितामहः (दादा)
अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधानमः॥ ३॥
अस्मत्प्रपितामहः (परदादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥अस्मन्माता (माता) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा गायत्रीरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा सावित्रीरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्प्रपितामही (परदादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्सापत्नमाता (सौतेली माँ) अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
॥ द्वितीय गोत्र तर्पण॥
इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करें। यहाँ यह भी पहले की भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन- तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन- तीन अञ्जलियाँ पितृतीर्थ से दें-
अस्मन्मातामहः (नाना) अमुकशर्मा
अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्प्रमातामहः(परनाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामहः (बूढ़े परनाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो
आदित्यरूपस्तृप्यतां। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रारुद्ररूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामही (बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
॥ इतर तर्पण॥
जिनको आवश्यक है, केवल उन्हीं के लिए तर्पण कराया जाए-
अस्मत्पत्नी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्सुतः (बेटा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्कन्या (बेटी) अमुकी देवी दा
अमुकसगोत्रा वसुरूपातृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्पितृव्यः (चाचा या ताऊ) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो
वुसरूपस्तृप्यताम्। इदंसतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥
अस्मन्मातुलः (मामा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मद्भ्राता (अपना भाई) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥३॥
अस्मत्सापत्नभ्राता(सौतेला भाई) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्पितृभगिनी (बुआ) अमुकीदेवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥३॥
अस्मन्मातृभगिनी (मौसी) अमुकी
देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मदात्मभगिनी (अपनी बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रावसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्सापत्नभगिनी (सौतेली बहिन) अमुकी देवी दा
अमुक सगोत्रा वसुरूपातृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः ॥ ३॥
अस्मत् श्वशुरः (श्वसुर) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत् श्वसुरपत्नी (सास) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥३॥
अस्मद्गुरु अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मद् आचार्यपत्नी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्।
इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
अस्मत्सखा (मित्र) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्।
अस्मद् आप्तपुरुषः (सम्मानीय पुरुष) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्।
निम्न मन्त्र से पूर्व विधि से प्राणिमात्र की तुष्टि के लिए जल धार छोड़ें-
ॐ देवासुरास्तथा यक्षा, नागा गन्धर्वराक्षसाः।
पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः, कूष्माण्डास्तरवः खगाः॥
जलेचरा भूनिलया, वाय्वाधाराश्च जन्तवः।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु, मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥
नरकेषु समस्तेषु, यातनासुु च ये स्थिताः।
तेषामाप्यायनायैतद्, दीयते सलिलं मया॥
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽन्यजन्मनि बान्धवाः।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु, ये चास्मत्तोयकांक्षिणः।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं, देवर्षिपितृमानवाः।
तृप्यन्तु पितरः सर्वे, मातृमातामहादयः॥
अतीतकुलकोटीनां, सप्तद्वीपनिवासिनाम्।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाद्, इदमस्तु तिलोदकम्।
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽन्यजन्मनि बान्धवाः।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु, मया दत्तेन वारिणा॥
॥ भीष्म तर्पण॥
अन्त में भीष्म तर्पण किया जाता है। ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्देश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गये हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठात्माओं को जलदान दें-
ॐ वैयाघ्रपदगोत्राय, सांकृतिप्रवराय च।
गङ्गापुत्राय भीष्माय, प्रदास्येऽहं तिलोदकम्॥
अपुत्राय ददाम्येतत्, सलिलं भीष्मवर्मणे॥
॥ वस्त्र निस्पीडन॥
शुद्ध वस्त्र जल में डुबोएँ और बाहर लाकर मन्त्र को पढ़ते हुए अपसव्य भाव से अपने बायें भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें (यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध कर्म हो, तो वस्त्र- निष्पीडन नहीं करना चाहिए।)
ॐ ये के चास्मत्कुले जाता, अपुत्रा गोत्रिणो मृताः।
ते गृह्णन्तु मया दत्तम्, वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥
॥ देवार्घ्यदान॥
अब सव्य होकर पूर्व दिशा में मुख करें। नीचे लिखे मन्त्रों से देवार्घ्यदान करें।
प्रथम अर्घ्य
सृष्टि निर्माता ब्रह्मा को-
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि
सीमतः सुरुचो वेनऽ आवः।
स बुन्ध्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः।- १३.३
ॐ ब्रह्मणे नमः॥
दूसरा अर्घ्य
पोषणकर्त्ता भगवान् विष्णु को-
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।
समूढमस्य पा* सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः॥ -५.१५
तीसरा अर्घ्य
अनुशासन- परिवर्तन के नियन्ता शिव- रुद्र को-
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽउतो तऽ इषवे नमः।
बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः॥ -१६.१
चौथा अर्घ्य
भूमण्डल के चेतना- केन्द्र सवितादेव सूर्य को-
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ ॐ सवित्रे नमः॥- ३६.३
पाँचवाँ अर्घ्य
प्रकृति का सन्तुलन बनाये रखने वाले देव- मित्र के लिए-
ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि।
द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम्॥ ॐ मित्राय नमः॥ -११.६२
छठवाँ अर्घ्य
तर्पण के माध्यम से वरुणदेव के लिए-
ॐ इमं मे वरुण श्रुधी
हवमद्या च मृडय।
त्वामवस्युरा चके। ॐ वरुणाय नमः। -२१.१
नमस्कार- अब खड़े होकर पूर्व की ओर से दिग्देवताओं को क्रमशः निर्दिष्ट दिशाओं में नमस्कार करें-
ॐ इन्द्राय नमःज् प्राच्यै॥ ॐ अग्नये नमःज् आग्नेय्यै।
ॐ यमाय नमःज् दक्षिणायै॥ ॐ निऋर्तयेनमःज् नैऋर्त्यै॥
ॐ वरुणाय नमःज् पश्चिमायै॥ ॐ वायवे नमःज् वायव्यै॥
ॐ सोमाय नमःज् उदीच्यै॥ ॐ ईशानाय नमःज् ऐशान्यै॥
ॐ ब्रह्मणे नमःज् ऊर्ध्वायै॥ ॐ अनन्ताय नमःज् अधरायै॥
इसके बाद जल में नमस्कार करें- ॐ ब्रह्मणे नमः। ॐ अग्नये नमः।
ॐ पृथिव्यै नमः।
ॐ ओषधिभ्यो नमः।
ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः।
ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः।
ॐ अद्भ्यो नमः।
ॐ अपाम्पतये नमः।
ॐ वरुणाय नमः।
॥ सूर्योपस्थान॥
मस्तक और हाथ गीले करें। सूर्य की ओर मुख करके हथेलियाँ कन्धे से ऊपर करके सूर्य की ओर करें। सूर्यनारायण का ध्यान करते हुए मन्त्र पाठ करें। अन्त में नमस्कार करें और मस्तक- मुख आदि पर हाथ फेरें।
ॐ अदृश्रमस्य केतवो विरश्मयो जनाँ२ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा।
उपयामगृहीतोसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय।
सूर्य भ्राजिष्ठ भ्राजिष्ठस्त्वं देवेष्वसि भ्राजिष्ठोहं मनुष्येषु भूयासम्॥ -८.४०
॥ मुखमार्जन- स्वतर्पण॥
मन्त्र के साथ यजमान अपना मुख धोये, आचमन करे। भावना करें कि अपनी काया में स्थित जीवात्मा की तुष्टि के लिए भी प्रयास करेंगे।
ॐ सं वर्चसा पयसा सन्तनूभिः अगन्महि मनसा स * शिवेन।
त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायः अनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम्॥ -२.२४
॥ पितृयज्ञ॥
पिण्डदान का कृत्य पितृयज्ञ के अन्तर्गत किया जाता है। जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए। मरणोत्तर संस्कार में १२ पिण्डदान किये जाते हैं- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग पचास- पचास ग्राम आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए। सङ्कल्प के बाद एक- एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप में रख लेनी चाहिए।
छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक- एक पिण्ड है। सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है। अन्य पाँच पिण्ड उनमृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी अन्य जन्म के बन्धु हैं, उच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समर्पित हैं। ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं। मछलियों को चुगाये जा सकते हैं। पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें।
ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निर्मितः पुरा।
त्वय्यर्चितेऽ र्चितः सोऽस्तु, यस्याहं नाम कीर्तये॥
॥ पिण्ड समर्पण प्रार्थना॥
पिण्ड तैयार करके रखें, हाथ जोड़कर पिण्ड समर्पण के भाव सहित नीचे लिखे मन्त्र बोले जाएँ-
ॐ आब्रह्मणो ये पितृवंशजाता, मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः।
वंशद्वये ये मम दासभूता, भृत्यास्तथैवाश्रितसेवकाश्च॥
मित्राणि शिष्याः पशवश्च वृक्षाः, दृष्टाश्च स्पृष्टाश्च कृतोपकाराः।
जन्मान्तरे ये मम संगताश्च, तेषां स्वधा पिण्डमहं ददामि॥
॥ पिण्डदान॥
पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए। मन्त्र के साथ पितृतीर्थ मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें-
१- प्रथम पिण्ड देवताओं के निमित्त-
ॐ उदीरतामवरऽ उत्परासऽ उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं यऽ ईयुरवृका ऋतज्ञाः ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु। -१९.४९
२- दूसरा पिण्ड ऋषियों के निमित्त-
ॐ अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वाऽ अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वय* सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम॥- १९.५०
३- तीसरा पिण्ड दिव्य मानवों के निमित्त-
ॐ आ यन्तु नः पितरः सोम्यासः अग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तः अधिबु्रवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥ -१९.५८
४- चौथा पिण्ड दिव्य पितरों के निमित्त-
ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्रुतम्।
स्वधा स्थ तर्पयत मे पितृन्॥ -२.३४
५- पाँचवाँ पिण्ड यम के निमित्त-
ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः
प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।
अक्षन्पितरोमीमदन्त पितरोतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥- १९.३६
६- छठवाँ पिण्ड मनुष्य- पितरों के निमित्त-
ॐ ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ२ उ च न प्रविद्म।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञœ सुकृतं जुषस्व॥- १९.६७
७- सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के निमित्त-
ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः
पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय, नमो वः पितरोमन्यवे नमो वः पितरः
पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो देष्मैतद्वः पितरो वासऽ आधत्त। -२.३२
८- आठवाँ पिण्ड पुत्रदार रहितों के निमित्त-
ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च।
गुरुश्वसुरबन्धूनां, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः॥
ये मे कुले लुप्तपिण्डाः, पुत्रदारविवर्जिताः।
तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
९- नौवाँ पिण्ड उच्छिन्न कुलवंश वालों के निमित्त-
ॐ उच्छिन्नकुलवंशानां, येषां दाता कुले नहि।
धर्मपिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
१०- दसवाँ पिण्ड गर्भपात से मर जाने वालों के निमित्त-
ॐ विरूपा आमगर्भाश्च, ज्ञाताज्ञाताः कुले मम।
तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
११- ग्यारहवाँ पिण्ड अग्निदग्धों के निमित्त-
ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा, ये प्रदग्धाः कुले मम।
भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु, धर्मपिण्डं ददाम्यहम्॥
१२- बारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त-
ॐ ये बान्धवाऽबान्धवा वा, ये ऽन्यजन्मनि बान्धवाः।
तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
यदि तीर्थ श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अर्पित करने हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम- गोत्र आदि जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं।
.... गोत्रस्य अस्मद् .... नाम्नो, अक्षयतृप्त्यर्थं इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥
पिण्ड समर्पण के बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और शहद चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है।
१- निम्न मन्त्र पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध चढ़ाएँ-
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -१८.३६
पिण्डदाता निम्नाङ्कित मन्त्रांश को दुहराएँ-
ॐ दुग्धम्। दुग्धम्। दुग्धम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्॥
२- निम्नाङ्कित मन्त्र से पिण्ड पर दही चढ़ाएँ-
ॐ दधिक्राव्णोऽ अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुखाकरत्प्रण आयु * षि तारिषत्। -२३.३२
पिण्डदाता निम्नाङ्कित मन्त्रांश दुहराएँ-
ॐ दधि। दधि। दधि। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।
३- नीचे लिखे मन्त्रों के साथ पिण्डों पर शहद चढ़ाएँ-
ॐ मधुवाताऽऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। ॐ मधु नक्तमुतोषसो,
मधुमत्पार्थिव* रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।
ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२अस्तु सूर्यः।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः। -१३.२७- २९
पिण्डदानकर्त्ता निम्नाङ्कित मन्त्रांश को दुहराएँ-
ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।
॥ भूतयज्ञ- पञ्चबलि॥
भूतयज्ञ के निमित्त पञ्चबलि प्रक्रिया की जाती है। विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है। अलग- अलग पत्तों या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं। उड़द- दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है। पाँचों भाग रखें। क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक- एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समर्पित करें।
१- गोबलि- पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त-
ॐ सौरभेय्यः सर्वहिताः, पवित्राः पुण्यराशयः।
प्रतिगृह्णतु मे ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥ इदं गोभ्यः इदं न मम।
२- कुक्कुरबलि- कर्त्तव्यनिष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त-
ॐ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ।
ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ॥
इदं श्वभ्यां इदं न मम॥
३- काकबलि- मलीनता निवारक काक के निमित्त-
ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा।
वायसाः प्रतिगृह्णतु, भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्।
इदं वायसेभ्यः इदं न मम॥
४- देवादिबलि- देवत्व संवर्धक शक्तियों के निमित्त-
ॐ देवाः मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥
इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम।
५- पिपीलिकादिबलि एवं सामूहिकता की प्रतीक चीटियों के निमित्त-
ॐ पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्याः, बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः।
तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥
इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम॥
बाद में गोबलि गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादि बलि चींटी आदि को खिला दिया जाए।
॥ मनुष्ययज्ञ- श्राद्ध सङ्कल्प॥
कन्या भोजन, दीन- अपाहिज, अनाथों को जरूरत की चीजें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमार्थिक कार्यों के लिए किये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध सङ्कल्प के साथ की जानी चाहिए।
॥ सङ्कल्पः॥
....................नामाहं.....................नामकमृतात्मनःशान्ति- सद्गति लोकोपयोगिकार्यार्थं.................परिमाणे धनदानस्यकन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूर्वकं सङ्कल्पं अहं करिष्ये॥
सङ्कल्प के बाद निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत- पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ।
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहि उशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशतऽ आ वह पितृन्हविषेऽअत्तवे॥
ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वावतु बृहत्सामपञ्चदशस्तोमो ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥ -१९.७०, १०.११
॥ क्षमा प्रार्थना॥
अद्य मे सफलं जन्मभवत्पादाभिवन्दनात्।
अद्य मे गोत्रजाः सर्वे गतोवोऽनुग्रहाद्विवम्॥
पत्र शाकादिदानेन क्लेशिता यूयमीदृशाः।
तत्कलेशजातं चित्तात्तु विस्मृत्यान्तुमर्हथ॥
मन्त्र हीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वराः।
श्राद्धं सम्पूर्णतां यातु प्रसादाद्भवतां मम॥
॥ विसर्जन॥
पिण्ड विसर्जन- नीचे लिखे मन्त्र के साथ पिण्डों पर जल सिञ्चित करें।
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित।
मनसस्पतऽ इमं देव यज्ञ * स्वाहा वाते धाः॥ -८.२१
पितृ विसर्जन- पितरों का विसर्जन तिलाक्षत छोड़ते हुए करें।
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः।
सर्वे ते हृष्टमनसः, सर्वान् कामान् ददन्तु मे॥
ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणाम्।
सम्पूर्णान् सर्वभोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान्॥
इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोग्यसम्पदः।
वृद्धिः सन्तानवर्गस्य, जायतामुत्तरोत्तरा॥ -अन्त्य०दीपक पृ०१२०
देव विसर्जन- अन्त में पुष्पाक्षत छोड़ते हुए देव विसर्जन करें।
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्।
इष्ट कामसमृद्ध्यर्थं, पुनरागमनाय च॥
पञ्चयज्ञ पूरे करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री यज्ञ सम्पन्न करें, फिर नीचे लिखे मन्त्र से ३ विशेष आहुतियाँ दें।
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि।
तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा।
इदं यमाय इदं न मम॥
इसके बाद स्विष्टकृत्- पूर्णाहुति आदि करते हुए समापन करें। विसर्जन के पूर्व पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अर्पित करें, फिर क्रमशः क्षमा प्रार्थना, पिण्ड विसर्जन, पितृ विसर्जन तथा देव विसर्जन करें।
॥ शय्यादान॥
आवश्यक सामग्री-
एक चारपाई, श्वेत चादर, दरी या गद्दा, तकिया, रजाई, वस्त्र, स्वर्ण, चाँदी अन्न, मिष्टान्न, छाता, उपानह (चट्टी या खड़ाऊँ), यज्ञोपवीत, बर्तन एवं दक्षिणा विदाई के समय। (उक्त ये सभी दान श्रद्धापूर्वक जो आप दे सकते हों, अपना बजट देखकर, अन्धश्रद्धा या दबाव में आकर नहीं, अपनी इच्छानुसार किसी सत्पात्र या लोकसेवी संस्था को ही दें।) किसी सत्पात्र को अथवा ब्रह्मकर्म में रत किसी लोकसेवी संस्था के प्रतिनिधि को बुलायें। उनके ऊपर अक्षत- पुष्प डालते हुए ब्रह्म आवाहन मन्त्र से उनका सम्मान करें। तदनन्तर उन्हें आसन देकर उनका सम्मान करें, तिलक- माल्यार्पण आदि करके शय्या आदि तथा श्रद्धादान उन्हें भेंट करें। अपने वित्त (सामर्थ्य)के अनुसार अन्य दानादि भी समर्पित करें। उन्हें भोजन- मिष्टान्न आदि से सन्तुष्ट करें।
॥ आचार्य पूजन॥
ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय, गो ब्राह्मण हिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय, गोविन्दाय नमो नमः॥
ब्रह्मभोज, सत्साहित्य आदि का भी सङ्कल्प करें।
आचार्य यजमान को तिलक कर आशीर्वाद दें। यजमान सभी उपस्थित जनों को प्रणाम अभिवादन करें। कार्यक्रम समाप्त करें।
॥ आशीर्वचन॥
मन्त्रार्थाः सफलाः सन्तु, पूर्णाः सन्तु मनोरथाः।
शत्रुभ्यो भयनाशोऽस्तु मित्राणामुदयस्तव॥
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधात्पवमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुण्यलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमाहुः॥
॥ सर्वदेव नमस्कारः॥
ॐ नमोस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!