कर्मकांड प्रदीप

स्फुट प्रकरण , अभिषेक, आशिवर्चन

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कर्मकाण्ड में रक्षासूत्र- बन्धन, तिलक, आशीर्वाद आदि ऐसे क्रम हैं, जो कर्मकाण्ड में बराबर आते रहते हैं। सामूहिक क्रम में यह कृत्य लम्बे समय तक भी चलते हैं। उस समय मन्त्रोच्चार और प्रेरणा- व्याख्या का मिला- जुला प्रवाह चलता रहे, तो वातावरण में सौम्यता तथा प्रभाव की वृद्धि होती है। इसी दृष्टि से स्फुट प्रकरण में कुछ क्रम और उनके मन्त्र दिये जा रहे हैं। इन्हें समय- समय पर प्रयुक्त करते रहा जा सकता है। 

॥ रक्षासूत्रबन्धनम्॥

१. ॐ यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्य*शतानीकाय 
सुमनस्यमानाः। तन्मऽआबध्नामि शत शारदाय 
आयुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्।- ३४.५२

अर्थात्- दक्षवंशीय ब्राह्मणों ने विचारपूर्वक जिस स्वर्ण (स्वर्णिम विभूतियों) को अनेक सेनाओं से युक्त राजा के लिए बाँधा था, उसी स्वर्ण को शतायु प्राप्ति के लिए हम अपने शरीर में धारण करते हैं। हम चिरञ्जीवी होकर वृद्धावस्था तक जीवित रहें।

२. ॐ येन बद्धो बलीराजा, दानवेन्द्रो महाबलः। 
तेन त्वां प्रति बध्नामि, रक्षे मा चल मा चल॥

अर्थात्- जिस रक्षासूत्र से दानवेन्द्र, महाबली राजा बलि बाँधे गये थे, उसी से तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे (रक्षासूत्र) यहाँ से (अपने प्रयोजन से) विचलित न होना अर्थात् यजमान की सदैव रक्षा करना।

३. ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति 
दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। 
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ -१९.३० 

॥ तिलक मन्त्र॥

१- ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रियाऽ अधूषत। 
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी॥ -३.५१

अर्थात्- पितृयज्ञ में हमारे द्वारा समर्पित हवि को पितरों ने सेवन कर लिया, जिसकी सूचना हर्षयुक्त पितरों ने सिर हिलाकर दी है। स्वयं दीप्तिमान् मेधावी ब्राह्मणों ने नवीन मन्त्रों से स्तुति प्रारम्भ कर दी है। हे इन्द्रदेव! आप हरी नामक अपने दोनों अश्वों को रथ में नियोजित करें; क्योंकि अभीष्ट पितरों की तृप्ति के लिए आपको शीघ्र आना है।

२- ॐ युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि। 
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा।- २३.५-६

अर्थात्- जिस प्रकार आकाश में स्व- प्रकाशित सूर्यदेव अपने से सम्बन्धित ग्रहों को अपने साथ जोड़े रहते हैं, उसी प्रकार सन्तुलित मानसवाले ऋषि इस स्वप्रकाशित यज्ञाश्व, यज्ञाग्नि के साथ सभी यज्ञीय उपचारों को नियोजित रखते हैं। जिस प्रकार कुशल व्यक्ति मनुष्यों को ले जाने वाले  रथ में दो घोड़ों को अपने वश में रखकर जोड़ते हैं, उसी प्रकार इन देवताओं के लिए हवि ले जाने वाले रथ में शोणा- लाल रंग के वेगवान् अग्नि  तथा धृष्णु नामक अश्वों- सामर्थ्यवान् मन्त्रों को नियोजित करें।

३- ॐ स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्ताक्र्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।- २५.१९

४- ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। 
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।- श्रीसू० ९

अर्थात्- सम्पूर्ण प्राणियों की आधारभूत, विविध प्रकार की फसलों एवं फलों से समृद्ध, प्राणमयी गन्ध से परिपूर्ण गो- अश्वादि पशुओं से सम्पन्न ऐसी सस्य- श्यामला, सुफला धरित्री रूप लक्ष्मी का हम आवाहन करते हैं, जिसे कोई शत्रु पराजित न कर सके।

५- ॐ दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे सुप्रजास्त्वाय 
 सहसा अथोजीव शरदः शतम्।

अर्थात्- दीर्घायुष्य के लिए, बल की वृद्धि के लिए, वर्चस् की प्राप्ति के लिए, श्रेष्ठ सन्तानों की उपलब्धि के लिए तेजस्वी बनकर सौ वर्ष तक आप  जीवित रहिये।
 
॥ कुशपवित्रीधारण॥ 
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः 
प्रसवउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते 
  पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्।- १.१२,४.४

अर्थात्- यज्ञार्थ प्रयुक्त आप दोनों (कुशा खण्डों या साधनों) को पवित्रकर्त्ता वायु एवं सूर्य रश्मियों से दोषरहित तथा पवित्र किया जाता है। हे पवित्रपते! शोधित पवित्री (पवित्रता के साधन) के द्वारा यजमान का अभीष्ट पूर्ण हो। सोमयाग अनुष्ठान की कामना से हम पवित्र होना चाहते हैं। हमें यज्ञानुष्ठान (सम्पन्न करने की) की सामर्थ्य प्राप्त हो। 

॥ आशीर्वचन॥

ॐ विवेकसंयुतां प्रज्ञां, दूरदृष्टिन्तथैव च। 
चारित्र्यं सर्वदा- आदर्शं, वेदमाता प्रयच्छतु॥ १॥

अर्थात्- वेदमाता गायत्री आपको सर्वदा विवेक (गुण- दोष को जानने की शक्ति) से युक्त प्रज्ञा (सद्बुद्धि), दूर दृष्टि तथा आदर्श चारित्र्य (सदाचार) प्रदान करें।

ब्रह्मवर्चसमास्तिक्यं, सात्मनिर्भरतां मुदा। 
सज्जनताऽऽत्मविश्वासं, देवमाता ददातु ते॥ २॥

अर्थात्- देवमाता गायत्री आपको ब्रह्मतेज, आस्तिकता, आत्मनिर्भरता से युक्त मोद (प्रसन्नता), सज्जनता एवं आत्मविश्वास दें।

सद्भविष्योज्ज्वलाकांक्षा, प्रभुविश्वासमेव च। 
उच्चादर्शान्प्रति श्रद्धां, तुभ्यं यच्छतु वैष्णवी॥ ३॥

अर्थात्- माता वैष्णवी (पालनकर्त्री ), आपके हृदय में उज्ज्वल भविष्य की आकांक्षा, ईश्वर में विश्वास तथा उच्चादर्शों के प्रति श्रद्धा- भावना भर दें।
 
श्रेष्ठकर्त्तव्यनिष्ठान्ते, प्रतिभां हृष्टमानसम्। 
उदारात्मीयतां तुभ्यं, विश्वमाता प्रयच्छतु॥ ४॥

अर्थात्- विश्वमाता गायत्री आपको श्रेष्ठ कर्त्तव्य- निष्ठा, प्रतिभा, मानसिक हर्ष तथा उदारता से युक्त आत्मीयता प्रदान करें।
 
शालीनतां च सौन्दर्यं, 
स्नेहसौजन्यमिश्रितम्। 
ध्रुवं धैर्यं च सन्तोषं, देयात्तुभ्यं सरस्वती॥ ५॥

अर्थात्- सरस्वती माता आपको सौन्दर्य, स्नेह तथा सज्जनता मिश्रित शालीनता (विनम्रता), अविचल धैर्य तथा सन्तोष आदि गुण प्रदान करें।

स्वास्थ्यं मन्युमनालस्यं, 
सोत्साहं च पराक्रमम्। 
साहसं शौर्यसम्पन्नं, महाकाली प्रवर्धताम्॥ ६॥

अर्थात्- महाकाली आपके स्वास्थ्य, मन्यु (अन्याय के प्रति रोष), आलस्यहीनता, उत्साह युक्त पराक्रम तथा शौर्यपूर्ण साहस की वृद्धि करें।

वैभवं ममतां नूनं, मैत्रीविस्तारमेव च। 
शुचितां समतां तुभ्यं, महालक्ष्मीं प्रयच्छतु॥ ७॥
 
अर्थात्- महालक्ष्मी जी आपको वैभव के साथ- साथ व्यापक मैत्रीभाव, ममता, पवित्रता, समता आदि गुण प्रदान करें।

स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु, 
उत्साह- शौर्य धन- धान्य। 
ऐश्वर्यमस्तु बलमस्तु रिपुक्षयोऽस्तु, 
वंशे सदैव भवतां हरिभक्तिरस्तु॥ ८॥

अर्थात्- आपका कल्याण हो। आप सकुशल रहें तथा चिरञ्जीवी हों। आप उत्साह, शौर्य, धन, धान्य आदि से समृद्ध ऐश्वर्यवान् और बलवान् हों। आपके सभी शत्रुओं का नाश हो। आपके वंश में भगवान् की भक्ति सदा विद्यमान रहे। 

अभिषेक -- आशीर्वचन 
गणाधिपो भानुशशी धरासुतो बुधो, गुरुर्भार्गवसूर्यनन्दनो। 
राहुश्च केतुश्च परं नवग्रहाः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ १॥ 
उपेन्द्र इन्द्रो वरुणो हुताशनो धर्मो यमो वायुहरी चतुर्भुजः। 
गन्धर्वयक्षोरगसिद्धचारणाः, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ २॥ 
मनुर्मरीचिर्भृगुदक्षनारदाः, पराशरो व्यासवशिष्ठभार्गवाः। 
वाल्मीकिः कुम्भोद्भवगर्गगौतमाः, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ३॥ 
नलो दधीचिः सगरः, पुरूरवाः, शाकुन्तलेयो भरतो धनञ्जयः। 
रामत्रयं वेणुवलीयुधिष्ठिराः, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ४॥ 
रम्भा शची सत्यवती च देवकी, गौरी च लक्ष्मीरदितिश्चरुक्मिणी। 
कूर्मो गजेन्द्रः सचराचराधरा, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ५॥ 
गंगा च शिप्रा यमुना सरस्वती, गोदावरी वेत्रवती च नर्मदा। 
सा चन्द्रभागा वरुणात्वसी नदी, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ६॥ 
तुगं प्रभासः कुरुक्षेत्रपुष्करौ, गया विमुक्तो बदरी वटेश्वरः। 
केदारपम्पासरसी च नैमिषं, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ७॥ 
शंखश्च दूर्वा सितपत्रचामरं, मणिः प्रदीपो वररत्नकाञ्चनम्। 
सम्पूर्ण कुम्भः सुहुतो हुताशनः, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ८॥ 
प्रयाणकाले यदि वा सुमङ्गले, प्रभातकाले च नृपाऽभिषेचने। 
धर्माय कामाय जयाय भाषितं, कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥ ९॥

॥ आशीर्वचन॥ 
मन्त्रार्थाः सफलाः सन्तु, पूर्णाः सन्तु मनोरथाः। 
शत्रुभ्यो भयनाशोऽस्तु, मित्राणामुदयस्तव॥ १॥ 

श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यम्, आविधात्पवमानं महीयते। 
धान्यं धनं पशुं बहुपुण्यलाभं, शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥ २॥ 

आयुर्द्रोणसुते श्रियो दशरथे, शत्रुक्षयो राघवे, 
ऐश्वर्यं नहुषे गतिश्च पवने, मानं च दुर्योधने। 
शौर्यं शान्तनवे बलं हलधरे, सत्यं च कुन्तीसुते, 
विज्ञानं विदुरे भवन्तु भवतः, कीर्तिश्च नारायणे॥ ३॥ 

लक्ष्मीररुन्धतीचैव, कुरुतां स्वस्ति तेऽनघ। 
असितो देवलश्चैव, विश्वामित्रस्तथाङ्गिराः॥ ४॥ 

स्वस्ति तेऽद्य प्रयच्छन्तु, कार्तिकेयश्च षण्मुखः। 
विवस्वान्भगवान् स्वस्ति, करोतु तव सर्वशः॥ ५॥ 

ब्रह्माणी चैव गायत्री, सावित्री श्रीरुमासती। 
अरुन्धत्यनसूया च, तव सन्तु फलप्रदाः॥ ६॥ 

ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च, सूर्यादिसकलग्रहाः। 
सौभाग्यं ते प्रयच्छन्तु, वेदमन्त्राश्च कल्पकाः॥ ७॥ 

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