कर्मकांड प्रदीप

आशौच (सूतक) विचार

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सनातन धर्म मानने वालों के बीच जन्म- मरण के प्रसङ्गों में परिवार वालों को सूतक या आशौच की स्थिति से गुजरने की मान्यता प्रचलित है। इस क्रम में कुछ ऐसी परिपाटियाँ चल पड़ी हैं जिनके कारण आज की परिस्तियों में लोगों को बहुत कठिनाइयाँ होती है। ज्यादातर वह परिपाटियाँ लोक रीतियों पर आधारित होता हैं, और उन्हें समय- परिस्थितियों के अनुसार बदल दिया जाना उचित है। यथार्थ ज्ञान के अभाव में भोले- धर्म भीरु नर- नारी, किसी अनिष्ट या विसंगति से बचने के लिए उन्हें शास्रोक्त मानकर, किसी विसंगति के अनिवार्य भय से उनसे चिपके रहना चाहते हैं। इस भ्रम जनित, कष्टकर और अव्यावहारिक स्थिति से परिवारों को निकालना जरूरी हो गया है। 
  
युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी ने युग निर्माण अभियान के क्रम में तमाम धार्मिक रूढ़ियों- अन्धविश्वासों को समाप्त किया है। इस क्रम में उन्होंने यह ध्यान भी रखा है कि आध्यात्मिक नियमों का निर्वाह और जन- भावनाओं का सम्मान रखते हुए केवल विकृत रूढ़ियों को हटाया जाय। ऐसे ही कुछ कदम जन्म- मरण सूतक- सम्बन्धी मान्यताओं को ठीक करने के लिए उठाये जाने जरूरी हो गये हैं। उसी उद्देश्य के साथ जन- मान्यताओं के परिशोधन के निमित्त यह विचार मंथन सुधीपाठकों के सामने रखा जा रहा है। 
  
यथार्थ समझें- यह स्पष्ट है कि धर्मिक परम्पराएँ कुछ सनातन नियमों तथा कुछ सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार बनायी जाती हैं। समय बीतने के साथ सामाजिक परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, इस लिए पुराने समय की अनेक उपयोगी परिपाटियाँ- अन्ध रूढ़ियाँ बनकर सताने लगती हैं। उनसे जुडे़ं सनातन सिद्धान्तों को सुरक्षित रखते हुए सामाजिक विसंगतियों से बचते हुए उनके स्वरूप को सुधारते रहना जरूरी हो जाता है। विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इस दिशा में अनेक सफल प्रयोग किये हैं। 
  
जैसे- कभी विवाहों का क र्मकाण्ड तीन दिनों तक चलाया जाता था, अब उसे औसतन एक- डेढ़ घण्टे में पूरा कर दिया जाता है। यज्ञोपवीत सहित अन्य तमाम संस्कारों की जटिलताएँ समाप्त करकें उन्हें जनसुलभ और प्रभावशाली बना दिया गया है। संस्कारों को तीर्थ स्थलों और यज्ञीय आन्दोलनों में सम्पन्न कराकर मूहूर्त्त वाद की तमाम विसंगतियों से समाज को बाहर निकाला जा रहा है। जन्म- मरण के सूतक के सन्दर्भ मेंं ऐसा कुछ करना आवश्यक है। 
  
सूतक- आशौच है क्या? 
किसी घर में किसी शिशु का जन्म या किसी का निधन हो जाता है उस परिवार के सदस्यों को सूतक या अशुचि (शुद्धि) की स्थिति में बिताने होते हैं।। धर्म ग्रन्थों में इस स्थिति को आशौच, आशुच्य तो सूतक कहा गया है। निधारित अवधि के बाद शुद्धि कर्म करने पर वे सहज स्थिति  में आते हैं।। शुद्धि के बाद ही परिजन वेदविहित अथवा धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न कर सकते है।

सूतक क्यों- इस क्रम में दो प्रश्न उठते हैं।

(क) जन्म- मरण के प्रसगों में उस कुल परिवार के किन व्यक्तियों पर सूतक (आशौच) क्यों लागू होता है? 
(ख) इसे कितने दिन तक चलना चाहिए।

सूतक क्यों लगता है -(क) इस सम्बन्ध में बहुत कम विचार मिलते हैं। सहज विवेक के आधार पर इसके दो स्वरूप बनते हैं। 

1 बाहरी अशुद्धि- 
जन्म- मरण के क्रम में स्वाभाविक स्वरूप से क्षेत्र और वातावरण में गन्दगी फैलती है। इससे अशुद्धि की स्थिति बनती है। धार्मिक कृत्य शुद्धि के बाद ही किए जाने चाहिए।

2 मानसिक विक्षोभ- 
जन्म- मरण के क्रम में परिजनों के मन सहज स्थिति में नहीं रहते। उनमें राग, शोक, भय आदि का प्रभाव बना रहता है। ऐसी विक्षोभ की अस्त- व्यस्त मानसिकता में धार्मिक प्रयोग सिद्ध नहीं होते। इसलिए उन विक्षोभों शमन तक उन प्रयोगो को रोक रखना उचित रहता है। 
  
हारीत स्मृति का कथन है- 
कुल का मरणाशौच होता है, क्योंकि मरण से वह विक्षुब्ध (दुखी- निराश) होता है। जब कोई नया जीवन प्रकट होता है, तो कुल वृद्धि होती है। सन्तुष्टि- सुख की अनुभूति होती है। स्पष्ट है कि हारीत ने परिजनो के मानसिक स्थिति को महत्त्व देते हुए मत व्यक्त किया है। 
  
थियोसॉफि कल सोसाइटी- के विद्वानों का मत कुछ इस प्रकार मिलता है कि स्थूल शरीर त्यागने के बाद चेतना का प्राण शरीर कुछ दिनों तक बना रहता है, वह अपने स्वजनों कि आस- पास मोहवश मँडराता रहता है, इससे उसकी मानसिकता और वहाँ का सूक्ष्म वातावरण प्रभावित होता है। इनके मत से समझदार- सुलझे हुए व्यक्तियों को मोह नहीं होता, इसलिए उनका प्राण शरीर जल्दी ही गल जाता है। मोह- ग्रस्त व्यक्तियों को १० दिन तक का समय लगता है। (सम्भवतः इसीलिए शुद्धि की सामान्यः अवधि १० दिन रखी होगी।) 
  
॥ सूतक की अवधि॥ 
सूतक आशौच की अवधि कितनी हो इस सम्बन्ध में बहुत से मत- मतान्तर मान्यताएँ हैं। 
विवेक के अनुसार - तो परिस्थितियों के हिसाब से अवधि निश्चित की जानी चाहिए। यदि जन्म- मरण प्रसंग घर की घटनाये जगह अस्पतालों में होते हैं तो स्थूल अशुद्धि का प्रभाव घर पर और घरवालों पर बहुत कम पड़ता है। जो प्रभाव हो उसे एक या दो दिन में मुक्त हुआ जा सकता है। घर पर होने पर भी २- ३ दिन में सफाई- शुचिता हो सकती है। 
  
मानसिक - शुचिता तो व्यक्ति भेद से होती है। इसलिए इसकी अवधि निश्चित करना कठिन है। शास्त्रमत भी इस सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार है, देखें- दक्ष स्मृति (५/२- ३) ने आशौच के दस भेद बताये हैं,जैसे- तात्कालिक शौच वाला (केवल स्नान करने से समाप्त), एक दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, एक पक्ष, एक मास एवं जीवन भर। 

यथा- सद्यःशौचं तथैकाहस्त्र्यहश्चतुरहस्तथा। 
षड्दशद्वादशाहाश्च पक्षो मासस्तथैव च।।
मरणान्तं तथा चान्यद् दश पक्षास्तु सूतके। -दक्ष- ५/२-3

उक्त कथन में 'एकाह' का अर्थ है- दिन और रात दोनों। 'सद्यः' का सामान्य अर्थ है 'उसी या इसी समय तत्क्षण या तात्कालिक या शीघ्र आदि'।   

स्मृतियों में इस विषय में विभिन्न मत पाये जाते हैं और वे मध्यकाल की परम्पराओं से इतने भिन्न हैं कि मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य स्मृति ३/२२) ने चारों वर्णों के लिए आशौच से सम्बन्धित अवधियों को पराशर, शातातप, वसिष्ठ एवं अंगिरा से उद्धृत कर उनका क्रम बैठाने में असमर्थता प्रकट की है। कहा है उनके समय की प्रथाओं एवं ऋषियों के आदर्शों में भिन्नता है-'मदन परिजात (पृ. ३९२) भी मिताक्षरा का समर्थन करता है और इस विरोध से हटने की अन्य विधियाँ उपस्थित करता है।'

स्मृतियों ने एक ही समस्या को किस प्रकार लिया है, इसके विषय में दो उदाहरण दिये जा सकते हैं। अत्रि (८३), पराशर (३/४) एवं दक्ष (६/६)ने व्यवस्था दी है कि वैदिक अग्निहोत्री ब्राह्मण जिसने वेद पर अधिकार प्राप्त कर लिया है,(वेदों का अध्ययन तथा तदनुसार जीवन- यापन का क्रम बनाता है) वह जन्म- मरण के आशौच से एक दिन में मुक्त हो सकता है। जिसने वेद पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, किन्तु श्रोताग्नियाँ नहीं स्थापित की है, वह तीन दिनों में तथा जिसने दोनों नहीं किये हैं, वह दस दिनों में मुक्त हो जाता है। मनुस्मृति ५/५९ ने भी इसी प्रकार कई विकल्प दिया है। 
  
आज की स्थिति में 'वेदज्ञ और श्रोताग्नियाँ स्थापित करने वाले कितने मिलेंगे,' सम्भवतःशास्त्रकर्ता का आशय यही होगा कि जिनके अन्तकरण जितने शुद्ध हैं, वे उतनी ही जल्दी शुद्ध हो सकते हैं। अस्तु; आज की स्थिति में परिभाषाएँ आज के विवेक के अनुसाार निर्धारत करनी होंगी। 
  
सम्बन्ध और परिस्थिति भेद से- 
आशौच (सूतक)की अवधि के बारे में परस्पर सम्बन्धों और परिस्थितियों के अनुसार भी बहुत मतान्तर मिलते हैं। उदाहरण देखें -- 
पारस्करगृह्मसूत्र (३/१०/२९- ३०) ने कहा है कि मरणाशौच सामान्यतः तीन रातों तक रहता है, किन्तु यदि मृत बच्चा पुत्र है तो माता- पिता को, तीन दिनों का, और यदि मृत बच्चा लड़की है तो एक दिन का आशौच करना पड़ता है (देखिए याज्ञ. ३/२३; शंखस्मृति १५/४; अत्रिस्मृति ९५ एवं आशौचदशक, श्लोक 
२)। यदि बच्चा दाँत निकलने के पश्चात्, किन्तु चूडाक र्म के पूर्व अर्थात् तीसरे वर्ष के अन्त में मर जाय तो सपिण्डों को एक दिन एवं एक रात्रि  का सूतक मानना चाहिए। 
  
यदि बच्चा लड़की हो तो सपिण्ड लोग उसके तीसरे वर्ष की मृत्यु पर स्नान करके पवित्र हो जाते हैं। यदि चूडाकरण के पश्चात् और उपनयन या विवाह के बीच मृत्यु हो तो पिता एवं सपिण्ड तीन दिनों तक आशौच मानते हैं। किन्तु समानोदक लोग स्नान के उपरान्त पवित्र हो जाते हैं। उपनयन के उपरान्त सभी सपिण्ड लोग मृत्यु पर १० दिनों का (( गौतम० १४/१, मनु० ५/५९, आशौचक दशक, २) एवं समानोदक तीन दिनों का आशौच मनाते हैं। कुछ एक का कहना है कि विवाहित कन्या अपने पिता के ग्राम के अतिरिक्त कहीं और मरती है तो माता- पिता को पक्षिणी (दो रात एवं मध्य में एक दिन या दो दिन एवं मध्य में एक रात) का आशौच होता है। विवाहित कन्या अपने माता- पिता का अन्त्यकर्म करती है, तो पक्षिणी का आशौच होता है। 
  
उक्त प्रकरण में शुद्धि की विभिन्न मर्यादाओं के साथ यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि शास्त्रों के अनुसार बेटियाँ भी अपने माता- पिता का अन्त्यकर्म (अन्तिम संस्कार और उससे सम्बन्धित कर्म) सम्पन्न कर सकती हैं। उन्हें केवल दो रात एवं मध्य में एक दिन मध्य की रात (पक्षिणी) का आशौच होता है(गौतम० १४/१, मनु० ५/५९ आशोचक दशक- २)। 
  
विष्णु धर्मसूत्र (२२/३२- ३४) का कथन है कि विवाहित स्त्री के लिए माता- पिता का आशौच नहीं लगता, किन्तु जब वह पिता के घर में बच्चा जनती है या मर जाती है तो क्रम से एक या तीन दिनों का आशौच लगता है। यदि मामा मर जाता है तो भाञ्जा एवं भाञ्जी एक पक्षिणी का आशौच निभाते हैं। यदि मामा भाञ्जे के घर में मरता है तो भाञ्जे के लिए आशौच तीन दिनों का, यदि मामा का उपनयन नहीं हुआ हो या वह किसी अन्य ग्राम में मरता है तो आशौच एक दिन का होता है। 
  
पुत्री की पुत्री के मरने पर नाना और नानी को आशौच नहीं लगता, इन विषयों में सामान्य नियम यही है कि उपनयन संस्कृत पुरुष एवं विवाहित स्त्री ही माता- पिता के अतिरिक्त किसी अन्य सम्बन्धी की मृत्यु पर आशौच मनाते हैं (( अर्थात् उपनयन संस्कारविहीन पुरुष तथा अविवाहित स्त्री माता या पिता की मृत्यु पर ही नियम पालन करते हैं)। 
  
दामाद के घर में श्वशुर या सास के मरने पर दामाद को तीन दिनों का तथा अन्यत्र मरने से एक पक्षिणी का आशौच लगता है। दामाद की मुत्यु पर श्वशुर एवं सास एक दिन का आशौच करते हैं या केवल स्नान करने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं, (यदि दामाद ससुराल में मरते तो)किन्तु  सुसराल में मरने पर श्वशुर व सास को तीन दिनों का आशौच करना पड़ता है। साले के मरने पर (यदि वह उपनयन संस्कृत हो )) एक दिन का आशौच होता है, यदि साला उपनयन संस्कार- विहीन हो या किसी अन्य ग्राम में मर जाय तो केवल स्नान कर लेना पर्याप्त है।
  
मौसी के मरने पर व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) को एक पक्षिणी का आशौच करना चाहिए , यही नियम फू फी (बुआ) के मरने पर लागू होता है; किन्तु फूफी, पिता की माता- बहिन (पिता की उम्र से बड़ी बहन) हो तो स्नान ही पर्याप्त है। फूफी या मौसी व्यक्ति के घर में मर जाय तो आशौच तीन दिनों का होता है। 

जब आचार्य मरता है, तो शिष्य को तीन दिनों के लिए आशौच करना पड़ता है, किन्तु वह दूसरे गाँव में मरता है, तो एक दिन का आशौच करना पड़ता है (गौतम० १४/२६ एवं ५२ तथा मनु० ५/८०)। 
  
आचार्य पत्नी एवं आचार्य पुत्र की मृत्यु पर एक दिन का आशौच निश्चित किया गया है- (विष्णु धर्म सूत्र २२/४४)। 
  
गुरु (वैदिक मन्त्रों की शिक्षा देता है) की मृत्यु पर तीन दिन का और जब वह किसी अन्य ग्रााम में मरता है, तो एक पक्षिणी का आशौच लगता है। उस शिक्षक की मृत्यु पर जो व्याकरण, ज्योतिष एवं वेदों के अन्य अंगों की शिक्षा देता है, एवं एक दिन का आशौच करना पड़ता है। देखिए गौ०(१४/१९- २०) जो सहाध्यायी (सहपाठी )या आश्रित श्रोत्रिय की मृत्यु पर एक दिन का आशौच निर्धारित है। 
  
जब तक ग्राम से शव बाहर नहीं जाता, सारा गाँव आशौच में रहता है। (आपस्तम्बधर्मसूत्र १/३/१४) के मत से ग्राम में शव रहने पर वेद का अध्ययन रोक दिया जाता है। जब उस गाँव में ४०० से अधिक ब्राह्मण निवास करते हैं तो यह नियम नहीं लागू नहीं होता, किन्तु इतना जोड़ा है कि कस्बे में इस की छूट है। 
  
मिताक्षरा (याज्ञ. स्मृति ३/१) ने आशौच को पुरुषगत आशौच कहा जाता है, जो काल, स्नान आदि से दूर होता है, जो मृत को पिण्ड, जल आदि देने का प्रमुख कारण है और जो वैदिक अध्यापन तथा अन्य कृत्यों को छोड़ने का कारण बनता है। आशौच से सम्बन्धित अवधियों को पराशर, शातातप, वसिष्ठ एवं अंगिरा से उद्धृत कर उनका क्रम बैठाने में असमर्थता प्रकट की है और उद्घोष किया है कि उसके समय की प्रथाओं एवं ऋषियों के आदेशों में भिन्नता है। 'मदनपारिजात (पृ० ३९२) मिताक्षरा का समर्थन करता है।' बृहस्पति (हारलता, पृ० ५; हरदत्त, गौतम० के १४/१ की टीका में) के मत से वेदज्ञ एवं आहिताग्नि तीन दिनों में शुद्ध हो जाता है। 
  
शांखायन श्रौत सूत्र एवं मनुस्मृति ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि आशौच के दिनों को आलस्य द्वारा बढ़ाना नहीं चाहिए। (मनु० ५/८४)। श्रद्धा त्याग- विहीन (जो अविश्वासी या अधार्मिक एवं दया- दाक्षिण्य से हीन) है, वह मरणान्त या भस्मान्त (भस्म हो जाने अर्थात् मर जाने के उपरान्त चिता पर राख जो जाने) तक अशुद्ध रहता है। कूर्म पुराण (उत्तर, २३/९) ने व्यवस्था दी है-

'क्रियाहीनस्य मूर्खस्य महारोगिण एव च। 
यथेष्टाचरणस्येह मरणान्तमशौचकम्।। (हारलता पृ०१५)।
 
उक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि यह नियम परिस्थितियों के अनुसार विवेकपूर्वक निर्धारित करना उचित है। छोटे गाँवों में शोक का वातावरण पूरे गाँव में छा जाता है, किन्तु बड़े गाँव- कस्बे में अथवा अधिक संख्या में ब्राह्मण होने पर वह स्थिति नहीं बनती, इसलिए वहाँ नियमों में छूट मिलती है।

विशेष प्रसङ्गों में- 
विष्णुपुराण (३/१३/७) में ऐसी व्यवस्था है कि शिशु की मृत्यु पर या देशान्तर में किसी की मृत्यु पर, या पण्डित या यति (संन्यासी) की मृत्यु पर, या जल, अग्नि या फाँसी पर लटका कर मर जाने वाले आत्मघातक की मृत्यु पर सद्यःशौच होता है। गौतम स्मृति (१४/४२) तथा वामनपुराण (१४/९९) में भी यही मत व्यक्त किये गये हैं। 

याज्ञवल्क्य स्मृति (३/२८- २९)के मत से यज्ञ के लिये वरण किये गये पुरोहितों को, जब उन्हें मधुपर्क दिया जा चुका हो,जनन या मरण की स्थिति में, सद्यःशौच (स्नान द्वारा शुद्धि)करना पड़ता है। यही बात उन लोगों के लिए भी है जो सोमयाग जैसे वैदिक यज्ञों के लिए दीक्षित हो चुके हैं, जो किसी दान ग्रह में भण्डारे में भोजन दान करते रहते हैं, जो चान्द्रायण जैसे व्रत या स्नातकधर्म- पालन में लगे रहते हैं, जो ब्रह्मचारी (आश्रम के कर्तव्यों में संलग्न) हैं, जो प्रतिदिन गौ, सोने आदि के दान में लगे रहते हैं(दान के समय)जो ब्रह्मज्ञानी (संन्यासी) हैं, देते समय विवाह वैदिक यज्ञों, युद्ध(उनके लिए जो अभी युद्ध भूमि में जाने वाले हैं), (आक्रमण के कारण)देश में विप्लव के समय तथा दुर्भिक्ष या आपातकाल में मरने वालों के लिए भी सद्यःशौच होता है। 
  
गौतम स्मृति (१४/४३- ४४) का कथन है कि राजाओं (नहीं तो उनके क र्तव्यों में बाधा पड़ेगी) एवं ब्राह्मणों के लिए सद्यःशौच होता है। यही बात शंख- स्मृति लिखित है, (राजा धर्म्यायतनं सर्वेषां तस्मादनवरुद्धः प्रेतप्रसवदोषैः) ने भी कहीं है। (शुद्धिकल्पतरु पृ० ६२ में )। 'सद्यःशौच राजा की उस स्थिति के लिए व्यवस्थिति है, जो पूर्व जन्मों के सद्गुणों से प्राप्त होती है, अतः इस नियम की व्यवस्था उसकी इस स्थिति के कारण ही है।
गोभिलस्मृति (३/६४- ६५) का कथन है कि सूतक में ब्रह्मचारी को अपने विशिष्ट कर्म (वेदाध्ययन एवं व्रत) नहीं छोड़ने चाहिए, दीक्षित होने पर यजमान को यज्ञ- कर्म नहीं छोड़ना चाहिए, प्रायश्चित करने वाले को कृच्छ आदि नहीं त्यागना चाहिए, ऐसे लोग पिता- माता के मरने पर भी  अशुद्धि को प्राप्त नहीं होते। 

कूर्मपुराण (उत्तरार्ध पृ० २३/६१) का कथन है कि नैष्ठिक ब्रह्मचारी (जो जीवन भर वेदाध्ययन करते रहते हैं और गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट नहीं होते) एवं यति (संन्यासी)के विषय में मृत्यु पर आशौच नहीं होता। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य स्मृति ३/२८) का कथन है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास के आश्रमों के विषय में किसी भी समय या किसी भी विषय में आशौच नहीं लगता। संन्यासियों एवं ब्रह्मचारियों को माता- पिता की  मृत्यु पर वस्त्रसहित स्नान मात्र कर लेना चाहिए (धर्मसिन्धु पृ० ४४२)। उन लोगों के विषय में, जो लगातार दान- कर्म में संलग्न रहते हैं या व्रतादि करते रहते हैं, केवल तभी आशौच नहीं लगता, जब कि वें उन विशिष्ट कृत्यों में लगे रहते हैं, किन्तु जब वे अन्य कर्मों में व्यस्त रहते हैं या अन्य लोगों के साथ दैनिक कर्म में संयुक्त रहते हैं तब आशौच से मुक्ति नहीं मिलती।

उदाहरणार्थ- पराशर स्मृति (३/२०- २१) का कथन है कि- शिल्पी (यथा चित्रकार या धोबी या रंगसाज), कारुक (नौकर- चाकर आदि) करने वाले, सत्र(गवामयन आदि)में लगे रहने के कारण पवित्र हो गये लोग, वह ब्रह्मण जो आहितग्नि (श्रोताग्नियों को प्रतिष्ठित करने वाला) है, सद्यःशौच करते हैं, राजा भी आशौच नहीं करता, और वह भी (यथा राजा का पुरोहित), जिसे राजा अपने काम के लिए वैसा नहीं करने देना चाहता। परोहित कार्य व्यवस्था अर्न्तगत सोपा गया है उन्हे आशौच स्थिति आने पर भी अपने सहज क्रम करते रह सकते है देखें- (पराशर स्मृति ३/२०- २१)। 

गौतम स्मृति (१४/११) एवं शंख- लिखित ने व्यवस्था दी है कि उनके लिए सद्यःशौच होता है, जो आत्महन्ता होते हैं और अपने प्राण महायात्रा (हिमालय आदि में जाकर), उपवास, कृपाण जैसे अस्त्रों, अग्नि, विष या जल से या फाँसी पर लटक जाने से, (रस्सी से झूल कर) या प्रपात में कूदकर जान गवाँ देते हैं।

समीक्षात्मक चिन्तन 
उक्त सभी प्रकरणों का विवेचन विवेकपूर्वक करने से निम्नानुसार निष्कर्ष निकलते हैं। 
आशौच का सम्बन्ध क्षेत्र तथा वातावरण को स्वच्छ बनाने तथा विक्षुब्ध मानसिकता को सन्तुलन में लाने के प्रयासों से है। परिवार एवं समाज की व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए शुद्धि के लिए समय और कर्मकाण्ड का निर्धारण किया जाता रहा है। ‘मदन पारिजात’ ने तो इस सम्बन्ध में अपना मत बहुत स्पष्टता से व्यक्त कर दिया है, देखें- लोकसमाचारादनादरणीयमिति केचन। अथवा देशाचारतो व्यवस्था। उत गुणवदगुणद्विषये यथाक्रमं न्यूनाधिककल्पाश्रयेण निर्वाहः। 
 किंवा आपदनापद्भेदेन व्यवस्था। -मदनपारिजात पृ०- ३९२ 
  
अर्थात्- इस सन्दर्भ में विभिन्न व्यवस्थाओं को लोकाचार या देशाचार के अनुसार उचित महत्व देना चाहिए। अथवा इनसे प्रभावित व्यक्तियों के गुणों- अवगुणों पर विचार करके सूझ- बूझ के साथ इनका कम या अधिक निर्वाह करना चाहिए। अथवा इन्हें आपदाओं आदि के अनुसार प्रयुक्त होने या न होने योग्य मान लेना चाहिए। युगऋषि के मार्गदर्शन के अनुसार युगतीर्थ- शान्तिकु ञ्ज हरिद्वार में इसी प्रकार विवेकपूर्वक सूतक- शुद्धि का क्रम औसतन ३ दिन में सम्पन्न करा दिया जाता है।

आज के व्यस्त जीवन में श्राद्ध- शुद्धि की लम्बी अवधि के कर्मों का निर्वाह अधिकांश व्यक्तियों के लिए नहीं है, इसलिए अतिव्यस्तता के कारण- उत्तर भारत के अनेक शहरों में तीन दिन में ही सभी कर्म सम्पन्न किए- कराये जाने लगे हैं। जहाँ परिपाटियों के अनुसार लम्बी अवधि  के कठिन क्रम किए कराए जाते हैं, वहाँ लोग बहुत परेशानियाँ अनुभव करते हैं। श्राद्धकर्म श्रद्धा आधारित होते हैं तभी उनका उचित लाभ मिलता है। जहाँ मजबूरी- लाचारी -परेशानी के भाव आ जाते हैं वहाँ श्रद्धाभाव पीछे खिसक जाते हैं और कर्मकाण्डों का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता ।। इसलिए उचित यहीं है कि मन में से भय या असमंजस निकालकर, विवेकपूर्वक उक्त प्रक्रियाओं का समुचित निर्वाह किया जाय। इस सन्दर्भ में नीचे लिखे अनुसार निर्धारण को अपनाया जा सकता है। 

जन्म और मरण के सूतकों के क्रम में स्थान और वातावरण की शुद्धि के प्रयास विवेकपूर्वक शीघ्र से शीघ्र पूरे किए जायें। इससे सम्बन्धित स्थानों और वस्त्रों की सफाई, भली प्रकार हो। इसके लिए नीम की पत्तियॉ उबालकर तैयार पानी, लाल दवा, फिनायल जैसी सहज सुलभ दवाओं और यज्ञोपचार का उपयोग किया जा सकता है। 

मानसिक सन्तुलन लाने के लिए सामूहिक जप, कथा- कीर्तन आदि का सहारा लिया जाय। मृत्यु प्रकरण में इस हेतु कुछ लोग परम्परागत ढंग से गरुड़ पुराण का पाठ करवाते हैं। वह बुरा तो नहीं, किन्तु आज के समय में उससे एक रूढ़िवाद का निर्वाह भर हो पाता है। परिवार के लोग उतने लम्बे प्रकरण को न तो सुन पाते हैं और न मरणोत्तर जीवन का सत्य समझ कर उसका लाभ उठा पाते हैं। 

इस सन्दर्भ में एक विनम्र सुझाव है कि युगऋषि की लिखी एक छोटी पुस्तक है- ‘‘मरने के बाद हमारा क्या होता है।’’ उसे लगभग एक डेढ़ घण्टे में पढ़ा, सुनाया या समझाया जा सकता है। यदि कोई अध्ययनशील- विचारशील व्यक्ति प्रभावित परिजनों को वह विषय सुना समझा दे, तो उससे बहुत अच्छे ढंग से अपना उद्देश्य पूरा हो सकता है। 

अन्त्येष्टि के बाद तीन दिन में श्राद्ध सहित शुद्धि का क्रम पूरा कर लिया जाय। इसके साथ ही यदि परिजनों की भावना है और व्यवस्था बन सकती है तो १० या १३ दिन तक मृतक का चित्र रखकर उसके सामने तेल का अखण्ड दीपक जलाया जाय। परिवार के सदस्य और स्नेही परिजन वहाँ प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा इष्टमन्त्र या नाम का सामूहिक जाप करें। मृतात्मा की शान्ति- सद्गति के लिए प्रार्थना करें। श्राद्धकर्म शास्त्रसम्मत तथा विज्ञानसम्मत हैं, इसे पूरी श्रद्धा के साथ पूरा किया जाय। इसके लिए संक्षिप्त सर्वसुलभ और प्रभावशाली पद्धति युग निर्माण मिशन द्वारा तैयाार कर दी गयी है। सच्चे श्राद्ध के कई लाभ होते हैं, जैसे- 
  • अपने पितरों की सन्तुष्टि और सद्गति के लिए अपनी सामर्थ्य भर श्रद्धापूर्वक प्रयास करना हर व्यक्ति का धर्म- कर्तव्य बनता है। इसे पूरा करने वालों की श्रद्धा विकसित होती है, कर्तव्य पूर्ति का सन्तोष मिलता है और पितृदोष जैसी विसंगतियों से बच जाते हैं। 
  • श्राद्ध कर्म करने वालों को सन्तुष्ट पितरों के स्नेह अनुदान सहज ही मिलते रहते हैं। 
  • श्रद्धा- कृतज्ञता के भावों का विस्तार होता है, उससे सूक्ष्म वातावरण अनुकूल बनता है तथा नई पीढ़ी में भी वे भाव सहजता से जाग जाते हैं। श्राद्ध के साथ जुड़ी कुरीतियों, अन्ध परम्पराओं (जैसे- खर्चीले- मृतकभोज, आशौच की मनगढ़न्त परिपाटियों आदि) को महत्व न देकर उनका निर्वाह विवेकपूर्वक किया जाय। 
  • हर समाज एवं हर वर्ग के प्रगतिशील, भावनाशील, समझदार व्यक्ति इस दिशा में जन- जागरूकता लाने तथा परिपाटियों को विवेक सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयास करें। 
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