आजकल संस्कृति का अर्थ बहुत सीमित रूप में लिया जाने लगा है। भारतीय जीवन-पद्धति, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान, हमारे सामाजिक जीवन, व्यापार संगठनों, उत्सव, पर्व, त्यौहार आदि जिनके सम्मिलित स्वरूप से हमारी संस्कृति का बोध होता था वहां आज संस्कृति का अर्थ खुदाई में प्राप्त प्राचीन खण्डहरों के स्मृति-चिन्ह, नृत्य-संगीत के कार्य-क्रम, या कुछ प्राचीन तथ्यों के पढ़ने लिख लेने तक ही संस्कृति की सीमा समझ ली जाती है। प्राचीन ध्वंसावशेषों की खुदाई करके संस्कृति के बारे में तथ्य निर्णय करने के प्रयत्न पर्याप्त रूप में होते जा रहे हैं। यह सब प्राचीन इतिहास और हमारे सांस्कृतिक गौरव की जानकारी के लिए आवश्यक भी है लेकिन इन्हीं तथ्यों को संस्कृति मान लेना भारी भूल है।
भारतीय संस्कृति तो एक निरन्तर विकासशील जीवनपद्धति रही है, उसे इन संकीर्णताओं में नहीं बांधा जा सकता। इतिहास के रूप में उसे एक अंग अवश्य माना जा सकता है।
आजकल सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर नृत्य-संगीत के कार्यक्रम होते देखे जाते हैं। यद्यपि नृत्य-संगीत कला, आमोद-प्रमोद भी हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं लेकिन इन्हें ही सांस्कृतिक आदर्श मानकर चलना संस्कृति के बारे में अज्ञान प्रकट करना ही है। हमारी संस्कृति केवल नाच-गाने तक ही सीमित नहीं है। इसमें जहां आनन्द उल्लास का जीवन बिताने की छूट है वहां जीवन के गम्भीर दर्शन से मनुष्य को महा-मानव बनने का विधान भी है। हमारे यहां का ऋषि कला का साधक भी होता था, तो जीवन और जगत के सूक्ष्मतम रहस्यों का उद्गाता—दृष्टा भी। पर्व त्यौहारों के रूप में सामूहिक आनन्द उल्लास का जीवन भी बिताया जाता था तो सामाजिक, राजनैतिक सुधारों पर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में गंभीर विचार विमर्श भी होता था। ऐसी थी हमारी संस्कृति। उसे केवल नृत्य संगीत के कार्य-क्रमों तक ही सीमित रखना उसके महत्व को न समझना ही है।
बहुत कुछ अर्थों में संस्कृति, इतिहास की तरह पढ़ने लिखने की वस्तु मान ली गई। हमारे दैनिक जीवन में सांस्कृतिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं। संस्कृति के सम्बन्ध में खोज करने वाले स्वयं सांस्कृतिक जीवन नहीं बिताते। उनका रहन-सहन आहार-विहार जीवन-क्रम सब विपरीत ही देखे जाते हैं।
भारतीय संस्कृति के लिए एक सबसे बड़ा खतरा है, वह है—पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार अभियान। इसकी शुरूआत तभी से हो गई थी जब से अंग्रेज यहां पर आए थे। अपने शासन काल में उन्होंने सभी प्रकार अपनी संस्कृति के प्रसार की नींव मजबूत कर ली। ईसाई मिशनरियों के द्वारा प्रचार और स्कूल कालेजों में शिक्षा के माध्यम से ईसाइयत का प्रसार भारत में शुरू किया और यह आज के स्वतन्त्र भारत में बढ़ा ही है कम नहीं हुआ है।
संस्कृति के इस प्रचार अभियान के कारण प्रतिवर्ष लाखों भारतीय ईसाई बन रहे हैं। स्वदेशी रहन-सहन, भाषा, भाव, विचारों का परित्याग करके वे अपने सांस्कृतिक गौरव को भुला रहे हैं। उधर विदेशी लोग अपनी संस्कृति के प्रसार के लिए करोड़ों रुपया पानी की तरह बहा रहे हैं। जन सेवा के लिए चलाए जाने वाले समस्त ईसाई चर्च, स्कूल, अस्पताल सेवा संस्थायें आदि मूल रूप में ईसाइयत के प्रचार संस्थान हैं।
ये लोग भारतीयों की आस्थाओं को नष्ट करके, बहका-फुसलाकर, नौकरी, विवाह, शिक्षा तथा अन्य वस्तुओं का लोभ देकर उन्हें अपनी संस्कृति में रंग रहे हैं। आसाम, बम्बई, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा, केरल, मद्रास के आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरी पूरे जोर-शोर के साथ अपना काम कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में जांच, पड़ताल करने पर बड़े सनसनी पूर्ण तथ्य मिलते हैं।
ईसाई स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली बहुत सी पुस्तकों में हमारी संस्कृति के आदर्श नायक राम और कृष्ण के सम्बन्ध में घृणित विचार मिलते हैं। एक पुस्तक के अनुसार वह (श्रीकृष्ण) चोर था, उसने निरपराध धोबी का वध किया। ऐसे देवताओं की पूजा करना मूर्खता है।’’ इस तरह भगवान राम के बारे में—
‘‘राम बड़ा पापी था उसने रावण का वध किया।’’ फिर इस तरह हिन्दू-संस्कृति के आधारों के प्रति आस्था नष्ट करके वे ईसा के प्रति भक्ति जगाते हैं। उसे मानव का कल्याणकारी बताकर लोगों को उसकी पूजा करने, ईसाई बनने का कूटनीतिक प्रयत्न इन ईसाई मिशनरियों द्वारा हमारे देश में कम नहीं चल रहा। इससे हमारी संस्कृति की नींव ही खोखली होती जा रही है। भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा भाग आज ईसाई बनकर अपनी प्रेरणा और जीवन पद्धति का आधार पश्चिम को मान कर चलता है।
ये लोग भारत में इस तरह रहते हैं मानो ये विदेशी हों। कैसी विडम्बना है?
हमारी संस्कृति के लिए विदेशियों द्वारा जहां ईसाइयत के प्रवार का खतरा है, उससे कम खतरा अपने स्वयं के पश्चिमी अनुकरण के प्रयास का भी नहीं है। हम लोग अपने रहन-सहन, जीवन-पद्धति, विचारों की प्रेरणा के लिए पश्चिम की ओर देखते हैं। उनका अनुकरण करते हैं। जहां तक अपनी संस्कृति का सवाल है हम उसे भूलते जा रहे हैं। आज हमारी बोली भाषा वस्त्र, रहने का ढंग विदेशी बनता जा रहा है।
स्वच्छ और सादा ढीले वस्त्र जो हमारी भौगोलिक स्वास्थ्य सम्बन्धी परिस्थितियों के अनुकूल थे उनकी जगह पश्चिम का अनुकरण करके भारी गर्मी में भी कोट पेन्ट पहनते हैं। आज का शिक्षित समाज ‘वस्त्रों की दृष्टि से पूरा पश्चिमी बन गया है। धोती-कुर्ता पहनने में बहुत से लोगों को शर्म और संकोच महसूस होता है। पढ़े-लिखे लोगों में अंग्रेजी बोलना एक फैशन बन गया है। हिन्दी, संस्कृत या अन्य देशी भाषा बोलने में मानो अपना छोटापन मालूम होता है। दिवाली आदि पर्व त्यौहारों पर, किन्हीं सांस्कृतिक मेलों पर, हममें वह उत्साह नहीं रहा, लेकिन ‘फर्स्ट अप्रैल फूल’ ‘बड़ा दिन’ जैसे पश्चिमी त्यौहार मनाने में हम अपना बड़प्पन समझते हैं।
एक समय था जब विश्व के विचारक, साहित्यकार भारत से प्रेरणा और मार्ग दर्शन प्राप्त करते थे। इसे अपना आदि गुरु मानते थे। इसे सभी विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है। लेकिन आज हमारे देश में इससे विपरीत हो रहा है।
आज हम साहित्यिक विचार साधना के क्षेत्र में पश्चिम का अनुकरण करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें वहां के साहित्य का अध्ययन नहीं करना चाहिए, यह तो किसी भी विचारशील व्यक्ति के लिए आवश्यक है। किन्तु अपने मौलिक सांस्कृतिक तथ्यों, प्रेरणाओं को भुलाकर पश्चिम का अन्धानुकरण करना हमारी संस्कृति के लिए बड़ा खतरा है। इससे वह कमजोर होती है।
एक सबसे बड़ी बात यह है कि हममें भारतीयता का, अपनी संस्कृति का, गौरव नष्ट होता जा रहा है। भारतीय कहलाने में हमारा सीना तन नहीं जाता। अपनी संस्कृति के प्रति इसमें भक्ति भावना, निष्ठा आज नहीं रही है, ऐसी निष्ठा, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने अनगिनती कष्ट सहे थे, बड़े-बड़े प्रलोभनों को ठोकर मार दी थी।
पाश्चात्य देशों ने जहां अपनी संस्कृति, सभ्यता के प्रचार के लिये करोड़ों रुपया बहाया है, अनेकों कष्ट सहे हैं, वहां हमने अपनी संस्कृति के प्रति पूरी-पूरी वफादारी भी नहीं निभायी है।
काश! हमने इस सम्बन्ध में थोड़ा भी प्रयत्न किया होता तो आज संसार की स्थिति इससे भिन्न होती। ईसाइयत के स्थान पर आज भारतीय संस्कृति—मानव-संस्कृति का प्रभुत्व होता, जो संसार को तोड़ने के बजाय जोड़ती, विनाश के बजाय पालन पोषण के साधनों की खोज करती। विघटन के स्थान पर एकत्रता पैदा करती। बुद्धि चातुर्य, छल छद्म कूटनीति के स्थान पर हार्दिकता बढ़ती।
आज के युग में हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है कि हम अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचायें। इसके प्रति आस्थावान् बनें। सांस्कृतिक मूल्यों को अपने जीवन में उतारें। साथ ही इसका प्रचार-प्रसार भी करें।