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हमारी जातिप्रथा और उसका वर्तमान स्वरूप

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भारतवर्ष के पराधीन होने में जाति-पांति भी एक बड़ा कारण रहा है। एक देश होते हुए भी जाति भेद के कारण यहां के निवासियों में एक राष्ट्रीयता के भाव का सदैव अभाव रहता था।

विदेशी आक्रमण के समय जिस प्रकार राज्य विभाजन देश की पराजय का कारण बना उसी प्रकार जाति-भेद भी। एक ही देश का भाग होते हुए भी एक राजा से लड़ाई के समय दूसरा राजा उसकी मदद के लिए तैयार न होता था जिससे सहज ही एक-एक करके विदेशियों ने भारत के सारे राजाओं को जीतकर या तो उनका राज्य अपने साम्राज्य में मिला लिया अथवा उन्हें अपने अधीन कर लिया।

इन भारतीय राजाओं की फूट तथा पारस्परिक अनैक्य का कारण केवल राजनीतिक ही नहीं था। इसमें वंशगत भेदभाव और ऊंच-नीच की भावना भी शामिल थी। राजपूत क्षत्रिय राजाओं में भी देश की अन्य जातिओं की तरह एक दूसरे को ऊंच-नीच अथवा कुलीन-अनुलीन समझने की कुप्रवृत्ति मौजूद थी। सूर्य, अग्नि आदि वंशाधार के आधार पर एक दूसरे को बड़ा अथवा छोटा मानते थे। केवल इतना ही नहीं इन वंशों में भी अवान्तरता थी और अनेक ऊंच-नीच वंशों का क्रम चलता रहता था। राजपूत राजाओं का यह जातीय दृष्टिकोण ऊंच-नीच की गणना तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह रोटी, बेटी, स्वयंवर उत्सव, तथा निमंत्रणों के समय स्पष्ट रूप से सामने आता था। अनेक राजाओं को जातीय आधार पर सभाओं में निम्न स्थान दिया जाता था, स्वयंवरों के समय उसका बहिष्कार अथवा तिरस्कार किया जाता था। पूर्व कालीन लिच्छनि, वज्जि आदि राजवंशों में श्रेष्ठता के आधार पर वैमनस्य रहा है, मौर्य, वृषल, नन्द आदि ऊंच-नीच के आधार पर एक दूसरे के जानी दुश्मन रहे हैं। पृथ्वीराज चौहान और जयचन्द राठोर ने राजनीतिक आधार के अतिरिक्त श्रेष्ठता के दम्भ पर भी सर टकराये हैं। बनाफल, परिमाल, चंदेल व परिहारों ने कुलीनता के नाम पर सदियों खून बहाया है। राजपूत, आभीर, मराठे, जाट, गूजर, आदि न जाने कितनी योद्धा जातियां क्षत्रिय-अक्षत्रिय होने के प्रश्न पर लड़ती मरती रहीं हैं। इस प्रकार इस ऊंच-नीच, कुलीन, अकुलीन जातीय भेदभाव की भिन्नतापूर्ण भावना ने राजपूत राजाओं का सर्वनाश ही करके छोड़ा। जिसका फल यह हुआ कि सम्पूर्ण हिन्दू-जाति ही बर्बर, विदेशियों, विजातियों एवं विधर्मियों की गुलाम बनकर रह गई।

राजपूत राजाओं का यह भेदभाव केवल राजनीतिक पराधीनता तक ही सीमित नहीं रहा। आगे चल कर भी उन्होंने आंख न खोली और श्रेष्ठता, कुलीनता का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए विधर्मी विजेताओं के तलवे चाटे और एक दूसरे को जड़मूल से मिटा देने के लिए जी भर कर उनकी सहायता की। आगन्तुक आक्रान्ताओं ने राजपूत राजाओं की इस जातीय-भेद भावना का खूब लाभ उठाया और उनके शौर्य का पराकाष्ठा तक शोषण किया और अपने साम्राज्य की जड़े मजबूत कीं।

इस जाति-भेद भाव ने जब राजकाज चलाने वाले राजाओं को पराधीनता स्वीकार करने और राज्य खोदने तक तैयार कर दिया तो यह दम्भ साधारण समाज में क्या-क्या करके न दिखा देता। जिस प्रकार राजपूत राजा जातीय दम्भ के वशीभूत होकर अपने पड़ौसी राजाओं की सहायता न करके विदेशियों से मिल जाया करते थे उसी प्रकार समाज में जनसाधारण भी एक जाति पर होते हुए आक्रान्ताओं के अत्याचारों को देख कर प्रसन्न ही होते थे। उनमें से बहुत-सी जातियां भी कुलीनता प्राप्त करने अथवा अकुलीनों को बर्बाद करने के लिए आक्रान्ताओं से जा मिलीं! यह नहीं अनेक जाति भेद अथवा कुल-वंश के आधार पर तिरस्कृत एवं बहिष्कृत होकर अपनी पीड़ा मिटाने के लिए आक्रान्ताओं एवं विजेताओं के धर्म में ही दीक्षित हो गईं, जो आज भी मेव, मलकानों, घोसियों आदि के रूप में मुसलमान हुई जातियां भारत में मौजूद हैं। सरहद और अफगानिस्तान के पठान विशुद्ध वीर राजपूत थे। (जोकि तत्कालीन भारतवर्ष के प्रवेश द्वार ‘आवागमन स्थान’ जो कि बिगड़ कर अफगानिस्तान हो गया है) पर आक्रान्ताओं को रोकने के लिए बसाये गये थे। किन्तु बहुत समय तक सीमान्त पर रहने के कारण भारत के संकीर्ण एवं अहंकारपूर्ण जातीय दंभ ने राजपूत तो दूर हिन्दू मानने तक से इनकार कर दिया और यहां तक उनका बहिष्कार किया कि आखिर सामाजिकता प्राप्त करने के लिए उन्हें आक्रमणकारी से मिलना ही पड़ा।

यदि राजपूत राजाओं और भारत के सामरिक वर्गों के बीच दम्भपूर्ण जाति-गत-भेद भाव और श्रेष्ठता निकृष्टता का वैमनस्य न होता और उन सब में एक जाति और पारस्परिक समानता का सद्भाव रहा होता तो भारत में सैकड़ों आक्रान्ताओं का आना तो दूर एक कानी चिड़िया भी तो पर न मार सकती थी। और भारत में जब तक यह आत्मिकता रही उसका शौर्य सूर्य अपनी परमाविधि पर ही चमकता रहा है। आगे भी जिस दिन भारत की हिन्दू-जाति अपनी इस जातीयता एवं संकीर्णता से ऊपर उठ कर समरस हो जायेगी, इस सनातन राष्ट्र की पताका दिग्दिगन्त में फहराती नजर आने लगेगी।

आज भारत में जितने भी अहिन्दू समाज दीख रहे हैं उनमें अस्सी प्रतिशत से अधिक भारत के वे वर्ग हैं जो हिन्दुओं के बीच फैली जातिवाद तथा ऊंच-नीच की भावना से त्रस्त होकर उधर चले गये हैं, और आज भी वर्ग के वर्ग, समुदाय के समुदाय, इलाके के इलाके और गांव के गांव उधर मिलते चले जा रहे हैं, किन्तु हिन्दू-समाज में इसके प्रति कोई सक्रिय चिन्ता दिखाई नहीं देती।

जाति-भेद हिन्दू समाज की कोई धार्मिक अथवा वैधानिक व्यवस्था नहीं है। यह एक सामाजिक विकृति है, सामयिक गन्दगी है, जो शताब्दियों पूर्व की राजनीतिक उथल-पुथल और धार्मिक परिवर्तनों से आ गई है। इधर अपने-अपने संस्कारों के अनुसार लाभ के लोभ में एक वर्ण के लोगों ने दूसरे वर्ण के लोगों में मिलना अथवा उसमें दीक्षित होना नापसन्द भी करना छोड़ दिया है। ब्राह्मण निर्धन रहकर भी अध्ययन अध्यापन के फलस्वरूप पाये आदर सम्मान से सन्तुष्ट रहने लगे, क्षत्रिय राजदण्ड पाकर मगन हो गये और वैश्य व्यवसाय, व्यापार तथा समाज के सम्पूर्ण अर्थ तन्त्र पर एकाधिकार मिल जाने से आनन्दित रहने लगे। साथ ही इन तीनों वर्णों ने चौथे शूद्र वर्ण को अपनी सेवा के लोभ से कुछ नीति, कुछ लोभ और कुछ सख्ती से अपनी स्थिति में सन्तुष्ट रहने के लिए मजबूर किया। इस प्रकार यह चार वर्ण, चार भिन्न जातियों में स्थायी रूप से बदल गये।

अनन्तर समाज के विकास होने, जनसंख्या और आवश्यकतायें बढ़ने से हर वर्ण की प्रत्येक विषय की आत्म-निर्भरता समाप्त होने लगी और एक दूसरे के व्यवसायों तथा कर्मों में प्रवेश करने को मजबूर होने लगे जिसके परिणाम स्वरूप एक दूसरों के बीच ब्याह शादियां भी हुईं जिससे अनेक वर्णशंकर जातियों का आविर्भाव होने लगा। इधर प्रत्येक वर्ण में जनसंख्या बढ़ जाने से उनमें व्यापार, व्यवसाय, जीविका के साधनों देशान्तर, आहार-विहार एवं आचार-विचार के आधार पर विभिन्न जातियों का नामकरण होने लगा। इसी प्रकार वर्णों से जातियां, जातियों से उपजातियां, उपजातियों से प्रजापतियां और प्रजापतियों से अनुजातियां दिनोंदिन बनती ही चली गईं।

धर्म प्रधान होने से हिन्दू सदैव से अपनी धार्मिक नेताओं पर अपार श्रद्धा करते और उनके वचनों में विश्वास करते रहे हैं। धर्म के आधार पर लाभ उठाने वाले नेताओं का जिन्होंने अधिक मान किया उन्हें उन्होंने ऊंचा और जिन्होंने उतना सम्मान न कर पाया उन्हें नीच होने की व्यवस्था देनी शुरू कर दी। जरा-जरा सी भूल-चूक पर सामाजिक बहिष्कार होने लगा, तनिक से विरोध पर ‘समाज निकाला’ मिलने लगा।

इन सब कारणों के अतिरिक्त हिन्दुओं में जातीय वैमनस्यता का सबसे बड़ा कारण अभी कुछ समय पूर्व आये उन आक्रान्ताओं का षडयन्त्र है जो भारत में केवल बसने अथवा राज्य करने के मन्तव्य से ही नहीं आये बल्कि यहां की हिन्दू जाति को मिटाकर पूरी तरह अपने धर्म में मिला लेना चाहते थे। उन्होंने इस काम के लिए जितना तलवार से काम लिया उससे सौ गुना भेद नीति से काम लिया।

सम्प्रदाय वृद्धि के स्वार्थ में लगे धार्मिक नेताओं को अपने साथ मिलाया। उन्हें सहायता की, पद और पदवियां दीं और इसके बदले में जातीय आधार पर मनमानी फूट डलाई, अनन्त बहिष्कार कराये। एक ओर वे ऐसा करते थे और दूसरी ओर सहानुभूति का हाथ बढ़ा कर अपने में मिला लेते थे।

इस प्रकार यदि गहराई से देखा जाय तो हिन्दू की जाति प्रथा के मूल में अहित कांक्षियों का षडयन्त्र ही है, कोई धार्मिक अथवा सामाजिक आधार नहीं है अतएव अपनी गलती समझते और इस परिस्थिति को सुधारने के लिए अब हमें कटिबद्ध होना ही चाहिए। एक जाति और एक राष्ट्र की कल्पना ही हमारे पूर्व गौरव को बचा सकती है, हमारी शक्ति और संगठन को जीवित रख सकती है।

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