यह बात नितान्त सत्य है कि किसी मृतक व्यक्ति का सम्बन्धी मृतक भोज खुशी से नहीं देता। वह इस अनुचित एवं अपव्ययी दण्ड को मजबूरन सहन करता है—क्योंकि समाज में इसकी प्रथा चल रही है और वह एक सामाजिक व्यक्ति है, समाज की रीति-नीतियों का उल्लंघन कर सकना उसके वश की बात नहीं है।
किसी अमीर आदमी की बात तो छोड़ दीजिए। वह अपने मरों के नाम पर कुछ भी खर्च कर सकते हैं, बांट सकते हैं, लुटा सकते हैं। उनमें सामर्थ्य होती है। ‘‘समरथ को नहीं नहीं दोष गुसाईं’’ के अनुसार उन्हें तो कोई भी प्रदर्शन एवं शोन-शेखी जेवा देती है। प्रश्न उन साधारण व्यक्तियों का है जो दोनों छाक अपने बच्चों के लिये भोजन भी कठिनता से जुटा पाते हैं और जिनकी संख्या समाज में अस्सी-नब्बे प्रतिशत से कम नहीं होती। इस प्रकार की आर्थिक आत्म–हत्या का प्रश्न उन्हीं सामान्य लोगों के लिये ही है।
समाज में जब तक मृतक-भोज जैसी विनाश कारी प्रथा प्रचलित ही है तब उसको किस प्रकार रोका जाये—इस पर विचार करने से इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि मृतक-भोज खाने वालों को ही इसका प्रचलन रोकने के लिये उदारतापूर्वक तत्पर होना चाहिये।
जब किसी का कोई स्वजन मर जाता है तब सामाजिक नियम उसे मृतक भोज देने के लिए तकाजा करता है। इस तकाजे में परोक्ष रूप से उस जातीय बहुमत का दबाव रहता है जो उसके यहां खाने के लिए जाने वाला होता है। यद्यपि यह बहुमत मृतक व्यक्ति के घर जाकर उसके सम्बन्धी से सीधे-साधे भोज की मांग नहीं करता तब भी उसकी यह मांग जातीय बहिष्कार के रूप में नग्न हो उठती है जब कोई आर्थिक कठिनाइयों के कारण मृतक भोज नहीं दे पाता अथवा देने में आना-कानी करता है। इस प्रकार यह दबाव खाने वालों की ओर से ही पड़ा करता है। यदि भोजन का लोभ छोड़ कर जातीय बन्धु थोड़ी उदारतापूर्वक काम लें तो यह समस्या सहज ही हल हो सकती है।
इस मान्यता में कोई तथ्य नहीं कि घर में बहुत लोगों के भोजन करने से सूतक दूर होता और घर पवित्र होता है। कई बार इसी मान्यता के कारण बहुत से भाई किसी एक भाई के घर जाकर और खाकर पवित्र करते हैं। यदि ऐसा ही हो तो एक बड़े भोज का दण्ड देने के बजाय किसी ऐसी वस्तु की व्यवस्था की जा सकती है जिसमें किसी गरीब आदमी का बहुत कुछ खर्च न हो। ऐसी वस्तुओं से शक्कर या गुड़, शरबत जैसी वस्तुओं तक सीमित रहा जा सकता है।
पुण्य पर प्रभाव पड़ने के कारण ही अच्छे और सच्चे सन्त महात्मा किसी का दान लेने अथवा अन्न खाने से यथासम्भव बचा करते हैं दान लेना और दान रूप अन्न को खाना पचाना सबके वश की बात नहीं है। इन दोनों चीजों का प्रभाव मनुष्य की आत्मा पर अवश्य पड़ता है वह सुनिश्चित तथ्य एवं सत्य है। किन्तु इसका प्रभाव इतने परोक्ष एवं सूक्ष्म रूप से पड़ता है कि साधारण विवेक का व्यक्ति उसे देख जान नहीं पाता। उसका पता तब चल पाता है जब सारे संस्कार विकृत हो जाते हैं और मनुष्य अपने आचरण में एक बड़ा और विपरीत परिवर्तन पाता है। किन्तु तब तक प्रभाव इतना गहरा हो चुका होता है कि उसको मिटा सकना टेढ़ी खीर बन जाता है। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग दान रूप अन्न को समझ बूझकर ही खाते हैं।
यह व्यवस्था तो उस अन्न की है जिसमें देने अथवा खिलाने वाले की आत्मिक श्रद्धा तथा प्रसन्नता रहा करती है। इसके विपरीत जिन अन्य भोजन अथवा अन्न दान में देने वाले की श्रद्धा भक्ति तो दूर उल्टे पीड़ा पूर्ण आहें जुड़ी रहती हैं उसके भयंकर प्रभाव का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता और निश्चय ही मृतक भोज का दण्ड भुगतने वाले की आत्मा के आंसू उसमें सम्मिलित रहते हैं। भले ही मजबूरन कोई प्रथा-पालन की विवशता में मृतक भोज दें और कितनी ही प्रसन्नता क्यों न दिखाये और खाने वालों को धन्यवाद देकर आभार प्रकट करे, पर वास्तविकता यही होती है कि यह सारा शिष्टाचार ऊपरी होता है भोज देने वाला मन ही मन रोया करता होगा। एक तो जिसका कोई स्वजन मर गया हो दूसरे उसे ऊपर से अपनी सामर्थ्य के बाहर मृतक भोज जैसे आर्थिक दण्ड को भुगतना पड़े और तब जब किसी की मृत्यु में उसका कोई अपराध नहीं, कोई हाथ नहीं, तो वह रोयेगा नहीं क्या हंसेगा, खुश होगा? वह न सही उसकी मूक आत्मा अवश्य ही इसके लिये समाज को कोसेगी। इसलिये, इस प्रकार मृत्यु-भोज का अन्न किसी भी खाने वाले के लिये हितकर नहीं है।
इस पाप-पुण्य की सूक्ष्म बात को छोड़ कर यदि साधारण सामाजिकता की स्थूल बात भी ले ली जाय तब भी मृतक भोज खाने की प्रथा उचित नहीं। अब आज के अर्थाभाव एवं महार्घता के समय में किसी के मरने पर मृतक भोज में इतना धन खर्च कर सकना कौन बुद्धिमानी की बात है। जहां कठिनता से नमक रोटी जुड़ती हो, वहां साधारण स्थिति का कोई व्यक्ति इतने रुपये किस प्रकार बचा कर रख सकता है कि शोक-संयोग आने पर वह घर से तत्काल निकाल कर मृतक-भोज आदि में खर्च कर सके। निश्चय ही उसे इस प्रथा पिशाचिनी की भेंट-पूजा के लिये कर्ज लेना होता है और एक बार एक सामान्य आदमी के लम्बी रकम कर्ज लेने का अर्थ है अपने को आजीवन मूल तो दूर ब्याज के हाथ बेच देना। बच्चों के पालन पोषण और परिवार के संचालन के लिए आवश्यक कमाई का अधिकांश नियमित रूप से महाजन के हवाले करते रहना। अथवा अपनी जमीन-जायदाद, गहने, बर्तन बेचने के लिए मजबूर होना। मृतक-भोज की प्रथा ग्रस्त लोगों पर यह आर्थिक आपत्ति आये दिन ही रहती है, जिसको सभी प्रथा पालक देखते-सुनते ही रहते हैं।
खेद का विषय है कि किसी एक विषय में खुद तो लोग कुछ जानते नहीं, केवल आंख मीचे हुये लकीर पीटे चले आ रहे हैं और यदि कोई विचारशील व्यक्ति उनकी हित चिन्ता से कुछ बता कर सुधार करने का परामर्श देता है तो सुधार करना तो दूर उसकी बात भी ध्यान से नहीं सुनना चाहते। इसे समाज का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?जिन समाजों के सदस्य इस प्रकार के प्रतिगामी समाजों के सुधार के लिये उसके जागरूक तथा सम्पन्न व्यक्तियों को आगे निकल कर सामाजिक मूढ़ता के विरुद्ध सुधार का अभियान छेड़ ही देना चाहिये।
समाज में मृतक-भोज की कुप्रथा इसी प्रकार की प्रतिगामिनी विचारधारा के कारण ही अब तक चली आ रही है नहीं तो इसकी निःसारता, निरर्थकता तथा अहितकारिता बहुत पहले सिद्ध हो चुकी है और लोग इसके दुःखद परिणामों से बहुत अधिक त्रस्त हो चुके हैं। अब यह कुप्रथा अन्ध-विश्वास के एक कच्चे सूत्र के आधार पर टिकी है। अब आवश्यकता केवल इस बात की है कि समाज के बुद्धिमान् साहसी लोग इसका प्रचलन उठा कर मृत्यु भोज के बहिष्कार की नई स्वस्थ एवं हितकर परम्परा का सूत्रपात कर दें। सूत्रपात भर की देर है बाकी समाज के लोग तो भेड़चाल की आदत वाले होने से यों ही बहिष्कार करने लगेंगे। अब देखना यह है कि मृतक भोज के बहिष्कार का प्रथम सूत्रधार बनकर श्रेय कौन साहसी कहां और किस समय लेता है?
असलियत वास्तव में यह है कि अपने किसी स्वजन सम्बन्धी की मृत्यु पर किसी को प्रसन्नता होती नहीं जिसमें वह इस प्रकार के भोज करने के लिये उत्साहित हो। यह मृतक-भोज वह खुशी से नहीं करता बल्कि उसमें जबरदस्ती कराया जाता है। यदि मृतक-भोज खाने वाले भोजन करने को तैयार न हों तो किसी भी शोक संतप्त व्यक्ति को उत्साह न होगा कि वह एक बड़ी दावत का आयोजन करे ही और लोगों को खाने के लिए सानुरोध आमन्त्रित करे। यदि लोग एक बार खाने से इन्कार करें तो भोज देने को विवश—मृतक का सम्बन्धी खुशी-खुशी दस बार अपनी बर्बादी बचाने को तैयार हो जाये और लोगों का आभार माने।
यदि एक बार किसी खुशी के अवसर पर कोई किसी भोज का आयोजन करता है और उसके इष्ट-मित्र सम्बन्धी तथा सजातीय लोग आने और खाने से इन्कार कर दें तब तो अवश्य कुछ दुःख का विषय हो सकता है। मृतक-भोज के लिये आने और भोजन करने से इन्कार किये जाने पर आयोजक के दिन दुःखने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह तो उसकी प्रसन्नता का प्रसंग होगा। स्वजन के शोक के साथ मृतक-भोज की अनावश्यक, अपव्ययता के दोहरे दण्ड से बच कर वह न जाने कितना खुश होगा।
हां इसमें थोड़ी सी यह बात अवश्य हो सकती है कि इस भोज के मृतक का सम्बन्धी स्वजनों एवं जातीय लोगों के आगमन से अपने तथा अपने घर को पवित्र होने की जो धारणा रखता है उसको कुछ ठेस लगेगी। इसके स्थान पर पवित्रीकरण के लिए थोड़ा कर्मकांड एवं थोड़ा दान-पुण्य स्वेच्छापूर्वक किया जा सकता है।
अब मृतक-भोज के समर्थकों एवं परिपालकों को सोचना चाहिए कि वे अपने किसी सजातीय बन्धु पर मृतक-भोज देने के लिए दबाव डाल कर कितना बड़ा अत्याचार करते हैं। किसी का घर बरबाद कर देना सामाजिकता अथवा सजातीयता इसमें है कि मृतक भोज का दण्ड देने के बजाय अपने जातीय बन्धु को अधिक से अधिक सान्त्वना दी जाये, उसे न घबराने के लिए ढांढस बंधाया जाये और यदि घर का संचालक दिवंगत हो गया है तो उसकी विधवा तथा बच्चों की यथासंभव सहायता की जाये। चाहिए तो यह कि उसकी जाति-बिरादरी के लोग और बन्धु-बांधव अपने शोक-संतप्त भाई को सान्त्वना एवं सहायता दें किन्तु लोग उससे मृतक-भोज लेकर मरे को और मार डालते हैं यदि कोई इस दण्ड का भार वहन नहीं कर पाता तो उसकी जाति बाहर करके दीन-दुनियां के अयोग्य बना देते हैं।
अपने किसी सजातीय अथवा बन्धु-बांधव की इस प्रकार उभय प्रकारेण हत्या ठीक नहीं। इससे सामाजिक एवं जातीय ह्रास होता है। बन्धु-वध जैसा पाप लगता है। अस्तु, आवश्यक है कि मृतक भोज खाने वाले इसे हर प्रकार से अनुचित समझकर इसका सर्वथा बहिष्कार करके समाज एवं जाति का उपकार करें।