भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

मन्दिर जन-जागरण का उत्तरदायित्व संभालें

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ईश्वर-भक्ति का मतलब इतना ही नहीं कि कुछ जपकर लिया जाय, देव प्रतिमा को भोग चढ़ा दिया जाय अथवा किसी धार्मिक पुस्तक का पाठ कर लिया जाय। थोड़े से क्रिया-कृत्य से ईश्वर को प्रसन्न कर लेने वाली बात पूरी हो जाती तो संसार के सभी लोग परमात्मा की कृपा-अनुकम्पा स्वल्पश्रम से ही प्राप्त कर लेते। जीवन को सुविकसित, सुसंस्कृत, सद्गुणी तथा व्यवस्थित बनाने की कठिन साधना की कोई जरूरत न होती। ईश्वर का नाम लेते ही सारे लौकिक, पारलौकिक लाभ मिल जाते तो संसार का कोई भी व्यक्ति दीन दुःखी या दरिद्री न होता सब आनन्द से सुख पूर्वक रह रहे होते।

ईश्वर उपासना का एक महत्वपूर्ण अंग धर्मनिष्ठा का अभाव न होना भी है। मनुष्य के भीतर भरे हुए कुविचार कुकर्म, दुर्भाव और दुष्प्रवृत्तियों का शमन न हो तो कर्म-काण्ड मात्र का जप तप आत्मिक स्तर को ऊपर नहीं उठा सकता इसके लिए सदाचार, सद्गुण और नैतिकता की भी आवश्यकता है। धर्मनिष्ठा का तात्पर्य यही है कि लोग जहां ईश्वर प्राप्ति के लिए जप तप, पूजा, प्राणायाम आदि प्रक्रियाओं का प्रश्रय ग्रहण करें वहां व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छता और सात्विकता की वृद्धि तथा बुराइयों का परित्याग भी करते रहें।

मंदिरों के निर्माण का उद्देश्य जनमानस में इस उभय-पक्षीय व्यवस्था में सन्तुलन रखने में योग देना था। जन-साधारण के अन्तःकरण में उपासना और जीवन-शोधन की क्रिया को जागृत रखने, व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायण, आदर्शवादी तथा सुविकसित व्यक्तित्व बनाये रखने की दृष्टि से ही किसी समय मन्दिरों का प्रादुर्भाव हुआ था। वह एक प्रकार से विद्या, बुद्धि, संस्कार एवं सद्प्रवृत्तियों को चारों दिशाओं में फैलाने वाले केन्द्र समझे जाते थे। विद्वान, महात्मा जिनके व्यक्तिगत रूप से न कोई घर होते थे न परिवार, इन मन्दिरों में रहकर समाज को समुन्नत रखने वाली प्रवृत्तियों का संचालन करते रहते थे। यही कारण था कि उन दिनों आमतौर पर समाज में आसुरी शक्तियों की प्रबलता न होने पाती थी। मन्दिरों द्वारा प्रसारित ज्ञान और जीवन-विद्या की प्रबलता के कारण बुराइयों को उग्र होने का अवसर ही न मिलता था।

तब मन्दिरों को धन-दान दक्षिणा तथा ब्राह्मणों और पुजारियों को भाजन कराने की पुण्य परंपरा प्रचलित थी, उसका मतलब यही था कि सद्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि करने वाले इन संचालन केन्द्रों की शक्ति कम न हो और नहीं उन्हें किसी प्रकार का अभाव रहे जिससे जन-जागरण के कार्यों में किसी प्रकार की असुविधा जान पड़े। मन्दिरों, पुजारियों और ब्राह्मणों के प्रति, भले ही अन्धश्रद्धा के रूप में पर, भारतीय जनता में वही श्रद्धा और आदर का भाव देखा जा सकता है। अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार लोग धन द्रव्य आदि से उनकी सहायता भी करते रहते हैं किन्तु मन्दिरों में कर्तव्यपालन की इस आर्ष-भावना का अब बिलकुल ह्रास हो चुका है। इतना ही नहीं वे पाप, आडम्बर, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, भाग्यवाद आदि दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाले केन्द्र बनते जा रहे हैं।

भारतवर्ष में मन्दिरों की संख्या लगभग 6 लाख है। गांव और शहरों की संख्या क्रमशः 567169 और 2690 है। यह संख्या भी लगभग 6 लाख तक ही पहुंचती है। औसतन हर गांव में एक मन्दिर होना चाहिए। यहां की जनसंख्या लगभग 45 करोड़ है तो इस हिसाब से प्रत्येक 750 व्यक्ति की आबादी वाले गांव में एक मंदिर निश्चित रूप से हो गया। इन मन्दिरों में पुजारी और कम से कम एक व्यक्ति उसका सहायक दो व्यक्तियों का वेतन खर्च, भोग प्रसाद, श्रृंगार सफाई, मरम्मत आदि का कुल खर्च कम से कम 100 रु. मासिक मान लिया जाय तो प्रत्येक गांव के लिए 1200 रु. का वार्षिक खर्च बंध गया। इसके साथ-साथ कभी-कभी उत्सव आदि भी होते रहते हैं उनमें भी काफी खर्च होता है। इस प्रकार जनता इतना सारा आर्थिक भार इसलिए वहन करती है कि उसे धार्मिक मार्गदर्शन मिले। पर यदि कोई उचित परिणाम न निकले तो प्रति वर्ष 72 करोड़ रुपए की धन-शक्ति को व्यर्थ ही गया समझना चाहिए।

और जब इतनी शक्ति बुराइयों के अभिवर्द्धन में लगी हुई हो तो उसके दुष्परिणामों पर भी सहज ही विचार किया जा सकता है। इतनी शक्ति को यदि समाज निर्माण के कार्यों में लगाया गया होता तो आज जो सामाजिक दुर्दशा दिखाई देती है वह सामने न होती।

अब तक जो कुछ हुआ उसे इस दृष्टि से याद करना उचित ही है कि अब वैसी भूल की पुनरावृत्ति न होनी चाहिए। जिस कारण सामाजिक जीवन में बुराइयां बढ़ीं मन्दिर उनका निराकरण न कर सके। हमारे देश की संस्कृति बहुत प्राचीन है उसके आदर्श और सिद्धान्त व्यक्ति और समाज सबके लिए समान रूप से उपयोगी हैं, पर जनसाधारण को वस्तुस्थिति का पता न हो तो वह संस्कृति कितनी ही श्रेष्ठ या पुरातन क्यों न हो उसका लाभ कहां रहा? आज इस बात की आवश्यकता है कि यह मन्दिर सांस्कृतिक, बौद्धिक, भावनात्मक एवं नैतिक कार्यक्रमों को हाथ में लेकर समाज के मार्ग दर्शन का उत्तरदायित्व पूरा करें। यह कार्य रचनात्मक कार्यक्रमों द्वारा हो सकता है और मन्दिर उन्हें सुविधापूर्वक प्रसारित भी करते रह सकते हैं।

समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी की सेना के लिए रसद और सैनिकों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए हनुमान अखाड़ों की स्थापना की थी। वहां हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित कर उसकी विधिवत् पूजा, हनुमान चालीसा पाठ आदि के लिए महन्त और पुजारी नियुक्त थे, साथ ही कसरत, कुश्ती, खेलकूद के स्वास्थ्य-वर्द्धक आयोजन भी चलते थे। वे महावीर हनुमान का पूजन वन्दना आरती प्रसाद की व्यवस्था करते थे पर साथ ही वे अधर्म का नाश और धर्म की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व होम देने की प्रतिज्ञा को भी न भूलते थे और समय आने पर वे शिवाजी की सेना के कन्धे से कन्धा मिलाकर मुस्लिम आक्रमणकारियों से लोहा भी लेते थे।

गुरु गोविन्द सिंह ने गुरुद्वारों का निर्माण कीर्तन, पाठ, पूजन आरती तथा प्रसाद के लिए ही नहीं किया था वरन् वे सैनिक छावनियों का उद्देश्य भी पूरा करते थे। वहां सिक्ख नवयुवकों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा भी दी जाती थी और ऐसे प्रवचन किए जाते थे जिन्हें सुनकर उनमें देश और जाति के लिये मर मिटने की भावना पैदा होती थी। पूजा पाठ के कर्मकांड आत्म कल्याण के अतिरिक्त देश की धार्मिक एकता और संगठन शक्ति को मजबूत करने के माध्यम भी थे। उनका एक उद्देश्य आसुरी शक्तियों से संघर्ष करना भी होता था।

समर्थ गुरु रामदास और गुरु गोविन्द सिंह ने अपने धार्मिक संगठनों को जो कार्यक्रम प्रदान किए थे उनका अपना महत्व था और उन पर निष्ठावान् रहने के कारण ही मराठे और सिक्ख इतना बड़ा काम कर पाये जो आज भी उनके गौरव को स्थिर किए हुये है।

छोटी-छोटी रचनात्मक प्रवृत्तियां प्रायः हर मन्दिरों में चलाई जा सकती हैं। 20 व्यक्तियों को शिक्षा के लिए भी यदि एक मन्दिर में प्रौढ़ पाठशाला चलाई जा सके तो प्रति वर्ष 1 करोड़ 20 लाख प्रौढ़ों को साक्षर बनाकर कुछ ही वर्षों में सारे देश की निरक्षरता को दूर किया जा सकता है। सायंकाल गांवों या शहरों के प्रायः सभी निवासियों को अवकाश का समय मिलता है। इस समय मन्दिरों में प्रतिदिन संगीत, भजन, कीर्तन और प्रवचन की व्यवस्था हो जाय तो उससे लोगों को पर्याप्त मनोरंजन के साथ-साथ नैतिक प्रशिक्षण भी मिलता रहेगा।

मन्दिरों से संस्कारों की पद्धति का प्रचलन किया जाय तो उसमें सामाजिक जीवन में आत्म-शोधन की एक नई चेतना का आविर्भाव हो सकता है। संस्कार मनुष्य जीवन को ऊंचा उठाने और उसे क्रमशः आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर अग्रसर करने में बड़ा महत्व रखते हैं पर जन साधारण को उनकी शिक्षाओं का ज्ञान नहीं होता, फलस्वरूप वे उनके वास्तविक लाभों से वंचित रह जाते हैं।

स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप कई प्रकार की प्रवृत्तियां इन मन्दिरों से प्रसारित की जा सकती हैं। प्रौढ़ शिक्षा, पुस्तकालय, समाज सुधार, व्यायाम शालायें चलाने, शाक-सब्जी उगाने का आन्दोलन, संगीत विद्यालय, आसन प्राणायामों की शिक्षा, भजनोपदेशक तथा धर्मोपदेशक तैयार करने के लिए पाठ्यक्रम, प्राकृतिक चिकित्सा फर्स्ट एड आदि की विभिन्न रचनात्मक प्रवृत्तियां चलाई जा सकती हैं। इनसे सामाजिक जीवन में एकता, संगठन और अनुशासन की भावना बढ़ती है तथा समाज को ऊंचा उठाने वाले गुणों की प्रतिष्ठा भी होती है।

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