संसार में आज तक जितनी जातियां आगे बढ़ी हैं वे सब अपने संगठन-बल पर ही आगे बढ़ सकी हैं और पहले से आगे बढ़ी हुई जातियों का पतन उनकी विश्रृंखलता के कारण ही हुआ है।
संगठन का अर्थ है सबका एक मत होकर किसी एक उद्देश्य के लिये एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना। जातियों एवं समाजों में इस प्रकार की एकता तभी आती है जब वे बीच में एक दूसरे के हितों को ध्यान में रखते हैं और दूसरे के साथ प्रेम तथा न्याय का व्यवहार करते हैं।
जिन समाजों अथवा जातियों में लोग अपने को एक दूसरे से श्रेष्ठ मानते हैं दूसरों के साथ समानता का व्यवहार नहीं करते उनमें किसी स्थायी संगठन की आशा नहीं की जा सकती। जन्म जाति के आधार पर उपस्थित भेद-भाव किसी समाज में भी संगठन की भावना उत्पन्न नहीं होने देता।
जातीय संगठन की दृष्टि से आज सबसे पिछड़ी जाति संसार में हिन्दू जाति ही है
बहुत कुछ साधन और संख्या होते हुये भी हिन्दू जाति संसार की कमजोर जातियों में मानी जाती है और इस कटु सत्य को आज का प्रत्येक हिन्दू स्वीकार भी करता है।
आज जो हिन्दू जाति संसार में सबसे कमजोर मानी जाती है और सामाजिक दृष्टि से देखी नीची जाती है वही हिन्दू जाति एक दिन संसार की सबसे शक्तिशालिनी जाति रही है। संसार में सबसे अधिक इसकी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रसार रहा है। अनेक विदेशी जातियों ने इसकी जीवन पद्धति अपनाकर अपने को इस समाज में घुला-मिला दिया था।
आज हम जिस विशाल हिन्दू जाति को देख रहे हैं, उसमें संसार की कितनी जातियों की सन्निहित है इसको खोज सकना इस समय सम्भव नहीं। हिन्दू संस्कृति किसी एक जाति विशेष का वैचारिक सृजन नहीं बल्कि समय-समय पर आकार मिल जाने वाली संसार की अनेक जातियों की विचार-धाराओं का एक सम्मिलित प्रवाह है।
हिन्दू जाति का आदि नाम आर्य संसार में सदैव ही सबसे अधिक संगठित एवं प्रगतिशील रहे हैं। उनकी धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक उदारता ने एक दिन उन्हें उन्नति एवं यश के चरण शिखर पर पहुंचा दिया था।
आर्यों की समानता देखकर ही संसार की अन्य जातियों के लोग इनके आचार-विचारों को अपनाकर इस जाति के सामाजिक संगठन में एक रूप हो गये थे।
हिन्दू जाति में आज सम-सामाजिकता का जो अभाव दिखाई देता है, वह इस जाति की मौलिक सूझ-बूझ की विकृति नहीं हैं। यह उन जातियों एवं समाजों का षडयन्त्र है जो पिछले दो हजार वर्षों में यहां आये और इस लेश जाति पर अपना स्थायी शासन स्थापित करने के प्रयत्न में लगे रहे। ये समागत जातियां हिन्दुओं की प्रचण्ड शक्ति को अच्छी प्रकार जानती थीं। उन्हें हिन्दू जाति में मिल जाने की शंका सदा सताती रही है। अस्तु, उन्होंने इस जाति का सामाजिक संगठन तोड़ने के भयंकर षडयन्त्र किये और किसी हद तक इसमें सफल भी हुए।
हिन्दुओं के बीच आज का जातिगत भेद-भाव इन्हीं आक्रान्ता साम्राज्यवादियों के षडयन्त्र का परिणाम है। उन्होंने न केवल पशु-बल का ही प्रयोग किया बल्कि जातीय भेद-भाव और असमानता फैलाने के लिये यहां के सामाजिक नेताओं और धर्माधिकारियों को घूंस देकर धर्म-ग्रन्थों में असंगठन कर्ता नियमों एवं आदेशों का समावेश कराया और राज-बल पर उनको मान्यता दिलाई।
किन्तु अब समय बदल गया है, हिन्दुओं में अपने इस सामाजिक असंगठन एवं भेद-भाव की नाशकारी हानियों एवं विकृतियों के प्रति चेतना आने लगी है उन्होंने अपने शक्तिशाली आर्य स्वरूप को पहचानना प्रारम्भ कर दिया है।
इसको देखते हुये आशा की जाने लगी है कि वह दिन दूर नहीं जब यह हिन्दू जाति पुनः पूर्ववत संगठित होकर शक्तिशालिनी बन जायेगी और अपनी प्रलयंकारी विशेषता को प्राप्त कर न केवल अपने अन्दर फैले हुये जाति भेद एवं सामाजिक विश्रृंखलता को दूर कर लेगी बल्कि वैदिक काल की तरह अन्य जातियों का संस्कार करके उन्हें अपने में मिलाने लगेगी।
हिन्दू जाति के बीच जातीय भेद-भाव न मिटने का विशेष कारण यह है कि अधिकतर हिन्दू इस जाति-भेद को धार्मिक नियम मानते हैं और इसको दूर करने में अधार्मिकता की शंका करते हैं। जबकि इस जातीय भेद-भाव से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है यह शुद्ध रूप से एक सामाजिक विकृति ही है।
कहना न होगा कि जो आर्य जाति सदैव से अन्य जातियों का संस्कार करके उन्हें अपने में मिलाने को अपना विशेष कर्तव्य मानती रही है वह भला अपने को ही अपने से भिन्न करने की मूर्खता किस प्रकार कर सकती है।
आर्यों ने केवल भारत में आई विदेशी जातियों को ही आर्यत्व में दीक्षित नहीं किया था बल्कि देश की सीमा से बाहर जाकर ईरान, चीन, मिस्र, जापान, बैबिलोनिया और असीरिया जैसे देशों में आर्यत्व की दीक्षा दी है, उन्हें अपने समाज में मिलाया है आर्यों के इस सांस्कृतिक एवं दीक्षा अभियान के सैकड़ों चिह्न विदेशों में पाये जाते हैं।
पुरातत्व खोजियों ने मूल संसार की समस्त जातियों को खोजकर प्रमाणित किया है कि योरोप की अधिकांश जातियां भारत के आर्यों की ही वंशज हैं। एशिया के अधिकांश देश तो विधर्मी आक्रमण के पूर्व तक आर्य देश रही ही हैं।
जातीय संकीर्णता का आधार मानने वालों को चाहिये कि वे हिन्दू धर्म का ठीक-ठीक अध्ययन करें और उदारता पूर्वक वैयक्तिक हठ छोड़कर उसका ठीक-ठीक अर्थ हृदयंगम करें। ऐसा करने से उनकी यह भ्रान्ति दूर हो जायेगी। और वे हिन्दुओं की विराट् शक्ति और उनकी विशाल उदारता के दर्शन कर सकेंगे। वेदों, स्मृतियों एवं पुराणों में एक नहीं सैकड़ों स्थानों पर अन्य जातियों को शुद्ध करके आर्य बनाने और अपने समाज में मिलाने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
ऋग्वेद में कहा गया है—
आसयतमिन्द्रयः स्वस्ति,
शत्रुतूर्याय वृहतीममृ ध्राम् ।
यथ दासान्यर्यारिभ वृत्राकरा,
वज्रिन सुतुकान्त दुषारिभ ।।
अर्थात् — हे इन्द्र! हमें ऐसा बल दो कि उसके द्वारा हम अनार्य जातियों के मनुष्यों को संस्कृत करके आर्य बना लें। इस प्रकार शत्रु भाव का निराकरण करके हम कल्याणकारी हिंसाहीन शक्ति का प्रादुर्भाव कर सकें।
इन्द्रं वर्द्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्दा विश्वमार्यम् । अपहन्तो अरावणः ।
अर्थात् —‘‘ईश्वर के नाम पर सब संसार को आर्य बनायें और स्वार्थरत लोगों को पराजित करके अग्रगामी हों।’’
इस प्रकार एक जगह नहीं वेदों में स्थान-स्थान पर संसार की अन्य अनार्य जातियों को आर्य बनाने का विधान दिया गया है। पतित हो जाने पर अपने लोगों को शुद्ध करके समाज में स्थान देने के आदेश और प्रायश्चित के विधानों से तो हिन्दुओं के धर्म-ग्रन्थ भरे पड़े हैं। इतना ही नहीं दूर देशों से जो जातियां शुद्ध करके आर्य बनाई गईं उनकी घटनाओं का वर्णन धर्म-ग्रन्थों में मिलता है। यथा—
‘‘मिश्र देशोद्भवाम्लेच्छाः, काश्यपेन सुशासितः ।
संस्कृताः शूद्रवर्णे ब्रह्म वर्ण मुपागताः ।’’
शिखा सूत्र समाधाय पठित्वा वेदमुत्तमम् ।
अर्थात्—मिश्र देश में उत्पन्न म्लेच्छ वेद पढ़कर और शिखा सूत्र धारण करके शुद्ध होने के बाद ब्राह्मण वर्ण को प्राप्त हो गये।
‘‘बलाद्दासी कृतो म्लेच्छश्चाणडालाद्यैश्च दस्युभिः ।
अशुभं कारित कर्म गवादि प्राणि हिंसनम् ।।
उच्छिष्ट मार्जन चैव तथा तस्यैव भक्षणम् ।
तत्स्त्रीणां तथा समस्तां भिश्च सहभोजनम् ।।
कृच्छ—सवत्सरं कृत्वा सांतपनाम् बुद्धिहेतवे ।
ब्राह्मणः क्षत्रियस्त्वर्ध कृच्छान् कृत्वा विशुद्धयति ।।
मासोषित श्चरेद् वैश्यः शूद्रः पादेन शुद्धयति ।’’
अर्थात्—‘‘जिन व्यक्तियों को म्लेच्छों, चाण्डालों अथवा अन्य विधर्मियों ने बलपूर्वक दास बना लिया और उनसे बलपूर्वक गो-वध आदि पाप कराया, जूठन खिलाई और धुलाई, अपनी स्त्रियों के साथ संगम कराया और उनके साथ एक बर्तन में खिलाया है, तो उनमें से ब्राह्मण एक वर्ष, क्षत्रिय छः मास, वैश्य एक मास और शूद्र एक सप्ताह तक कृच्छ-सांतपन करके पुनः शुद्ध हो सकता है।
इस प्रकार धर्म-ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने पर पता चलता है कि आर्य जाति में जातीय संगठन बनाये रखने और अपने धर्म को संसार में फैलाने के लिये स्थान स्थान पर व्यवस्थायें दी हुई हैं। ऐसी दशा में हिन्दू समाज की विकृति—जाति-भेद को धर्म के आधार पर मानना वास्तव में अधार्मिकता ही है।
इसमें सन्देह नहीं कि आज हिन्दुओं को अपने धर्म की रक्षा करने, उसका संसार में प्रसार करने, अपना सामाजिक संगठन सबल बनाने और बढ़ाने के लिए अपने मूल वैदिक धर्म की आज्ञाओं का पालन करना होगा। उन्हीं के अनुसार सामाजिक उदारता और धार्मिक असंकीर्णता को अपनाना होगा। तभी यह विशाल जाति अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करेगी अन्यथा घुन की तरह लगे हुये विधर्मी इसे समाप्त कर देंगे।