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भारत को ईसाई बनाने का षडयन्त्र

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‘अति सर्वत्र वर्जयेत’
अर्थात् अति का हर क्षेत्र में निषेध है।

बुरी बात तो बुरी बात ही होती है, उसमें अति या अनीति का प्रश्न ही क्या? अच्छी बात भी जब अपनी वांछित मर्यादा का उल्लंघन कर जाती है, तो वह बुराई की कोटि में पहुंच जाती है।

धार्मिक सहिष्णुता एक महान गुण है। किसी दूसरे के धार्मिक विचारों तथा कार्यों में हस्तक्षेप न करना स्वयं ही एक धार्मिकता है। हिन्दुओं ने इस गुण का जितना व्यापक परिचय दिया है, उसका हजारवां भाग भी संसार की कोई अन्य जाति न दे सकी। बल्कि यह कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि वेद-धर्म के अनुयायियों को छोड़कर संसार की अधिकांश जातियों ने असहिष्णुता का ही परिचय दिया है।

हिन्दुओं की इस सहिष्णुता से प्रोत्साहित होकर अन्य धर्मावलम्बियों ने क्या-क्या किया और इससे हिन्दू राष्ट्र को कितनी क्षति हुई है? यह बात किसी से छिपी नहीं है। विगत हानियों तथा अत्याचारों की चर्चा करना बेकार है। किन्तु वर्तमान में हिन्दू-जाति पर ईसाइयों का जो आक्रमण हो रहा है, उसकी ओर से आंखें बंद नहीं की जा सकती हैं।

भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है और भारत सरकार धर्मनिरपेक्षता की संरक्षिका। विधान की इस धारा के अनुसार भारत में सभी धर्मों को फलने-फूलने और विकसित होने का अधिकार है। किन्तु इसका तह आशय कदापि नहीं कि कोई एक धर्म दूसरे किसी धर्म को मिटाकर फूल-फल सकता है। ईसाई पादरी भारतीय विधान की इस धारा का दुरुपयोग करके हिन्दू धर्म को मिटाकर अपने ईसाई धर्म का विस्तार करने में बुरी तरह जुटे हुए हैं।

भारत में पादरियों का धर्म प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का खुला षडयन्त्र है जो कि एक लम्बे अरसे से चला आ रहा है, अब उपेक्षावश और तीव्र तथा प्रबल हो गया है। ईसाई पादरियों के इस धर्म प्रचार का क्या उद्देश्य है? यह समय-समय पर किये उनके कथनों, लेखों तथा वक्तव्यों से सहज ही पता लग जाता है।

‘‘लाइट आफ लाइफ" केथोलिक पत्रिका के 1964 के जुलाई अंक में ईसाई नवयुवकों को परामर्श देते हुए निर्देश किया गया—‘‘ईसाई छात्रों तथा स्नातकों का यह कर्तव्य है कि वे ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखा करें और इस विषय में वे धर्म निरपेक्ष नीति वाली पत्र-पत्रिकाओं का लाभ उठा सकते हैं। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे शुरू-शुरू में ही अपने लेखों में ईसाइयत का प्रचार करने लगें। अच्छा तो यह होगा कि पहले वे सामान्य लेख लिख कर आगे चल कर के पत्रों में खुलकर ईसाई विचारधारा का प्रचार करें।’’

यह क्या है? ईसाई नवयुवकों को धर्मनिरपेक्ष पत्र-पत्रिकाओं में घुसने और उनके माध्यम से भारत में ईसाइयत फैलाने के लिए खुला प्रोत्साहन तथा आह्वान है। इसे धर्मनिरपेक्षता का अनुचित लाभ उठाने के लिए एक षडयन्त्र के सिवाय और क्या कहा जायगा? जहां धर्मनिरपेक्षता की नीति भारत के हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी को एक समान तथा सामान्य राष्ट्रीय विचारधारा में लाने का प्रयत्न कर रही है, वहां विदेशी मिशनरी ईसाई नवयुवकों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर उन्हें अपने षडयन्त्र का सहायक अस्त्र बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या भारत के राष्ट्रीय हित में यह सहन करने योग्य बात है?

ईसाई पादरियों तथा मिशनरियों का ऐसा ज्वलन्त आह्वान और भयानक विचार न केवल भारत के हिन्दुओं अपितु सारी गैर ईसाई जनसंख्या की आंखें खेल देने को एक खुली चुनौती है। अपने धर्म की रक्षा तथा भारतीय राष्ट्र की एकता के लिए क्या यह आवश्यक प्रतीत नहीं होता कि गैर-ईसाई जनता विदेशी मिशनरियों के अनुचित इरादों को असम्भव बना देने के लिए आवाज उठाए। यदि भारत की ईसाई जनसंख्या यों ही विदेशी मिशनरियों की गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देख कर प्रमाद में ही पड़ी ही तो यह असम्भव बात न होगी कि ईसाई ‘ईसाई भारत’ के अपने ध्येय के बहुत कुछ समीप जा पहुंचें और तब तक क्या हिन्दू, क्या मुसलमान और क्या सिक्ख सभी धर्मों के मिट जाने का खतरा पैदा हो सकता है।

यह बात सही है कि ईसाई मिशनरियों को हिन्दुओं की अपेक्षा अन्य धर्म वालों पर अपना प्रपंच चलाना आसान नहीं पड़ता। वे मुख्यतः हिन्दुओं को ईसाई बनाने में जुटे हुए हैं, इसके दो मुख्य कारण हैं—पहला, अति धर्म-सहिष्णुता, वे धर्म-बन्धुओं के बीच इसी अति के दोष से ईसाइयत का प्रचार सहन करते जा रहे हैं। दूसरा यह कि गैर ईसाई अहिन्दुओं की धार्मिक रूढ़िवादिता के कारण ईसाई मिशनरियों को उनके बीच जाल बिछाने का अधिक अधिक अवसर नहीं मिलता अहिन्दू गैर ईसाइयों की रूढ़िवादिता उन्हें अपने बीच धंसने का साहस नहीं करने देती। किन्तु इसका यह अर्थ लगाना गलत होगा कि अहिन्दू गैर ईसाई ईसाइयों के धार्मिक षडयन्त्र से सुरक्षित है और यदि वे ऐसा सोचते हैं तो गहरी भूल करते हैं। अहिन्दू गैर ईसाइयों को भी इस षडयन्त्र की, जो ईसाइयों के बीच प्रचार-प्रपंच चला रखा है, उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि हिन्दुओं पर किया गया आघात परीक्षा रूप में उन पर भी एक आघात है।

कैथोलिक ईसाई पत्रों के कथनों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भारत के गैर ईसाई समुदाय से ईसाई मिशनरियों को ईर्ष्या है और वे उनकी विशाल जनसंख्या को फूटी आंखों भी नहीं देख पा रहे हैं। वे सम्पूर्ण भारत के गैर ईसाइयों को ईसाई बनाकर ‘ईसाई-भारत’ का स्वप्न देखते हैं और उसके लिए हर उचित-अनुचित उपाय करते जा रहे हैं।

इसाइयों से अपने को सुरक्षित समझने वाले बौद्ध, सिक्ख, पारसी, मुसलमान और यहूदी आदि को इस बात पर गहराई से विचार करना चाहिए कि भारत की धर्म-निरपेक्षता तथा हिन्दुओं की उपेक्षापूर्ण धार्मिक सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाते हुए यदि ईसाई मिशनरी इसी तेजी से हिन्दुओं को अपने जाल में फंसाने में सफल होते रहे तो शीघ्र ही उनकी जनसंख्या भारत में बहुत अधिक हो जायगी और तब ऐसी स्थिति में भारत के सारे गैर ईसाई उनकी तुलना में अल्पसंख्यक हो जायेंगे। क्या ईसाइयों का यह बहुमत तब शक्ति पाकर सम्पूर्ण भारत को ईसाई देखने के लिए व्यग्र पोप, पादरियों तथा प्रचारकों को अल्पसंख्यक गैर ईसाइयों को अपने में आत्मसात् करने के प्रपंचों के लिए साहस, अवसर तथा प्रोत्साहन नहीं देगा? इसलिए भारत की धर्म-निरपेक्ष नीति, धार्मिक सहिष्णुता तथा राष्ट्रीय स्वरूप को सुरक्षित रखने और लोकतन्त्र की गरिमा बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि भारत के सारे गैर ईसाई जन-समुदाय एक साथ होकर ईसाइयों के इस बढ़ते हुए धार्मिक साम्राज्य को रोकने का प्रयत्न करें।

हिन्दुओं का तो यह धार्मिक कर्तव्य है कि वे ईसाइयों के षडयन्त्र से आत्मरक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दें और गैर ईसाई मिशनरियों की अराष्ट्रीय गतिविधियों को रोकने में अपना नैतिक समर्थन देकर हिन्दुओं की हिमायत को आगे बढ़ें और आज जो हिन्दुओं को लपेटती हुई ईसाइयत की लपट परोक्ष रूप से उनकी ओर बढ़ रही है, उसे यहीं पर बुझा दें। ऐसा करने से ही भारत में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बन्धुत्व तथा सच्चे लोकतन्त्र की रक्षा हो सकेगी, अन्यथा पुनः आजादी को खतरा की सम्भावना हो सकती है।

यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य देशों की सरकारें तथा संस्थायें भारत में मिशनरियों को एजेन्ट रूप में भेज कर ईसाइयत को बढ़ावा दे रही हैं और एक प्रकार से वे धर्म का आधार लेकर उन देशों का साम्राज्य ही भारत में स्थापित करने का प्रयत्न कर ही हैं। विदेशों के इस धर्मधारी साम्राज्यवाद से बचाव हेतु सम्पूर्ण गैर ईसाइयों को एक मंच पर आकर ईसाइयों के मलीन मन्तव्यों को सफल होने से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना ही चाहिए।

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