भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

भिक्षावृत्ति की उपेक्षा की जाय

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विदेशों में भारतवर्ष का एक विशेषण यह भी है—‘भिखारियों का देश’। सारे देश में 56 लाख लोग विधिवत् भिक्षा-व्यवसाय पर आश्रित हैं। कुछ परिवार तो ऐसे हैं, जिन्होंने इसे पैतृक व्यवसाय के रूप में स्वीकार कर लिया है। कुछ परिवार ऐसे हैं, जिनकी आय 700 रुपये से भी ऊपर है। कुछ भिखारियों के पोस्ट-आफिस, बैंकों में बचत के विधिवत खाते तक हैं।

भिक्षावृत्ति ने इस राष्ट्र का भारी अहित किया है, ‘धर्म का त्याग कर दिया है’ इस तरह कह कर भिखारी लोगों ने अपना सम्बन्ध धर्म से और जोड़ लिया है, फलस्वरूप लोगों की अन्ध-श्रद्धा का जम कर लाभ मिलता है। समझ में नहीं आता पर इतनी बड़ी जनसंख्या जो बिना परिश्रम किये अपने पेट भरती है, अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से बोझ ही है। भिखारियों को दिया जाने वाला धन यदि बचाया जा सके तो देश की पूरी सेना के लिये विशाल ‘सुरक्षित अन्न क्षेत्र’ बनाया जा सकता है।

दण्ड-विधान संहिता के अनुसार भिक्षा व्यवसाय आवारा लोगों का कार्य माना गया है। ऐसे लोगों को कानूनी तौर पर दण्ड देने की व्यवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर भीख मांगने पर रोक लगाने के लिये अधिनियम भी बने हैं पर चूंकि उन्हें धर्म के नाम पर प्रोत्साहन मिलता है, इसलिये भीख मांगने वालों की भीड़ कम नहीं होती। अभी तक यह खाद्य समस्या और आर्थिक दृष्टि से ही अहित करता था पर अब जो तथ्य प्रकट हो रहे हैं उनसे यह प्रकट होता है कि भिखारियों में सैकड़ों अपराधी, अपराधों को प्रश्रय देने और छिपाने वाले हैं। कुछ दुष्ट लोग तो भिक्षा-व्यवसाय चलाने के लिए बच्चों को पकड़ ले जाते हैं और उनका अंग-भंग कर भिक्षा मांगने को विवश करते हैं।

भिक्षा-वृत्ति करवाने के उद्देश्य से जो व्यक्ति बच्चों को उठा ले जाते हैं, उनके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने के लिए भारत सरकार को 1950 में एक अधिनियम भी पास करना पड़ा। बच्चों के अंग-भंग के अपराध में आजीवन कारावास तक का दण्ड देने की व्यवस्था है पर चूंकि भिखारियों को सार्वजनिक उपेक्षा, उदासीनता और अवहेलना का समुचित दण्ड नहीं मिलता, इसलिये यह व्यापार पहले से कम नहीं हुये विकसित ही होते रहे हैं।

भिक्षा व्यवसायियों के कुछ स्तर तो अत्यन्त ही घृणित और समाज को वाम-पन्थी दिशा देने वाले हैं। सीधे-सादे ढंग से रोटी, आटा, पैसा, कपड़ा आदि मांगते हैं उनकी अपेक्षा कुछ चतुर भिखारी ऐसे होते हैं, जो अपने को विपत्ति-ग्रस्त, बाढ़-पीड़ित, चोरी हो गई है, जेब कट गई है, लड़की के विवाह के लिए धन चाहिये—इस तरह से लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर पैसा ठगने का कार्य करते हैं।

अन्ध-विश्वास को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का पाप इन काहिल भिखारियों और दूसरों की कमाई पर जीवित रहने वाले बाबाओं ने ही किया है। यह लोग कहीं ज्योतिषी बनते, कहीं वैद्य गुनियां बन कर लोगों की आध्यात्मिक आस्थाओं का हनन करते और अन्ध-विश्वास के बीज बोते हैं। पलायनवाद की इस परम्परा ने अकेले ही जितना हिन्दू-धर्म और समाज का अपमान और पतन किया है, उतना अनेक कुरीतियों ने मिल कर भी नहीं किया।

इसलिये हर प्रबुद्ध व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह भिखारियों की उपेक्षा करे, उन्हें भीख न दे। किसी भिखारी का भूख से तड़प कर मर जाना अच्छा है पर भीख देकर उन्हें दुष्कर्म की प्रेरणा देना तो दोहरा पाप है, एक स्वयं भिखारी के प्रति दूसरा समाज के प्रति। जो भीख देते हैं, वह समाज पर आर्थिक बोझ और अपराध बढ़ाने का पाप करते हैं, उससे बचना और देश को कर्मठ, स्वाभिमानी परिश्रमशील बनाने में सहयोग देना, अब हम सबका कर्तव्य होना चाहिये।


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