भारतीय संस्कृति के चार प्रमुख स्तम्भों में गंगा, गीता, गायत्री, गौ में गाय का महत्व कम नहीं है। हमारे पूर्वजों में गायत्री, गंगा और गीता के प्रति जो श्रद्धा और सम्मान की भावना रही है वैसी ही गौ-माता के प्रति भी रही है। यह श्रद्धा साम्प्रदायिक या अन्धविश्वास न होकर गुण, सात्विकता और पवित्रता की दृष्टि से रही है। गौ का महत्व केवल इसलिए ही नहीं है कि वह हमें दूध देती है, उसी के बछड़ों से कृषि की जाती है वरन् उसमें पाया जाने वाला ओज, संस्कारों को पुष्ट करने वाली सात्विकता की दृष्टि से भी वह पूज्य है। वेद का कथन है :—
नमस्ते जायमानायै जाताया उतते नमः।
वालेभ्यः शफेभ्यो रुपायाघ्न्ये ते नमः॥
यया द्यौर्यया पृथिवी ययाऽऽपो गुपिता इमाः।
वशां सहस्रधारां ब्रह्मणाच्छावदामसि। —अथर्व 10। 10। 1,4
अर्थात् ‘‘हे अबध्य गौ! उत्पन्न होते समय और उत्पन्न होने पर तुम्हें प्रणाम! हम तुम्हारे शरीर, रोम और खुरों की शक्ति को पहचानते हैं। तुमने द्युलोक, भूमण्डल एवं इन जलों को भी सुरक्षित रक्खा है इसलिए सहस्र धाराओं से दूध देने वाली हे गौ माता, हम तुम्हारी स्तुति करते हैं।’’
ऐसी स्तुतियों और चर्चाओं से शास्त्रों में पन्नों के पन्ने भरे पड़े हैं, जिनमें गाय के स्थूल और सूक्ष्म लाभों को वर्णन किया गया है। पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में गाय के महत्व पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है। स्कन्द. प्रभास. में गौ का स्थान ब्राह्मण, गुरु और देवता के समान दिया गया है। वायु पुराण, कश्यप संहिता, स्कन्द पुराण के आवन्त्यखण्ड, रेवाखण्ड, चरक संहिता, बौधायन स्मृति, लोकनीति में गाय के प्रभाव का वर्णन है और उससे प्राप्त होने वाले लाभों की व्याख्या है।
हिन्दू-धर्म ग्रन्थों में ही गाय के महत्व को प्रतिपादित किया गया हो ऐसी बात नहीं। दूसरे धर्मों में भी उसे पूज्य भाव से देखा गया है। ‘‘नौशियात हादी’’ में मनुष्य के स्वास्थ्य और आरोग्य के लिये गाय का दूध आवश्यक बताया है।
अफगानिस्तान के भूतपूर्व अमीर अमानुल्ला खां ने बम्बई यात्रा में कहा—‘‘मुसलमानों को, मुल्लाओं और पीरों की बातों में न आकर हिन्दुओं के साथ शान्ति रखनी चाहिए। हिन्दुस्तान के लिए गाय और बैल बड़े उपकारी जीव हैं, आपको इनके वंश की वृद्धि की चेष्टा करनी चाहिए।’’
‘‘फतवे हुमायूनी’’ भाग 1 पृष्ठ 360 में ‘‘गाय की कुर्बानी इस्लाम धर्म का नियम नहीं है’’ ऐसा बताया गया है। कुस्तुन्तुनियां के सादिक गौ को पवित्र मानते थे। ‘ईसाइयाह’ ‘जरथुस्त्र’, ‘इदीस साइसा’’ आदि विभिन्न धर्म ग्रंथों में गाय के महत्व को स्वीकार किया गया है।
जब तक भारतवर्ष में इस गौ-सम्पदा का अभाव नहीं रहा तब तक यहां धन-धान्य की कमी नहीं रही। यहां के बछड़े दूसरे देशों में बड़ा सम्मान पाते थे। यहां की गायें प्रचुर मात्रा में दूध और घी देती थीं जिसका सेवन करने से न केवल लोगों के शरीर स्वस्थ बलिष्ठ होते थे वरन् उनमें सद्गुणों का भी आविर्भाव होता था। गाय के दूध में शक्ति की मात्रा से सात्विकता की मात्रा कहीं अधिक होती है उसका प्रभाव सीधा संस्कारों पर पड़ता है। जब तक यहां गौ को पूज्य स्थान मिला तब तक लोगों का आत्मबल और मनोबल भी ऊंचा रहा किन्तु गौ-सम्पदा कम होने के साथ ही देश का गौरव भी कम होने लगा।
‘‘यतो गावस्ततो वयम्’’ (गायें हैं इसी से हम लोग हैं।) इस बात को भूल जाने के कारण पशुधन और धान्य क्षेत्र में हमारी यह दुर्दशा हो रही है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में तो गौ की आवश्यकता सर्वाधिक होनी चाहिए।
प्रत्येक बालक का आरोग्य केवल आरोग्य ही नहीं प्रत्युत बुद्धि उसके द्वारा पिये हुए दूध के परिमाण और प्रकार पर अधिक अवलम्बित है। भारतवर्ष के ऐसे करोड़ों बच्चों के शारीरिक विकास का साधन गौ है। दूध में वह सारे तत्व पाये जाते हैं जिनसे उसका शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य तेजी से विकसित होता है। पहले बच्चों को गाय का ताजा दूध पिलाने की प्रथा थी इससे बाल-स्वास्थ्य का निर्माण बड़ी तेजी से होता था और वे प्रौढ़ होने पर छोटी मोटी बीमारियों के आघातों को चुटकी बजाकर झेल लेते थे, किन्तु अब वह क्षमता कहीं दिखाई नहीं देती। बालकों को गाय के दूध की पर्याप्त मात्रा न मिल पाने के कारण उन्हें छोटी अवस्था से ही रोग घेरे रहते हैं। बालकों के शारीरिक विकास के लिये गाय का दूध अन्य दूधों की अपेक्षा अधिक लाभदायक होता है। उसे बच्चा आसानी से पचा लेता है। दूसरे दूध या तो उसे पचते नहीं या उनमें पर्याप्त जीवनी शक्ति नहीं होती। कीटाणु नाशक होने के कारण गो-दुग्ध का महत्व बालक, युवा, वृद्ध, स्वस्थ व रोगी सभी के लिये समान रूप से लाभदायक होता है।
सहायक धन्धे के रूप में भी गौ पालन अत्यन्त हितकर है। आम के आम गुठलियों के दाम वाली कहावत गायें चरितार्थ करती हैं। इनसे प्राप्त दूध का घी बेचकर छाछ, मट्ठा घरेलू उपयोग में लिया जा सकता है। गोबर की खाद से खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाई जा सकती है। जिस परिवार में चार-छः गायें होंगी वह घर कभी अभावग्रस्त नहीं रह सकता। ग्रामीण क्षेत्रों में गौ-पालन प्रमुख धन्धा भी हो सकता है।
किन्तु अब इस क्षेत्र में उपेक्षा बरते जाने से गायों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। उधर गौ-हत्या की मात्रा इतनी तेजी से बढ़ रही है कि सारा गौ-वंश ही नष्ट होता हुआ दिखाई दे रहा है। हिन्दुस्तान के लिये यह कलंक की बात है। हम यदि गौओं के विकास और पालन-पोषण को उचित महत्व दें तो उससे हमारे आर्थिक विकास में लाभदायक सहायता मिलती है। ऐसा न करें और गौ-धन को उसके स्वाभाविक रूप में भी बढ़ने दें तो भी लाभ ही है किन्तु गायों के वध की मात्रा बढ़ जाने से यह समस्या विचारणीय बन गई है। उसे रोकने का प्रयत्न न किया गया तो यह धन सर्वनाश की सीमा तक जा पहुंचेगा और उससे भारतीय जीवन की पवित्रता नष्ट होगी।
वेद में गौवध को एक महान् पाप बताया गया है और कहा भी है :—
यदि नो गांहसि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥ —अथर्व वेद 1। 16। 4
अर्थात् ‘‘ऐ अभिमानी! तू हमारी गौओं की हत्या करता है इसलिये हम तुझे सीसे की गोली से बींध देंगे, जिससे तू हमारे वीरों का वध न कर सके।’’
‘‘किताब मस्तरक” में लिखा है—‘‘तुम पर लाजिम है गाय का दूध और घी। खबरदार! उसके गोश्त से। उसका दूध शिफा है घी दवा है और गोश्त बीमारी है।’’
किन्तु इन धार्मिक निर्देशों और महापुरुषों के उपदेशों के बावजूद भी गो-वध की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि उससे सारे हिन्दू समाज के संस्कारों पर कुठाराघात हो रहा है। सरकारी रिपोर्टों के आधार पर सन् 1952-53 में 46,09,173 गायों की खाल बाहर भेजी गई। बछड़ों की खाल इससे अलग थीं। इससे पूर्व 1945-46 में बछड़ों की 172000 खाल बाहर भेजी गईं जब कि 1952-53 में 2007951 खाल भेजी गई थीं। इससे गौ-वध की उत्तरोत्तर वृद्धि का अनुमान सहज में ही हो जाता है। लाला हरदेव सहायजी के कथनानुसार देश में वध किये गये गोवंश की खालों का कम से कम दाम अनुमानतः 1500000 रु. होता है।
बूढ़ी और बेकाम गायों को भी कसाइयों को सौंप देना मानवता की दृष्टि से घोर अपराध है। जिन्होंने दूध पिलाया, खाद दी, बछड़े दिये उनको अपनी मौत मरने तक आवश्यक चारा-पानी और चिकित्सा की व्यवस्था करना प्रत्येक का कर्तव्य होना चाहिए।
दैनिक आहार में गाय के दूध, घी, मट्ठे आदि का अधिक से अधिक उपयोग होना चाहिए। इससे हमारे शरीर पुष्ट होंगे और शुभ संस्कारों की भी वृद्धि होगी।
गोरक्षा और गौ-संवर्द्धन धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक हिन्दू का प्रमुख धर्म कर्तव्य है। हमारे समाज में पूर्वकाल से गौ का स्थान जननी माता के तुल्य माना गया है। गाय को कामधेनु और सुरभि की पदवी प्राप्त है। केवल सांसारिक दृष्टि से देखें तो भी गोवंश की उन्नति इस देश के लिये बहुत आवश्यक है।