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सिनेमा से हमारी संस्कृति और नैतिकता का नाश

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आज के वैज्ञानिक युग में सिनेमा ने जितनी लोकप्रियता और सफलता पाई है, शायद ही उतनी किसी अन्य व्यवसाय को मिली हो। इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सच है कि समाज पर जितना बुरा असर सिनेमा का हो रहा है उतना कुप्रभाव शायद ही किसी दूसरी चीज का हो रहा हो। यों समझिये कि सिनेमा के कारण ही आज समाज में अनैतिकता, उच्छृंखलता, अव्यवस्था, अशिष्टता, व्यभिचार, चोरी, हत्या, डाकेजनी, फैशन आदि का बोल-बाला है। आज जितनी भी बुराइयां वर्तमान समाज में बढ़ती जा रही हैं, उनकी बहुत हद तक जिम्मेदारी आज कल की गन्दी फिल्मों पर है। चोरी करने की नई-नई विधियां, डाके डालने की कलायें, शराब आदि नशों का प्रयोग, निर्लज्जता एवं अनुशासनहीनता आदि बातें अधिकतर लोग सिनेमाओं से सीख कर उनको जीवन में प्रयुक्त करने लगते हैं। व्यभिचार, गुण्डागिरी आदि का शहरों में जो जोर दिखाई देता है, वह भी बहुत हद तक सिनेमा की ही देन है। जो लोग यह समझते हैं कि सिनेमा केवल मनोरंजन एवं तरोताजगी का एक साधन मात्र है, वे भ्रम में हैं।

जिसका दुष्प्रभाव हमारे देश के सुकुमार बालकों एवं तरुणों पर गहराई से पड़ रहा हो, उसे केवल मनोरंजन एवं दिल बहलाव का साधन मात्र समझना भूल होगी। मनोरंजन कुछ ही समय के लिए होता है और बाद में उसे भुला दिया जाता है पर जब कोई क्रिया जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाली हो जाती है, तब वह मनोरंजन न रहकर संस्कार बन जाती है। आज सिनेमा मनोरंजन न होकर जीवन पर कुसंस्कार डालने का भयानक कार्य कर रहा है। अनुभव तो यह बताता है कि अच्छी शिक्षा तथा संस्कार माता-पिता अपने पुत्र पर या शिक्षक अपने छात्र पर नहीं डाल सकते पर सिनेमा की रंग-बिरंगी विलासी दुनिया उन बालकों पर अनैतिकता के संस्कार शीघ्र और स्थायी रूप से डाल देती है। हमें ऐसे कुत्सित मनोरंजन का पूर्ण बहिष्कार कर देना चाहिये जिसमें अनैतिकता और वासना को उद्दीप्त करने वाली प्रचुर सामग्री रहती है। सिनेमा ने ही हमारी भारतीय संस्कृति की आदर्श परम्पराओं को तहस-नहस कर समाज में अनैतिकता का प्रचार किया है। आज क्या बालक—क्या युवक—और क्या बूढ़े सभी सिनेमा के शौकीन हो रहे हैं। विद्यार्थियों पर तो इसका रंग खूब चढ़ा हुआ है। उन्होंने तो फिल्मी कलाकारों को देवताओं का दर्जा दे रखा है।

पहले लोग अपने घरों को सजाने के लिए देवताओं के चित्र लगाते थे परन्तु आज उनकी जगह अभिनेता-अभिनेत्रियों ने ले ली है। आजकल के विद्यार्थियों से यदि किसी सिने-कलाकार की जीवनी के बारे में पूछा जाय तो वे आपको इतनी जानकारी देंगे कि आप सुनकर दंग हो जायेंगे उन्हें देश-विदेश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक घटनाओं की जानकारी नाम मात्र को ही होगी पर सिनेमा-कलाकारों के बारे में वे आपको बिल्कुल सही-सही बात बता देंगे। आजकल युवक-युवतियां सिनेमा के पर्दे पर अनेक रंगीन प्रसंग एवं चरित्र देखकर अपने को उसी के अनुसार ढालने का प्रयत्न करते हैं। जितने नये फैशन और नई पोशाकें निकलती हैं, प्रायः सभी का स्रोत फिल्मी कलाकार होते हैं। बहुत से लोग तो उन्हें आदर्श मानकर उनका अनुसरण करते हैं। ‘दलीपकट’ ‘राजकट’ ‘साधनाकट’ तो इतने प्रसिद्ध हो चुके हैं कि शायद ही कोई छात्र उनके प्रभाव से वंचित हो। कुमारी ‘साधनाकट’ अवश्य कहलाना चाहेंगी, चाहे रूप आबसून के कुन्दे की तरह क्यों न हो। पति को नाजनीन, साधनाकट पत्नी चाहिये और पत्नी को पति चाहिये जो सुन्दरता में चांद का टुकड़ा हो। फिल्म–उद्योग, जिसे हमारे राष्ट्र-नायक देश के सांस्कृतिक जीवन का श्रृंगार बनाना चाहते हैं, हमारी रुचियों में किस प्रकार अराजकता उत्पन्न कर रहा है, इसका आभास उपर्युक्त बातों से मिल जाता है।

यदि यही स्थिति बनी रही तो भविष्य की उच्छृंखलता और समाज विरोधी अराजकता एवं कुरुचिपूर्ण फैशन-परस्ती भाले तरुण-तरुणियों को किस गहरे गर्त में ले जाकर पटकेगी, इसकी कल्पना मात्र से हृदय कांप उठता है। हमें उन युवक-युवतियों पर ही नहीं, उन माता-पिताओं को नासमझी पर भी बड़ा तरस आता है, जो छोटे-छोटे कोमल मति, अबोध बालक-बालिकाओं को अपने साथ सिनेमा दिखलाने ले जाते हैं और उनमें सिनेमा का विषैला शौक पैदा कर उनके जीवन को बर्बाद करने में सहायक होते हैं। अपनी प्यारी सन्तान को हंसते-हंसते विनाश के इस दारुण अग्निकुण्ड में झोंकने वाले इन माता-पिताओं को क्या कहा जाय? हो सकता है, यदि उसके द्वारा जनता को नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाय। चलचित्र द्वारा जनता पर जितनी आसानी से अच्छे संस्कार डाले जा सकते हैं, उतने अन्य साधनों द्वारा शायद ही डाले जा सकें पर उसके लिए आदर्श फिल्मों का निर्माण किया जाना चाहिए।

पहले अधिकतर ऐसी ही सुरुचिपूर्ण एवं सदाचार सम्पन्न फिल्में बनती भी थीं। पर अब बहुत कम फिल्में इस ढंग की बन रही हैं। फिल्म-निर्माताओं ने धन के लालच में जनता की निम्न स्तर की हीन भावनाओं को भड़का कर उन्हें कुमार्गगामी बनाने का घोर पाप कर्म शुरू कर दिया है, जो हमारी आने वाली पीढ़ी को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से बिल्कुल खोखला बना रहा है। अब तो फिल्म-निर्माताओं ने पाश्चात्य देशों की तरह सिनेमा के पर्दे पर अर्धनग्न अवस्था में नृत्य एवं अन्य गन्दे अंगविक्षेप का प्रदर्शन करना भी आरम्भ कर दिया है। इन सब बातों से यदि फिल्म में कुछ अच्छाई भी हो तो वह सब दब जाती है और जो बालक या युवक ऐसी फिल्में देखते हैं, उनके कोमल मस्तिष्क में अस्वस्थ संस्कार जम जाते हैं। इसके लिए तो वस्तुतः उनके माता-पिता ही जिम्मेदार हैं जो उन्हें ऐसी फिल्में देखने के लिए भेजते हैं, या स्वयं अपने साथ ले जाते हैं। यों तो सरकार द्वारा सिनेमा-फिल्मों पर नियन्त्रण रखने के लिए एक सेन्सर बोर्ड नियुक्त किया गया है पर ऐसा लगता है कि इस में सम्मिलित व्यक्ति भी भारतीय संस्कृति, सदाचार एवं नैतिकता के हामी नहीं है, तभी यो आजकल ऐसी फिल्में धड़ल्ले से प्रमाणित की जा रही हैं, जिनमें गन्दे गाने, भौंड़े मजाक तथा अश्लील प्रेम-प्रसंग प्रदर्शित किये जाते हैं।

यह और भी खेद और परिताप का विषय है कि धार्मिक फिल्मों में भी अश्लील एवं वासना को उभारने वाले दृश्यों का समावेश रहता है। जब तक सिनेमाओं में इस कथित कुमारियों का अभिनय है, तब तक वे धार्मिक होते हुए भी दर्शकों के मन पर कोई अच्छा संस्कार नहीं डाल पाते, बल्कि ऐसे फिल्म भी मन में सहज विकार पैदा कर देते हैं। वस्तुतः फिल्में ऐसी हों, जिनसे हमारे मन पर अच्छा संस्कार हो, हमारी भावनायें उन्नत हों और समाज की बुराइयां और कुरीतियां दूर हों। इसके लिए सेन्सर बोर्ड में अच्छे चारित्र्य-सम्पन्न व्यक्तियों का होना अनिवार्य है। भ्रष्ट सिनेमा-फिल्मों के लिए सेन्सर बोर्ड और पर्याप्त रूप से हमारी सरकार ही जिम्मेदार है। समाज में चारित्र्य, नैतिकता, पुरुषार्थ आदि का विकास करने के लिए हमें ऐसी फिल्में चाहिये जो इन आदर्शों से अभिभूत हों, साथ ही साथ जिनसे स्वस्थ मनोरंजन भी हो। दर्शकों का भी कर्त्तव्य है कि वे गन्दी, अनैतिकतापूर्ण एवं अश्लील, फिल्मों का पूर्ण बहिष्कार कर अपने तन-मन-धन को बर्बाद होने से बचायें।

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