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वृक्षों का आध्यात्मिक महत्व

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बहुत समय से हम भारतवासी वनों एवं वृक्षों का महत्व भूल गये हैं। हमारे देश की समग्र सभ्यता, संस्कृति, धर्म एवं अध्यात्म-दर्शन का विकास वनों में वृक्षों, के नीचे ही हुआ है। हम सब वैदिक सभ्यता के अनुयायी हैं, और हमारा धर्म भी वैदिक ही है। इस वैदिक धर्म एवं वैदिक सभ्यता के प्रणेता ऋषि मुनियों ने वनों के बीच वृक्षों के नीचे बैठकर ही चिन्तन, मनन एवं ग्रहण किया था। वैदिक ज्ञान के वाङ्मय में आरण्यक ग्रन्थों का विशेष स्थान है। ग्रन्थों का यह आरण्यक नाम ही इस बात का द्योतक है कि इनका प्रणयन वनों में ही किया गया है। अरण्य का अर्थ वन ही होता है।

जिन वृक्षों के नीचे बैठकर ऋषियों ने ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति की और हमारे सामाजिक जीवन की रूप-रेखा बनाई, वन के बीच बने आश्रमों के जिन वृक्षों के नीचे गुरुकुलों में राष्ट्र के कर्णधारों, राजाओं, अमात्यों, राजगुरुओं, सेनापतियों, राजनीतिज्ञों, विद्वानों, कवियों, दार्शनिकों एवं कलाकारों का निर्माण किया गया, जो वृक्ष उन गुरुकुलों की भोजन व्यवस्था, छाया तथा निर्माण-सामग्री के साधक बने, उन वृक्षों के महत्व का विस्मरण कर देना हम भारत-वासियों के लिये कृतघ्नता के समान पाप है। वृक्षों के पूजन एवं आरोपण की जो पुण्य परम्परा भारतीय धर्म-विधान में पाई जाती है वह वृक्षों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति ही है। इस परम्परा को चलाने में ऋषियों का उद्देश्य यह रहा है कि जन साधारण धर्माचार के माध्यम से वृक्षों के संपर्क में आता रहे, जिससे उनके लाभ उनकी उपयोगिता, उनके महत्व एवं उनके उपकार से अवगत रहे। उनकी रक्षा करे और उनके उच्छेद करने को पाप समझता रहे। किन्तु खेद है कि ऋषियों का यह मन्तव्य आज लीक मात्र पीटने के रूप में रह गया है। वृक्ष पूजा के मूल मन्तव्य को पूरी तरह भुला दिया गया है। अब तो लोगों का दुःसाहस यहां तक बढ़ गया है कि जिन वृक्षों की पूजा करते हैं, जिन पर जल एवं चन्दन रोली चढ़ाते हैं, जिनको सूत्र दान करते और हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा करते हैं, उन्हें थोड़े से स्वार्थ के लिये काट तक डालते हैं। वृक्षों के प्रति भारतीयों की यह अधार्मिक बुद्धि सोच का विषय है। आज संसार में सबसे अधिक वृक्ष भारतवर्ष में ही काटे जाते हैं। चकबन्दी की चर्चा होते ही बाग के बाग साफ कर दिये गये हैं, जंगल के जंगल काट गिरा दिए गये हैं और नित्य प्रति गिराये जा रहे हैं।

वृक्षों के प्रति भारतीयों की यह निर्दयता अशोभनीय है। जीवों की भांति ही वृक्षों पर भी दया करनी चाहिए। हरे वृक्षों को काटना न केवल वनस्पति के रूप में देश की सम्पत्ति को हानि पहुंचाना है, अपितु यह जीव हत्या के समान एक पाप भी है। यदि जड़ जीवन की बात छोड़ भी दी जाये तो भी संसार का अनन्त उपकार करने वाले वृक्षों का ह्रास करना मानव-समाज ही नहीं सम्पूर्ण जीव-जगत को हानि पहुंचाना है। यदि एक बार वृक्षों को जड़ भी मान लिया जाये तब भी यह सोच सकने का अवसर है कि जड़ होकर भी वृक्ष संसार का कितना उपकार करते हैं और हम चेतन होकर भी उस अनबोल उपकारी पर कुल्हाड़ी चलाते हैं। वृक्षों को काटने अथवा नष्ट करने वालों की तुलना दुष्ट तथा क्रूर पक्षी बाज से की गई है, जो सुकुमार पक्षियों को मार डालता है। वेद के ऋषि ने कहा है—

                                                          मा का कम्बीर मुहृ हो वनस्पतिन शस्तीर्वि हिनीनशः ।
                                                          मोत    सूरो    अह    एवा   चन   ग्रीवा    अदधते   वेः ।।

अर्थात्—जिस प्रकार दुष्ट बाज पक्षी दूसरे पक्षियों की गर्दन तोड़कर उन्हें कष्ट पहुंचाता और मार डालता है, तुम उस प्रकार के न बनो। इन वृक्षों को कष्ट न दो और न इन्हें काटो ही क्योंकि यह वृक्ष पशु-पक्षियों तथा अन्य जीव जन्तुओं को शरण देते हैं।

आध्यात्मिक उन्नति के लिये मनुष्य का परोपकारी होना आवश्यक है। मनुष्य का स्वयं परोपकारी होना और किसी परोपकारी के प्रति आदर भाव रखना, श्रद्धा करना अथवा उसकी रक्षा करना भी परोपकार ही है। और यदि विचारपूर्वक देखा जावे तो पता चलेगा कि किसी की सेवा करना, भला अथवा सहायता करना एकधा परोपकार करना है, किन्तु किसी परोपकारी, समाज सेवी, दानी, दयालु आदि परमार्थी व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा रखना, आपत्ति के समय उनकी रक्षा में सहायक होना, उनके पुण्य कार्यों में सहयोग करना द्विधा परोपकार है।

एक तो व्यक्ति रूप में परोपकारी की सेवा करना दूसरे ऐसे व्यक्ति का पोषण, परिवर्धन, रक्षा करना, परोक्ष रूप में उन सब लोगों की सेवा सहायता में मूल परोपकारी के माध्यम से भागीदार बनना है। इस द्विधा परोपकार का पुण्यफल पाने के लिये मनुष्यों को वृक्ष जैसे निःस्वार्थ परोपकारी की हर प्रकार से सेवा, सहायता तथा सुरक्षा करनी चाहिए। वृक्षों के परोपकार का यदि लेखा-जोखा लिया जाये तो पता चलेगा कि जीव जन्तुओं तथा पक्षियों को शरण तथा भोजन-वास देने के अतिरिक्त वृक्ष मनुष्य जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में उपयोगी होते हैं। छाया, फल-फूल, ईंधन, कोयला, इमारती लकड़ी, गंध औषधियां, गोंद, लाख, राल, शहद आदि न जाने जीवनोपयोगी कितनी चीजें वृक्षों से ही पाई जाती हैं। मेवे, मसाले आदि सब वृक्षों से ही मिलते हैं। अब तो कागज एवं कपड़ा भी वृक्षों के गूदे, छाल, पत्तियों तथा रेशों से बनने लगा है। हल से लेकर खुरपी तक और बैलगाड़ी से लेकर हवाई जहाज तक के निर्माण में वृक्षों से प्राप्त होने वाली लकड़ी का विशेष स्थान है। धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोग होने वाली अधिकांश वस्तुयें काठ की ही बनती हैं। यज्ञ के उपकरण, उपादान तथा सामग्री वृक्षों की सहायता से ही उपलब्ध की जाती हैं। प्राण-रक्षक ऑक्सीजन गैस का देना और घातक गैस कार्बनडाय ऑक्साइड गैस का शोषण करना वृक्षों का ही पुण्यकार्य है। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन असम्भव हो जाये। वृक्ष मेघों के बनने और बरसने में किस सीमा तक सहायक होते हैं इस सत्य को विज्ञान का बाल-विद्यार्थी तक जानता है।

जंगल न केवल बाढ़ रोकने के ही पुण्य कार्य का सम्पादन करते हैं बल्कि वे धरती के क्षरण तथा मरुवर्धन को भी रोकते हैं। पृथ्वी की उर्वरा शक्ति में वृक्ष अनेक प्रकार से सहायक होते हैं। उनसे उपकारी वृक्षों को पालना, उनकी रक्षा करना तथा उनको लगाना कितना महान पुण्य हो सकता है और इनका काटना तथा उजाड़ना कितना जघन्य पाप हो सकता है इसको कोई भी आध्यात्मिक उन्नति का आकांक्षी व्यक्ति सहज ही में समझ सकता है। प्राणी मात्र के परमोपकारी वृक्षों को पाल पोस तथा आरोपण करके अध्यात्म दिशा में उल्लेखनीय लाभ उठाया जा सकता है। पूर्वकाल में गुरु-आश्रम तथा गुरुकुल वन में वृक्षों के बीच ही स्थापित किये जाते थे। विद्यार्थी स्वयं अपने हाथों से वृक्षों को लगाते तथा सींचते थे। उन्हीं के नीचे बैठकर पढ़ते तथा उन्हीं की छाया में शयन भी करते थे। ऐसे नियम का कारण यही था कि जहां इस प्रकार वे प्रकृति के संसर्ग में रहकर मन, बुद्धि तथा आत्मा से शुद्ध रहते थे वहां शरीर से स्वस्थ भी रहते थे। वृक्ष साधकों की आध्यात्मिक भावनाएं जगाने, बढ़ाने तथा स्थिर रखने में स्वाभाविक रूप से सहायक होते थे। यही कारण है कि उन-दिन वृक्षों के बीच स्थापित गुरुकुलों से पढ़कर निकलने वाले स्नातक एवं आचार्य बड़े ही स्वस्थ सुन्दर, सबल, विद्वान तथा चरित्रवान होते थे।

अरण्य-विद्यालयों में शिक्षित एवं दीक्षित विद्यार्थी काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि किसी प्रकार के विचारों से आजीवन परास्त न होते थे। वृक्षों का यह उपयोगी आध्यात्मिक महत्व आज भी कम नहीं है। उनके उन दिव्य गुणों में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है। आज भी विद्यालयों, गृहों तथा धार्मिक स्थानों को यथासम्भव हरे भरे वृक्षों से संकुल रखने का प्रयत्न किया जाता है। कमी केवल यह हो गई है मनुष्य ने वृक्षों के इस आध्यात्मिक महत्व को भुला दिया है। वह उन्हें और अधिक पालने-पोसने तथा लगाने में पुनः प्रवृत्त हो जाये तो वनस्पति के अधिकाधिक संपर्क मात्र से ही वह न जाने कितना आध्यात्मिक लाभ उठालें। फूलों फलों एवं हरीतिमा से भरी हुई वृक्षावली मनुष्य की सौंदर्य चेतना को उद्बुद्ध करने में सबसे अधिक सफल सहायक है। संसार का सारा सौंदर्य प्रकृति की सुन्दरता का ही प्रतिबिम्ब है। जिस समय फली फूली एवं रंग-बिरंगी प्रकृति पर मनुष्य की दृष्टि पड़ती है, उस समय उसकी आत्मा में जो सात्विक सौन्दर्यानुभूति होती है वह आध्यात्मिक अनुभूति ही होती है। उस समय उसके प्राणों में स्वयं परमात्मा ही सौंदर्य बोध में प्रबुद्ध हुआ करता है। निःसन्देह, यदि मनुष्य की वह सौन्दर्यानुभूति स्थायी हो जाये तो उसकी पावन पुलक उसे जीवन मुक्त ही बना दे। प्राकृतिक सौंदर्य जहां मनुष्य को प्रसन्न बनाता है वहां उसके मन, बुद्धि तथा आत्मा को निर्विकारता भी प्रदान करता है, मनुष्य की यह त्रिविधि निर्विकारता आध्यात्मिक उन्नति की आधारभूत भूमिका है। वृक्षों के इसी अनिवर्चनीय महत्व के कारण भारतवर्ष के अध्यात्म प्रणेता ऋषि मुनियों ने वृक्षारोपण एवं उनके पालन पोषण को एक धार्मिक पुण्य तथा उनके उन्मूलन एवं विनष्ट करने को भयानक पाप बतलाया है।

वृक्षों का महत्व बतलाते हुये विष्णु-स्मृति में वर्णन किया है—

                                                    वृक्षारोपतितुर्वृक्षाः परलोके पुत्रा भवन्ति ।
                                                    वृक्षप्रदो वृक्ष प्रसूनैर्द्देवान् प्रीणायति
                                                    फलैश्चातिथीन् छाययाचाभ्यागतान्
                                                    देवे वर्षन्युदकेन पितृान ।
                                                    पुष्प प्रदानेन श्रीमान् भवति ।
                                                    कूपाराम तडागेषु देवतायतनेषुच ।
                                                    पुनःसंस्कार कर्त्ता च लभते मौलिकं फलम् ।।

अर्थात्—जो मनुष्य वृक्ष लगाता है, वे वृक्ष परलोक में उसके पुत्र बनकर जन्म लेते हैं। वृक्षों का दान देने वाला उसके फूलों से देवताओं को प्रसन्न करता है। फलों द्वारा अतिथियों को सन्तुष्ट करता है और वर्षा में छाया द्वारा पथिकों को सुख देता है फल तथा जल द्वारा पितरों को प्रसन्न करता है। पुष्पों फूलों का दान करने वाला श्रीमन्त और कुंआ, तालाब तथा देवस्थानों का संस्कार कराने वाला नया बनवाने के समान पुण्यफल प्राप्त किया करता है।

इस प्रकार वृक्षारोपण तथा पोषण के आध्यात्मिक महत्व को समझते हुए प्रत्येक-धर्म-प्रेमी तथा आध्यात्मिक जिज्ञासु को अपने जीवन में अनेक वृक्ष लगाने चाहिये और उन्हें पुत्र की तरह प्रेम से पालन करना चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो किसी लाभ, लोभ, अथवा आवश्यकता से कोई हरा वृक्ष तो काटना ही नहीं चाहिये। इन दिनों वर्षा ऋतु चल रही है जिनके लिए संभव हो खाली जमीन पर वृक्ष लगाकर एक श्रेष्ठ पुण्य परमार्थ उपार्जित करना चाहिए।

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