संसार में कदाचित ही कोई ऐसा देश अथवा समाज हो जिसमें थोड़ा बहुत जाति अथवा श्रेणी भेद न पाया जाता हो। उनमें ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ का भाव भी पाया जाता है। किन्तु यह भेद-भाव है केवल विद्या, बुद्धि, धन-दौलत तथा मनुष्य की अपनी विकसित अथवा अविकसित स्थिति के अनुसार, जन्म-जाति के अनुसार नहीं।
अमेरिका आदि देशों में यह भाव काले-गोरे के बीच पाया जाता है। इसका आधार यही है कि वहां की काली जाति विद्या, बुद्धि तथा सभ्यता संस्कृति में गोरों की तरह विकसित नहीं है। स्वाभाविक है कि विकासशील गोरा वर्ग उन्हें अपने से हेय तथा हीन समझे। अब उन काले वर्गों में से जो व्यक्ति अपने अध्यवसाय के बल पर उन्नत स्थिति पाते जा रहे हैं उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा मिलने लगी है। पढ़-लिखकर अपना विकास कर लेने पर भी वह इसलिए नीच ही समझा जाता रहे कि उसने काली जाति में जन्म लिया है ऐसी बात नहीं है। यद्यपि अब भी कुछ रूढ़िवादी व्यक्ति पुरानी लकीर पीटने की कोशिश कर रहे हैं पर अब यह प्रतिक्रिया अपवाद बनती जा रही है। इतना होने पर भी काले-गोरों के बीच छुआ-छूत का अभिशाप वैसा कभी नहीं रहा जैसा भारत के सवर्णों तथा अवर्णों के बीच पाया जाता है। अपने को श्रेष्ठ तथा ऊंचा मानने वाले गोरी जाति के लोग कालों को छूने तथा उनके हाथ का खाने-पीने में कभी भी घृणा नहीं करते रहे हैं।
इंग्लैंड जैसे प्रगतिशील देशों में भी लार्ड, कामन्स तथा मजदूर वर्ग जैसा विभाजन पाया जाता है, किन्तु वह हैं मनुष्यों की वर्तमान स्थिति के अनुसार अधिकतर राजनीतिक क्षेत्र में ही। इसका आधार जाति-जन्म नहीं है।
भारतवर्ष का जाति-भेद तथा छुआछूत का स्वरूप कुछ अजीब ही है। यहां पर तथाकथित ऊंची जाति और नीची जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति जीवन भर ऊंचा अथवा नीचा बना रहता है फिर चाहे वह अपने कर्मों से कितना ही गिर गया हो अथवा उठ गया हो। सवर्ण जाति का कोई भी हिन्दू किसी अवर्ण जाति के व्यक्ति को अपने पास बिठाने, उसे छूने अथवा उसके हाथ की कोई चीज स्वीकार करने को तैयार नहीं होता फिर चाहे सवर्ण व्यक्ति उस अवर्ण व्यक्ति से आन्तरिक स्थिति तथा विद्या-बुद्धि में कितना ही नीचा क्यों न हो। भारत की हिन्दू जाति में यह भेद-भाव तथा छुआछूत एक भयंकर अभिशाप है। इस अभिशाप से इस जाति को न जाने कितनी हानि उठानी पड़ी है और उठानी पड़ रही है। यदि भेद-भाव की यह भयंकरता बनी रही तो आगे भी उठानी पड़ेगी। इसलिए सामाजिक तथा राष्ट्रीय हित में यही अच्छा होगा कि देश से छुआ-छूत का भूत शीघ्र ही भगा दिया जाये।
वैसे तो भारतवर्ष में नीची कही जाने वाली न जाने कितनी जातियां हैं जो एक प्रकार से सवर्णों द्वारा तिरस्कृत, उपेक्षित तथा बहिष्कृत रह कर एक निकृष्ट सामाजिक जीवन व्यतीत कर रही हैं। किन्तु इनमें से बहुतों के साथ गनीमत इतनी तो है कि उनको छूने अथवा उनके हाथ का पानी पी लेने में घृणा नहीं की जाती। वे किसी न किसी रूप में समाज में मिली-जुली हैं। किन्तु दुर्दशा तो एक उस बड़े वर्ग की है जिसे अन्त्यज, अछूत अथवा हरिजन कहा जाता है।
हिन्दू समाज में हरिजनों की संख्या तिहाई के लगभग होगी। किन्तु हिन्दुओं की यह लगभग एक बटा तीन संख्या अपने भाइयों द्वारा ही बहिष्कृत बनी हुई नारकीय जीवन बिता रही है। हिन्दुओं की यह तिहाई ताकत यों ही एक ओर पड़ी नष्ट हो रही है। निःसन्देह हरिजनों की दयनीय दशा हमारे हिन्दू समाज पर नहीं वरन् मानव जाति पर एक कलंक बनी हुई है। हरिजनों के सुधार का अर्थ होगा समग्र हिन्दू जाति का सुधार, संगठन तथा शक्तिशाली होना। इस लिए हिन्दू समाज को इनके सुधार का यथासम्भव हर उपाय करना चाहिए।
आज जब हम अमेरिका आदि देशों में काली जातियों पर अत्याचार की सूचनायें पढ़ते-सुनते हैं तो गोरी जाति की आलोचना करते हुए कहा करते हैं कि काली जातियों पर अत्याचार करना, उन्हें सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकार न देना, मानवता का अपमान है, मनुष्यता के प्रति अन्याय है। किन्तु हम अपने ही गरेवान में मुंह डाल कर नहीं देखते और न सोचते हैं कि हमने हरिजन भाइयों की क्या दशा बनी रखी है? जब हम अपने ही एक वर्ग को छूने तक में घृणा करते हैं, उनके स्पर्श से हमारे घर-द्वार, घर-बार तथा मन्दिर देवालय तक अछूत हो जाते हैं तब हमें इस प्रकार की आलोचना करने अथवा उन्हें उपदेश देने का क्या अधिकार है? हम पहले अपने अन्त्यज वर्ग से घृणा करना छोड़ें तब किसी दूसरे की आलोचना करें, मनुष्यता की दुहाई देकर मानवता की पुकार करें।
मनुष्य मात्र एक है—ऐसा हमारे धर्म-ग्रन्थ ही पुकार-पुकार कर नहीं कहते किन्तु हमारा विवेक भी यह निर्णय कर सकता है—कि संसार के सभी मनुष्यों को एक परमात्मा ने एक तरह से ही पैदा किया है, उन्हें एक जैसे ही हाथ-पैर, नाक-कान दिए हैं, तब मनुष्य द्वारा उनके बीच जन्म-जाति से ऊंच-नीच तथा छुआ-छूत का भेद करना कहां तक उचित है? किसी को उसके कुकर्मों के कारण तो निकृष्ट अथवा घृणित माना जा सकता है किसी वर्ग अथवा जाति विशेष में जन्म लेने के कारण नहीं। कर्मों के कारण से तो कोई भी ऊंचा कहा जाने वाला, घृणित तथा नीचा कहा जाने वाला श्रेष्ठ माना जा सकता है। अनेक जातियों तथा श्रेणियों को स्वीकार किया जा सकता है किन्तु केवल अभिज्ञान के लिए, न कि ऊंच-नीच के वर्ग भेद के लिए।
सामाजिक, राष्ट्रीय तथा धार्मिक दृष्टिकोण के अतिरिक्त यदि हम हरिजनों के प्रति अपने व्यवहार का न्याय करें तो यही पायेंगे उनके साथ हम वही कुछ कर रहे हैं जो किसी मनुष्य को मनुष्य के साथ नहीं करना चाहिए। हम सवर्ण हिन्दू उससे घृणा करते हैं। यदि यह घृणा मन ही मन में सीमित रहती तो भी अधिक कष्टदायक नहीं होती। किन्तु यह बात-बात में हमारे व्यवहार में व्यक्त होती है। ऐसे सवर्ण एवं कुलीन हिन्दू बहुत ही कम होंगे जो हरिजनों से सीधे मुंह बात करते हों। उनसे सभ्यता तथा शिष्टता का व्यवहार करते हों। नहीं तो उससे ऐसा तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया करते हैं मानो वह उनका कोई बड़ा अपराधी हो। इस प्रकार का अकारण दुर्व्यवहार हरिजनों को कितनी पीड़ा देता होगा इसका अनुभव करना क्या जरूरी नहीं है?
अब प्रगति का युग आरम्भ हो गया है। संसार की सारी पिछड़ी जातियां प्रगति पथ पर लाई जा रही हैं। उनके हितैषी हजार कष्ट सह कर भी उन को उठायेंगे। ये उठ रही हैं और आगे भी उठती जायेंगी। अपने हिन्दू समाज को भी अब चेत जाना चाहिए और अपने हरिजन भाइयों के उद्धार में तन-मन-धन से लग कर जपने पर लगी संकीर्णता की कालिख को धो डालना चाहिए। हरिजनों की अवनत दशा समाज की निर्बलता बनी हुई है। जिसका लाभ उठा कर अन्य अनेक समाज हिन्दू जाति को नगण्य ही नहीं उसे मिटा डालने की योजनायें बनाए हुए हैं। यदि हिन्दू समाज को संसार की यह दुरभिसंधि स्वीकार है तब तो कोई बात नहीं और यदि वह यह चाहता है कि संसार में एक सबल, सशक्त तथा संगठित समाज बन कर रहे तो उसे अपने हरिजन भाइयों को अपनाना होगा उनकी दशा सुधारनी होगी। उन्हें उठाना होगा। उन्हें शिक्षित एवं प्रशिक्षित बनाकर अपना अंग मानना होगा।
हिन्दू जाति संसार में सबसे अधिक दयावान जाति मानी गई है। उसने बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक हानियां उठाकर अपने इस गौरव की रक्षा की है, अपनी इस विशेषता का प्रमाण दिया है। किन्तु पता नहीं ऐसी दयावान् जाति अपने हरिजन भाइयों के प्रति ऐसा अमानसिक क्रूरता का व्यवहार क्यों कर रही है? उसे इनकी दयनीय दशा देख कर दया क्यों नहीं आती? उनके प्रति वह आज भी पत्थर क्यों बनी हुई है? उन्हें मानसिक तथा व्यवहारिक कष्ट देकर न जाने कौन सा सुख पाती है? चींटियों को चुगाने और सांपों, कुत्तों, गायों की पूजा करने वाली हिन्दू जाति हरिजनों से क्यों घृणा करती जा रही है—वास्तव में यह एक आश्चर्य की बात है। संसार का सर्वोपरि अहिंसावादी हिन्दू समाज जो कि कृमिकीट को भी पीड़ा पहुंचाने में अधर्म मानता है—हरिजनों को पीड़ा पहुंचाते समय अपनी अहिंसा का सिद्धान्त क्यों भूल जाता है। यह और कुछ नहीं केवल भ्रम है, रूढ़िवादिता है, अन्धकार है जिससे अब हमारे हिन्दू समाज को सजग हो ही जाना चाहिए।
हमें उत्साह पूर्वक हरिजनों के प्रति इस अस्पृश्यता का कलंक धो ही डालना चाहिए। इससे न केवल उनकी शक्ति ही बढ़ेगी बल्कि उनमें एक उपयोगी प्रगतिशीलता का श्री गणेश होगा जो प्रतिदिन बदलते संसार में उनके लिए बड़ी ही लाभकर सिद्ध होगी। आशा है कि ईसाइयों, मुसलमानों, पारसियों तथा ऐसी ही अन्य अनेक जातियों से सम्पर्क रखने में सवर्ण हिन्दू हिचक नहीं करते जबकि ये जातियां बहुत से ऐसे काम करती हैं जो कि हिन्दुओं के लिये सामाजिक एवं धार्मिक आधार पर बहुत हद तक प्रतिकूल पड़ते हैं। किन्तु अपने ही भाई हरिजनों से सम्पर्क बढ़ाने में संकोच करते हैं। इसे अविवेक जन्य कुसंस्कारों के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? आज भूमि के चप्पे चप्पे से भेद-भाव मिटाया जा रहा है, रंग भेद, जाति भेद, वर्ग भेद, श्रेणी भेद को अमानवता कहकर दूर किया जा रहा है और समस्त मानव जाति को एक मानव समाज का नारा दिया जा रहा है तब वसुधैव कुटुम्बकम्, का उद्वेष करने वाला ही हिन्दू समाज इस प्रगतिशीलता में, सो भी अपने ही अंग हरिजनों के प्रति पीछे क्यों रह जाये।