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भारतीय वेषभूषा और वस्त्र धारण

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मनुष्य के स्वास्थ्य का सम्बन्ध भोजन से तो है ही वस्त्रों से भी कम नहीं है। मानव का शरीर जिन पांच तत्वों से बना है उनमें वायु तथा प्रकाश बहुत महत्व है। यह दानों चीजें जीवन के लिये नितान्त आवश्यक हैं। यदि मनुष्य को कुछ दिन सूर्य का प्रकाश मिलना बन्द हो जाये तो वह शीघ्र विविध प्रकार के रोगों में आक्रान्त हो जाये, और वायु के अभाव में तो वह एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। वायु को मनुष्य का प्राण बतलाया गया है। संसार के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव पर बसने वाले क्षेत्रों में, सही है कि छः छः महीने सूर्य के दर्शन नहीं होते। तब भी वहां पर प्रकृति की ओर से एक अद्भुत आलोक किसी कोने से चमका करता है। साथ ही मनुष्य अनेक उपलब्ध वस्तुएं जलाकर रोशनी और गर्मी पैदा करके सूर्य के अभाव को पूरा कर लेते हैं। तब भी उन ध्रुवीय क्षेत्रों में प्राणी तथा वनस्पति बहुत कम मात्रा में पाये जाते हैं। अधिक ऊंचाइयों पर, जहां हवा विरल अथवा बिल्कुल नहीं होती, जाते समय मनुष्यों को श्वास लेकर वायु की पूर्ति करने के लिये वैज्ञानिक ढंग से बने हवा के थैले ले जाने होते हैं। अस्तु, वायु और प्रकाश मानव जीवन के लिये आवश्यक पदार्थ हैं।

एक तो आज यों ही मनुष्य घरों में बन्द होकर इन दोनों प्राकृतिक तत्वों से दूर हो गया है। दूसरे उसे बाहर आने-जाने पर थोड़ा बहुत संसर्ग प्राप्त जो सकता है उसकी संभावना शरीर पर धारण किये जाने वाले वस्त्रों ने क्षीण कर दी है। आज की सभ्यता तथा सामाजिक व्यवस्था में वस्त्र आवश्यक है। किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं है कि शरीर को वस्त्रों से इस बुरी तरह जकड़े रहा जाये कि वह वायु तथा प्रकाश के स्पर्श तक के लिये तरस जाये।

यों तो निःसर्ग ने मनुष्य को नंगा, वस्त्रहीन पैदा किया है और उस दृष्टिकोण से वस्त्रावरण उसके लिये कृत्रिम तथा अस्वाभाविक आवश्यकता है। अब चूंकि हजारों वर्ष से मनुष्य वस्त्रों को पहनता चला आया है, उसका शरीर सर्वथा, सब ऋतुओं तथा कालों में नंगा रह सकने में अक्षम हो गया है। साथ ही लोक-लज्जा तथा सामाजिक व्यवस्था और मानवीय मान्यताओं के कारण वस्त्र अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। सभ्यता का एक अंग मान लिया गया, शिष्टता तथा शालीनता का चिन्ह बन गया है। आज के युग में, यदि कोई नंगा रहने लगे तो लोग उसे असभ्य, जंगली, असामाजिक अथवा सनकी मानेंगे। यद्यपि साधुओं का वह सम्प्रदाय जो नग्न अथवा दिगम्बर रहा करता है कुछ कम हो गया है और जो हैं भी वे बस्तियों से दूर रहते हैं, जब कभी बस्ती में आते हैं तो सम्पूर्ण नग्नता में कुछ कमी कर लेते हैं, तथापि वे समाज से अलग वर्ग के अपवाद स्वीकार किये जाते हैं। उनकी इस दिगम्बरता के साथ धार्मिकता का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है अन्यथा लोग उन्हें भी निर्लज्ज, लफंगा आदि न जाने क्या-क्या कहकर लांछित तथा अस्वीकार कर देते। तब भी जो अधिक शिक्षित, अधिक शिष्ट, साहसी तथा खुले दिमाग के हैं उन दिगम्बर साधुओं की नग्न दशा को मान्यता नहीं देते। तात्पर्य यह कि वस्त्र आज सभ्यता, शिष्टता तथा मानवता का चिन्ह बनकर अनिवार्य आवश्यकता बन गये हैं।

लज्जा निवारण तथा ऋतु के प्रभाव से बचने के लिये मतलब भर के वस्त्र पहनना तो समझ में आता है, किन्तु शौक, फैशन अथवा दिखाये के लिये वस्त्र पर वस्त्र लादे रहना किसी प्रकार भी समझ में नहीं आता। शरीर को इस प्रकार अनावश्यक वस्त्रों से जकड़े रहने का परिणाम यह होता है कि लोग सूर्य के स्वास्थ्यदायक प्रकाश और वायु की जीवनी शक्ति से वंचित रह जाते हैं। प्रकाश और वायु स्वास्थ्य के लिये ही नहीं जीवन के लिये भी आवश्यक हैं। हमारा यह वस्त्रों सम्बन्धी शौक उन्हें प्राप्त होने देने में बाधक होता है। आजकल अधिकांश लोग जिस प्रकार दिखावे के लिये कई-कई वस्त्र कसे रहते हैं वह निश्चय ही स्वास्थ्य के लिये घातक है। किसी बीमारी अथवा खास अवसर को छोड़ कर सदा वस्त्रों से घिरे रहने को सभ्यता का लक्षण मानना भूल है।

यह बात जरूर है कि आज के समय में किसी को दिगम्बर अथवा एक लंगोटी लगा कर घूमने की राय जरूर नहीं दी जा सकती, तथापि वस्त्रों की इस अनावश्यक बहुतायत का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। गर्म देशों अथवा गर्मी की ऋतु में सूती वस्त्र और ठंड में ऊनी वस्त्र पहनना बुरा नहीं और न अधिक ठंड पड़ने पर शारीरिक स्थिति के अनुसार एक से अधिक वस्त्रों पर आपत्ति की जा सकती, किन्तु शरीर रक्षा के दृष्टिकोण से न पहनकर शान-शौकत के लिये वस्त्र पर वस्त्र पहनना अवश्य आपत्तिजनक है। इससे व्यक्ति के स्वास्थ्य तथा व्यय पर कुप्रभाव पड़ता है और उसके माध्यम से पूरा समाज तथा राष्ट्र प्रभावित होता है।

यह व्यक्ति ही नहीं पूरे राष्ट्र के लिए दुर्भाग्य की बात है कि वस्त्रों को एक अनिवार्य आवश्यकता मान लिया गया है और उसे इतना महत्व दे दिया गया है कि भोजन के समकक्ष हो गई है। किन्तु कोई कोई लोग तो उसे भोजन से भी अधिक महत्व देते हैं और वस्त्रों की शान-शौकत के लिये भोजन का स्तर गिरा देते हैं। उनका सिद्धांत होता है कि—खाया-पिया कौन देखता है? इज्जत कपड़ों से बनती है। भोजन के नाम पर सूखी भले खालें किन्तु समाज में अच्छे कपड़े ही शोभा देते हैं। रौब खाने-पीने का नहीं कपड़ों का ही पड़ता है। कहना न होगा कि इज्जत की यह कितनी गलत मान्यता है। जो वस्त्र अस्वाभाविक हैं, अस्वास्थ्यकर हैं, उन्हें तो इतना महत्व दिया जाये और भोजन जो कि शरीर से लेकर आध्यात्मिक उन्नति का मूल आधार है वह गौण माना जाये। इसे विपरीत बुद्धि के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?

सजावट, सुन्दरता अथवा आकर्षण के लिये किम्वा मान-सम्मान के लिए वस्त्रों का सहारा लेना अथवा उन्हें महत्व देना भी सर्वथा निरर्थक है। सुन्दरता का आधार कपड़े नहीं स्वास्थ्य है, जो कि सर्वदा स्वाभाविक रहन-सहन से ही प्राप्त होता है। जो शोभा स्वस्थ शरीर में होती है वह कपड़ों से सजे अस्वस्थ शरीर में कहां? सीधी सच्ची बात तो यह है कि जिनका शरीर स्वाभाविक रूप से स्वस्थ तथा सुडौल होता है उन्हें न तो ज्यादा वस्त्र पहनने की आवश्यकता होती है और न वे पहनते ही हैं।

वस्त्रों का देश-काल के अनुसार ही पहनना ठीक है। हम भारतीयों के लिए भारतीय पहनावा उचित तथा लाभकारी है। किन्तु खेद का विषय है कि हमारे बीच से अपना स्वाभाविक तथा अनुकूल पहनावा तो उठता जा रहा है और उसके स्थान पर कोट, पतलून की विदेशी तथा अस्वाभाविक वेशभूषा बढ़ती जा रही है। अंग्रेजी राज्य के समय कभी इस प्रकार के पहनावे की विवशता रही होगी। किंतु अब तो हम सब उस विवशता से मुक्त हो गये हैं, तब समझ में नहीं आता कि भारतीय इन पहनावों को क्यों महत्व दिये जा रहे हैं। आज शिक्षित तथा कर्मचारी वर्ग ही नहीं साधारण मजदूर पेशा और अनपढ़ लोग भी पतलून से कम बात नहीं करते। इसे मानसिक गुलामी के सिवाय और क्या कहा जा सकता है? जबकि घोर दासता के समय देशी पोशाक का महत्व रखने वालों के प्रेरक उदाहरण मौजूद हैं।

पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अंग्रेजी राज्य में शिक्षा विभाग के एक ऊंचे पद पर थे। उन्हें बड़े-बड़े ऊंचे अफसरों से तो सम्बन्ध रहता ही था सप्ताह में दो-तीन बार बंगाल के गवर्नर से भी मिलना पड़ता था। किन्तु वे उनसे कभी भी कोट, पतलून पहनकर मिलने नहीं जाते थे। उनका पहनावा तनीदार कुरता तथा धोती ही रहता था। गवर्नर से मिलने के लिए ‘प्रापर ड्रेस’ का कानून बन जाने पर जब कोट, पतलून पहनने की विवशता आ पड़ी तो वे स्वदेश धनी एक दिन गवर्नर के पास गये और त्याग पत्र दे देने का प्रस्ताव किया। गवर्नर ने कारण पूछा तो उन्होंने साफ कह दिया कि मुझे कर्त्तव्यवश आपसे मिलने आना ही होगा अब जिसके लिए कोट, पतलून का पहनना आवश्यक है। मैं अपनी देशी पोशाक का त्याग नहीं कर सकता इसलिये मजबूरी है कि पद से त्यागपत्र दे दूं। बंगाल का अंग्रेज गवर्नर विद्यासागर के इस स्वाभिमान से बहुत प्रभावित हुआ और उसने उनके लिए ‘प्रापर ड्रेस’ का नियम अपवाद कर दिया।

लोकमान्य तिलक और पण्डित मदनमोहन मालवीय अदालतों, कौंसिलों तथा इंग्लैंड की पार्लियामेंटों तथा कौंसिलों में अपनी देशी पोशाक कुरता-धोती और पगड़ी पहनकर ही जाया करते थे। उन्होंने किसी दबाव अथवा प्रभाव से अपनी देशी वेशभूषा नहीं छोड़ी। जगत बंध बापू तो इसके आदर्श उदाहरण हैं। वे भारत सम्राट जार्ज पंचम से मिलने गये। नियमानुसार उन्हें बादशाह से मिलने के लिये विशेष पोशाक पहनने के लिये कहा गया। उन्होंने स्वाभिमान पूर्वक उसके पालन से इनकार करते हुये स्पष्ट कह दिया कि वे सम्राट् से अपनी इसी भारतीय भूषा कोपीन तथा उत्तरीय पहने ही मिलेंगे यदि उन्हें स्वीकार हो तो धन्यवाद अन्यथा मैं अपने देश बिना मिले ही वापस चला जाऊंगा। सम्राट् जार्ज पंचम बापू की इस देशभक्ति से बड़ा प्रसन्न हुआ और लंगोटधारी महात्मा से शाही पोशाक में बादशाह की हैसियत से मिले और खड़े होकर हाथ मिलाया। ऐसे-ऐसे ज्वलन्त उदाहरण होने पर भी हम भारतीयों को यदि आज स्वाधीनता के युग में भी अपने राष्ट्र वेश विन्यास के प्रति आस्था नहीं है और भूतपूर्व गुलामी के अवशेष विदेशी वेश अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं तो कहना होगा कि हम तन से तो स्वतंत्र हो गये किन्तु मन से अभी भी अंग्रेजों के गुलाम बने हैं जो निश्चय ही एक धिक्कारपूर्ण मनःस्थिति है।

यदि प्रकृति, स्वास्थ्य तथा आवश्यकता के अनुसार देखा जाये तो पहनावे के विषय में भारतीय मनीषियों की मान्यता बहुत प्रशंसनीय तथा हितकर है। वे प्रकृति के इस नियम को जानते थे कि शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से वायु तथा सूर्य के प्रकाश का हमारी देह से जितना संपर्क रहेगा उतना ही लाभदायक होगा। इसलिये उनका उद्देश्य, लज्जा निवारण के लिये वस्त्र-धारण करना रहता था। प्राचीन काल में वे एक अधोवस्त्र टखनों तक और ऊपर एक उतना बड़ा ही उत्तरीय डाले रहते थे। बस इससे अधिक वे कुछ न पहनते थे और न ओढ़ते थे। जन-साधारण भी अधिक से अधिक अंगरखा, धोती और पगड़ी पहनते थे जो काफी ढीले-ढाले और आराम देह रहते थे। यह वस्त्र न केवल स्वास्थ्यदायक ही होते थे वरन् सस्ता, सुलभ और जल्दी-जल्दी धोये जा सकने के योग्य भी होते थे। जाड़ों में वे अपेक्षाकृत कुछ मोटे अथवा ऊनी वस्त्र पहन लेते थे। यही पहनावा भारतीय जलवायु तथा देश की आर्थिक स्थिति के अनुकूल है, और यही सर्व साधारण को पहनना भी चाहिए। अधिक से अधिक अंगरखा के स्थान पर कुरता, पगड़ी के स्थान पर टोपी बदली जा सकती है। धोती-कुरता और टोपी वास्तविक भारतीय पहनावा है इन्हें ही पहना जाना उचित है। अन्य अवसरों तथा देशकाल के अनुसार और तरह का भी पहनावा अनुचित नहीं किन्तु वह होना देशी ही चाहिए विदेशी अथवा विजातीय नहीं। इसी में ध्येय है, गौरव है और स्वास्थ्य की सुरक्षा।

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