भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

फैशन का कलंक धो डालिये

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यह बात सही है कि कोई भी मनुष्य नहीं चाहता है कि वह किसी दूसरे की दृष्टि में भद्दा, कुरूप अथवा अनाकर्षक लगे। प्रत्येक व्यक्ति की यही इच्छा रहती है कि वह देखने वालों की नजरों में समाये। लोग उसे देख कर अनुभव करें कि यह कायदे-करीने का विशेष व्यक्ति है। यथा-शक्य दर्शनीय बनने का लोग प्रयत्न भी करते हैं।

आकर्षक दिखाई देने की इच्छा अपने आप में कोई बुरी बात नहीं है। हर प्रबुद्ध प्राणी सौन्दर्य-प्रेमी होता है। जब हम या आप ऐसी वेश-भूषा में दीखते हैं जो आकर्षक हो तो एक प्रकार से लोगों की सौन्दर्य दृष्टि को सन्तुष्ट करते हैं, उन्हें प्रसन्न करते हैं, जिससे सद्भाव एवं सौहार्द का वातावरण उत्पन्न होता है। समाज में स्वच्छता, सुन्दरता और समीचीनता की प्रवृत्तियां बढ़ती हैं। इसलिए भली प्रकार का रहन-सहन किसी प्रकार से आलोचना का विषय नहीं माना जाता।

किन्तु जब यही अच्छी बात अपनी अपेक्षित सीमा के बाहर चली जाती है, तब बुराई की संज्ञा पाकर आक्षेप का विषय बन जाती है।

आज ढंग से रहने-सहने का अर्थ फैशन मान लिया गया है। अधिक से अधिक प्रदर्शन के साथ सजे बजे रहने में ही सुन्दरता, सुरूपता तथा आकर्षण का निवास समझना आज की एक विशेष अल्पज्ञता है। अंग्रेजी का ज्ञान तो दूर—भाषा का भी एक अक्षर न जानने वाले निरक्षर व्यक्ति तक कोट-पैंट, टाई और हैट-बूट में देखे जाते हैं। जाने कितने लोग बेजरूरत सैर-सपाटे और दिखावे के ही लिए मोटरें, बघ्घियां, हाथी, घोड़े आदि सवारियों को रखा करते हैं। अनेक बड़े आदमी अपनी मोटरकारों में रेडियो, ट्रांजिस्टर लगाये हुये शहर की सड़कों पर बजाते हुए चले जाते हैं। ट्रांजिस्टर रेडियो तो आज के भारतीय नौजवानों का ‘बगल-बच्चा’ बन गया है। जिसे देखो, बैग की तरह लटकाये, झोले की तरह कन्धे पर डाले, पुस्तक की तरह हाथ में लिए अथवा किसी बड़े पूजा-पात्र की तरह दोनों हाथों में संभाले घूम रहा है, जब कि उनके पास उसका कोई उपयोग नहीं है। महज एक फैशन तथा दिखावा भर है। अन्य नागरिकों को तो छोड़ दीजिए न जाने कितने रिक्शे, तांगे वाले, ट्रांजिस्टर सेटों को अपने तांगों तथा रिक्शों में लटकाये दीखते हैं। इस प्रकार के बचकाने फैशन बनाने अथवा प्रदर्शनों में लोग कौन सा सौन्दर्य और कौन-सी विशेषता समझते हैं? उन्हें अपने तथा अपनी इन क्रियाओं के बीच असंगति का भी तो बोध होता नजर नहीं आता। वे यह बात तनिक भी तो अनुभव नहीं कर पाते कि उनका यह मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन उनको उपहासास्पद बना देता है।

पहनावों तथा कपड़ों का फैशन तो आज पराकाष्ठा से भी आगे निकल गया है। कपड़ों की किस्मों की यदि आज सूची बनाई जाये तो वह एक बड़े पुराण से भी मोटा ग्रन्थ बन जायेगा और इससे भी मोटी वस्त्रों की सिलाई के प्रकारों की सूची बनेगी। आज शायद ही कोई ऐसा बदकिस्मत फूल अथवा फिल्म ऐक्टर-ऐक्ट्रैस हो। इतना ही नहीं साधु-सन्तों के रामनामी दुपट्टों की तरह अभिनेताओं के नामांकित कपड़े पहनने में लोग गौरव अनुभव करते हैं। फिल्मों के दृश्य तक आज नौजवानों के वस्त्रों पर अंकित देखे जा सकते हैं। जहां कभी अधिक से अधिक कपड़ों पर फूल-पत्तियां हंस, मयूरों अथवा पेड़ पौधों की छाप हुआ करती थी और जिनको भी भद्र लोग पसन्द नहीं करते थे, वहां आज अश्लील फिल्मों के अश्लील चित्र छपे दिखलाई देते हैं और नौजवान नागरिक उन्हें शौक से पहनते और शान समझते हैं। न जाने क्या हो गया है इस भारत को—भारत के नौजवान वर्ग को?

आज का भारतीय नौजवान यह क्यों नहीं सोच पाता कि उसका देश गरीब है, आज उसे उसकी फैशनपरस्ती की आवश्यकता नहीं है, उसे जरूरत है उसकी मेहनत, मशक्कत और परिश्रम-परिश्तिस की! उसे इस बात से आत्मग्लानि क्यों नहीं होती कि आज उसका अर्धनंगा भूखा राष्ट्र अन्य राष्ट्रों से अन्न की भीख मांग रहा है और वह इस प्रकार के फिजूलखर्च फैशन प्रदर्शन में अन्धा बना हुआ है! वह यह जानने समझने की कोशिश क्यों नहीं करता कि वह जिस देश का नागरिक है और जिसके उत्थान पतन का कुछ दायित्व उसके कन्धों पर भी है, उसकी औसत आय पांच-छः आना प्रति-दिन से अधिक नहीं है। आज उसके टूटी सड़कों और फूटे मकानों वाले देश में टेरालीन, डेकरौन और नाइलौन जैसे कपड़ों की क्या शोभा है? धूल उड़ाती गलियों और दुर्गन्धित बस्तियों के बीच उसके इन वस्त्रों की क्या संगति है?

के इन जलते राष्ट्रीय सत्यों को भारतीय नौजवान वर्ग नहीं समझ पा रहा और न वह तब तक समझ ही पायेगा जब तक प्रयत्नपूर्वक उसके मस्तिष्क में यह विचार नहीं भरे जायेंगे कि फैशनपरस्ती मानसिक न्यूनता का द्योतक है, आन्तरिक दरिद्रता का विज्ञापन है। उसका यह विचार कि बनाव-शृंगार अथवा प्रदर्शनपूर्ण, वेश-विन्यास से वह अपने व्यक्तित्व को ऊंचा कर रहा है—भ्रमपूर्ण है। बाहरी आडम्बरों से विरचित व्यक्तित्व स्वयं इसका गवाह है कि व्यक्ति व्यक्तित्वहीन है, ओछा और बालवृत्ति वाला है। मनुष्य का व्यक्तित्व आत्मा की उच्चता है जो चेहरे पर आकर्षण बन कर बोलती है वस्त्रों की तड़क-भड़क व्यक्तित्व की छटा नहीं है और न उससे किसी के हीन व्यक्तित्व में महानता का समावेश ही होता है। उसे यह भ्रान्त धारणा हृदय से निकाल देनी चाहिए कि वेशविन्यास की विलक्षणता उसे विलक्षण सिद्ध कर सकेगी। मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास, विद्या, बुद्धि तथा आत्मा की उत्कृष्टता का अनुगामी है। व्यक्तित्व विकास के लिये कपड़ों लत्तों का सहारा लेना एक घातक फिजूलखर्ची है। इस प्रकार के सार्थक विचार विश्वास से ही नवयुवक वर्ग कुछ सोचने समझने में समर्थ हो सकेगा नहीं तो आधुनिकता के अपनाने में वह प्रदर्शन की मरु-मरीचिका में ही भटकता रहेगा।

आज किसी भी देश के नागरिकों के लिए किसी भी देश के द्वार बन्द नहीं हैं। सब जगह जा सकते हैं। किसी देश की कोई भी बात किसी से छिपी नहीं है। संसार के उन्नतिशील देशों के नागरिक जब भारत के निरक्षर लोगों को सूट, पैंट पहने और टाई, चश्मा लगाये देखते होंगे तो उनकी बालबुद्धि पर हंसते हुए क्या यह न कहते होंगे कि आज के सभ्य युग में भी भारतीय कितने असभ्य हैं कि वे पहनने ओढ़ने की आवश्यकता तथा चीजों के उपयोग का भी ज्ञान नहीं रखते। जब किसी प्रगतिशील देश वाले यहां के लोगों को फटी चप्पल, सिकुड़ी पेन्ट पहनने और हाथ में ट्रांजिस्टर लटका देखते होंगे तो क्या मन ही यह उपहास से न मान जाते होंगे कि भारतीय अत्यधिक महत्वपूर्ण उपयोग की चीज को भी खिलौना समझते हैं और कोई आवश्यकता न होने पर भी उसे बचकाने मोह के साथ हाथ में लिए घूमते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि किसी चीज का अपना एक मूल्य, महत्व तथा समय होता है उसका अपना एक स्थान होता है।

भारत के नागरिकों की कारों, मोटर साइकिल और यहां तक कि रिक्शों, तांगों में गाते हुए रेडियो सेट तथा ट्रांजिस्टरों को देखकर संसार का कौन-सा देश इस बात पर विश्वास कर लेगा कि भारत एक गरीब देश है और मित्रों की सहायता का अधिकारी है? और यदि वह उसको गरीब समझ कर उसके कारणों पर सोचेगा तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि भारत की गरीबी के प्रमुख हेतुओं में से एक उसके नागरिकों की, फैशनपरस्ती और फिजूलखर्च है। यह एक राष्ट्रीय अपमान है, देश की गौरव गरिमा पर लांछन है। इस पर हम सबको और खासतौर पर भारतीय नौजवानों को गम्भीरता से विचार ही नहीं करना है बल्कि अपनी बालवृत्तियों में सुधार कर कलंक मिटाने का प्रयत्न करना है। यदि हम कपड़ों लत्तों में फैलसूफ हैं तो अपने परिवार वालों अथवा परोक्ष रूप से अपने अनेक देश बन्धुओं को नंगा रहने पर मजबूर करते हैं।

सुन्दरता, वस्त्रों अथवा वेशविन्यास की विचित्रता अथवा अपव्ययता में नहीं है वह व्यवस्था एवं करीने में है। मोटे तथा सस्ते कपड़े भी यदि ठीक सिले-धुले और पहने गये हैं तो वे मनुष्य के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देंगे। अपनी तथा अपने देश काल के अनुसार ही रहन-सहन रखना बुद्धिमानी, भद्रता तथा सज्जनता है। फैशन के नशे में सब कुछ समझने पर भी पैसा खोना सरासर नादानी है। उस पैसे को बचाकर हम सबको अपने-अपने परिवार तथा राष्ट्र की उन्नति पर खर्च कर जीवन से प्रदर्शन का कलंक धो डालने में ही कल्याण है, शोभा है।

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