भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

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यों मनुष्य भी अन्य प्राणियों की तरह एक पशु है। थोड़ी बुद्धि अधिक रहने से वह अपेक्षाकृत कुछ अधिक सुख-साधन प्राप्त कर सकता है इतना ही सामान्यतः उसे बुद्धि विशेषता का लाभ है।

पर यदि उसकी अन्तःप्रेरणा उच्च भावनाओं, आदर्शों एवं आकांक्षाओं से अनुप्राणित हुई तो वह असामान्य प्रकार का, उच्चकोटि का, सत्पुरुषों जैसा जीवन-यापन करता हुआ न केवल स्वयं सच्ची सुख शांति की अधिकारी बनता है वरन् दूसरे अनेकों को भी आनन्द और सन्तोष की परिस्थितियों तक ले पहुंचने में सहायक होता है। यदि वह अंतः प्रेरणाएं निकृष्ट कोटि की हुईं तो न केवल स्वयं रोग, शोक, अज्ञान, दारिद्र, चिन्ता, भय, द्वेष, दुर्भाव, अपकीर्ति एवं नाना प्रकार के दुःखों का भागी बनता है वरन् अपने से सम्बद्ध लोगों को भी दुर्मति एवं दुर्गति का शिकार बना देता है। जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता या निकृष्टता दिखाई देती है उसका मूल आधार उसकी अन्तःप्रेरणा ही है। इसी को संस्कृति के नाम से पुकारते हैं। जिस प्रकार कोई पौधा अपने आप उगे और बिना किसी के संरक्षण के बढ़े तो वह जंगली किस्म का कुरूप हो जाता है।

पर यदि वही पौधा किसी चतुर माली की देख-रेख में अच्छे खाद्य पानी एवं संरक्षण के साथ बढ़ाया जाय, समय-समय पर काटा-छांटा या सुधारा जाय तो बहुत ही सुन्दर एवं सुविकसित हो सकता है। मानव जीवन की स्थिति भी इसी प्रकार की है उसे उचित दिशा में उचित रीति से विकसित करने की जो वैज्ञानिक पद्धति है उसे ‘संस्कृति’ कहा जाता है। भारतीय संस्कृति—मानव संस्कृति है। उसमें मानवता के सभी सद्गुणों को भली प्रकार विकसित करने वाले सभी तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। जिस प्रकार काश्मीर में पैदा होने वाली केशर, ‘कश्मीरी केशर’ के नाम से अपनी जन्मभूमि के नाम पर प्रसिद्ध है। इस नाम के अर्थ यह नहीं हैं कि उसका उपयोग केवल काश्मीर निवासियों तक ही सीमित है।

 भारतीय संस्कृति नाम भी इसीलिए पड़ा कि वह भारत में पैदा हुई है वस्तुतः वह विश्व-संस्कृत है। मानव संस्कृति है। सारे विश्व के मानवों की अन्तःप्रेरणा को श्रेष्ठ दिशा में प्रेरित करने की क्षमता उसमें कूट-कूटकर भरी हुई है। इस संस्कृति को साम्प्रदायिकता या संकीर्णता कहना—वस्तुस्थिति से सर्वथा अपरिचित होना ही है। किसी धर्म में दीक्षित होने और उसकी संस्कृति अपना लेने में कुछ अन्तर तो है पर नाम मात्र का ही है। भारत में ईसाई संस्कृति फैल रही है। स्कूल और कालेजों के छात्र छात्राएं क्या पढ़ते हैं क्या नहीं, यह दूसरी बात है, पर वे वहां के वातावरण में अंग्रेजी भाषा सीखने के अतिरिक्त अंग्रेजी संस्कृति भी सीखते हैं। अध्यापक और अध्यापिकायें अपने व्यावहारिक जीवन में, अपने आचार विचार में, भाषा भेष भाव से, बच्चों पर यही संस्कार डालते हैं कि उन्हें न केवल अंग्रेजी पढ़नी चाहिए वरन् अंग्रेजी मूल संस्कृति का भी अनुकरण करना चाहिए।

गीली मिट्टी के समान हमारे कोमल बच्चे उस सांचे में ढलते हैं और धीरे-धीरे वे आधे ईसाई बन कर वहां से, निकलते हैं। सिरों पर ढूंढ़ने पर भी किसी के चोटी न मिलेगी। जनेऊ तलाश कराये जायें तो किसी बिरले के कन्धे पर ही उसके दर्शन होंगे। खड़े होकर पेशाब करने से लेकर चाय, डबल रोटी और अण्डे के आहार तक सभ्यता के चिह्न माने जाते हैं। इन सभ्य लोगों के होटलों में होने वाले प्रीतिभोजों में मांस मदिरा आवश्यक हैं अपनी मातृभाषा को हेय समझकर उसमें बातचीत करने को बेइज्जती समझते हैं और अंग्रेजी में पत्र लिखना बड़प्पन एवं गौरव का चिह्न मानते हैं। भारत की गर्म जलवायु की दृष्टि से ठण्डे देश के उपयुक्त अंग्रेजी पोशाक सर्वथा अनुपयुक्त है। फिर भी लोग इसलिए उसे पहनते हैं कि अंग्रेजियत कोई बहुत बड़ी बात है। नेक-टाई ईसाई धर्म का एक धर्म चिह्न है, पर हम खुशी-खुशी उसे बांधते हैं। जरा से वजन का चार पैसे मूल्य का जनेऊ हमें बेकार लगता है और आधी छटांक भारी डेढ़ रुपया मूल्य की नेक टाई जिससे गला बांध देने पर आराम से हवा आने का मार्ग भी रुक जाय हमें यह अच्छी लगती है।

यह सब उस संस्कृति के आगे आत्म समर्पण कर देने की ही महिमा है। बात यहीं तक समाप्त नहीं होती। हमारे दाम्पत्य जीवन के आदर्श भी अब वही होते जाते हैं जो पाश्चात्य देशों के हैं। पतिव्रत और पत्नीव्रत पश्चिम में भी विदा करने की तैयारी हो चुकी है। सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा उस संस्कृति में बेकार मानी जाती है, हम भी सम्मिलित परिवारों को समाप्त कर रहे हैं। विवाह होते ही पति पत्नी सारे कुटुम्ब से अलग रहने की बात सोचते हैं और वही करते हैं। पश्चिम में आहार की स्वच्छता रहती है पर पवित्रता को व्यर्थ माना जाता है । हम भी जिस तिस के हाथ का बना भक्ष अभक्ष का विचार छोड़कर चाहे जो खाने लगे हैं। पश्चिम वासियों का दृष्टिकोण खाओ पीओ मजा करो है। हम भी ऊंचे आदर्शवाद का कष्ट साध्य जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा को त्याग कर विलासी जीवन की ओर अग्रसर हो रहे हैं और जिस प्रकार भी नीति अनीति से सम्भव हो उसके साधन जुटाने में कटिबद्ध हो रहे हैं। ईसाइयत हमें प्यारी लगती है। हिन्दुत्व, बेवकूफी का चिन्ह प्रतीत होता है। शेक्सपियर और मिल्टन हमें विद्वान दीखते हैं, कालिदास और भवभूति का नाम भी याद नहीं होता। क्या हमारे लिए यह उचित होगा कि अपनी महान जाति को इस सांस्कृतिक पराधीनता के चंगुल में फंसते हुए देखते रहें और चुपचाप आंसू बहाते रहें। नहीं, इतने से काम न चलेगा। हमें अपने राष्ट्रीय और जातीय गौरव की रक्षा के लिए ही नहीं—मानवता, धार्मिकता और अध्यात्मिकता के आदर्शों को जीवित रखने के लिए उस भारतीय संस्कृति को जीवित रखना होगा जिसकी गोद में पलकर इस के निवासी देवता की पदवी प्राप्त करते हैं।

 जो संस्कृति घर-घर में नर रत्नों को, महापुरुषों को जन्म देने की अपनी प्रामाणिकता लाखों वर्षों से प्रमाणित करती आ रही है, उसे इस प्रकार आसुरी संस्कृति से पद दलित और परांगमुख होते देखना हमारे लिए एक बड़ी हल लज्जास्पद बात होगी। हमें अपने जीवनयापन के सामान्य कार्यक्रम से ईसाइयत को ढूंढ़कर निकालना होगा और उसके स्थान पर भारतीयता की प्रतिष्ठापना करनी होगी। अंग्रेज चले गये अब अंग्रेजियत की गुलामी क्यों की जाय? हैट पैन्ट में क्या खूबसूरती है जो हमारे धोती कुर्ते में नहीं है। उसे हम स्वयं पहनें और बच्चों को पहनावें। अंग्रेजी भाषा को केवल एक विदेशी उपयोगी भाषा की दृष्टि से पढ़ें तो सही पर उसे अपनी मातृ भाषा से अधिक मान न दें। अपने दैनिक जीवन में, पत्र व्यवहार में, स्वाध्याय और अध्ययन में हिन्दी के माध्यम से हम पढ़ते और बोलते हैं उसी के भाव एवं आदर्श हमारे मस्तिष्क में स्थान जमाते हैं। भारतीय साहित्य में ही वह क्षमता है जो भारतीय आदर्शों की ओर हमें प्रेरित करे।

रामायण और गीता, वेद और धर्मशास्त्रों का, अपने पूर्वजों के पुनीत चरित्रों और कृतियों का थोड़ा बहुत अध्ययन हमारे नैतिक जीवन में आवश्यक रूप से स्थान प्राप्त करे। चोटी हममें से प्रत्येक के सिर पर होनी चाहिए। बिना जनेऊ कोई कन्धा खाली न हो। हिन्दू संस्कृति के दो प्रधान प्रतीक शिखा और सूत्र—चोटी और जनेऊ आज बुरी तरह उपेक्षित हो रहे हैं। जन साधारण की सांस्कृतिक निष्ठा को कायम रखने के लिए इन दोनों प्रतीकों की आवश्यकता एवं अनिवार्यता समझी जाय। पतिव्रत और पत्नीव्रत के आदर्शों पर जोर दिया जाय। लड़कियां इस प्रकार का वेश विन्यास न बनावें जो दूसरों में अवांछनीय उत्तेजना उत्पन्न करे। फैशनपरस्ती और विलासिता, हमारे लिए घातक सिद्ध होगी। पर्दा बुरी बला है। हर बच्चे के षोडश संस्कार कराये जायें ताकि बालक पर तथा घर वालों पर भारतीयता के आदर्शों की छाप पड़े, संस्कार कराने वाले ऐसे पुरोहित पैदा हों जो न केवल धार्मिक कर्मकांड विधिवत् करें वरन् भारतीय आदर्शों की शिक्षा और प्रेरणा उन धर्म अवसरों पर लोगों को प्रदान करें।

 हमारा प्रत्येक त्यौहार एक सामूहिक सामाजिक संस्कार है, उन्हें इस प्रकार मनाया जाय कि जन साधारण अपने वर्तमान जीवन को प्राचीन आदर्शों के अनुरूप ढालने की प्रेरणा प्राप्त करे।

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