भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

गौ रक्षण के साथ गौ संवर्धन भी

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गांधी जी ने सत्य ही कहा था—‘‘गौ-रक्षा राष्ट्ररक्षा है और गौओं का वध मेरा वध है।’’ वे गौरक्षा को स्वराज्य से भी अधिक आवश्यक मानते थे। देश के जीवन-मरण की इतनी महत्वपूर्ण समस्या स्वतन्त्रता प्राप्त होने के बीस वर्ष बाद भी उपेक्षा के गर्त में पड़ी रहे—इसे एक राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही मानना चाहिये।

ऐसे प्रश्न जिन पर राष्ट्र का जीवन-मरण निर्भर है, देर तक उपेक्षित नहीं रह सकते। गौरक्षा की उपयोगिता और आवश्यकता भारतीय जन समाज के 90 प्रतिशत व्यक्ति अनुभव करते हैं। जिस तथ्य के पक्ष समर्थन में इतना प्रबल बहुमत हो, वह देर तक उपेक्षित रह भी नहीं सकता था। भारतीय जनता राजनैतिक स्वाधीनता चाहती थी, उस मांग को शासक देर तक दबा न सके, प्रबल जनमत की विजय हुई और देश स्वतन्त्र हो गया। गौ रक्षा का प्रश्न भी पके फोड़े की तरह अब उस स्थिति को जा पहुंचा है जब उसका समाधान हुए बिना और कोई चारा नहीं।

शुद्ध घी के अभाव में गिरता हुआ स्वास्थ्य, अच्छे बैलों के अभाव में घटता अन्नोत्पादन, गोबर की उचित खाद के बिना धरती का गिरता उर्वरत्व आदि ऐसी अनेक परिस्थितियां हैं, जिनने देश के प्रबुद्ध वर्ग को यह सोचने को विवश कर दिया है कि अब गौरक्षा के प्रश्न को और अधिक नहीं टाला जाना चाहिये भारत की धार्मिक और आध्यात्मिक परम्परा भी अपना स्थान एवं महत्व रखती है; गौर की महिमा उस दृष्टि से भी कम नहीं है। इन सब तथ्यों का एक संमिश्रित स्वरूप आज गौरक्षा आन्दोलन के रूप में सामने आया है। इसे ‘साम्प्रदायिक मांग’ या ‘चुनाव स्टंट’ कह कर झुठलाया नहीं जा सकता। गौरक्षा का प्रश्न और सभी दृष्टियों से राष्ट्र की महती आवश्यकताओं का एक महत्वपूर्ण अंग न रहा होता तो भारतीय संविधान में उसका उल्लेख प्रमुख रूप से न हुआ होता। क्या ही अच्छा होता कि सरकार ने समय रहते इस तथ्य को समझा होता और इस राष्ट्रीय आवश्यकता को हल किया होता।

अब गौ रक्षा आन्दोलन ने एक समय की मांग का रूप धारण कर लिया है। आन्दोलनों के प्रवाह घटते-बढ़ते रहते हैं, पर लोकमत एक तथ्य है। प्रजातन्त्र में उसकी सदा के लिये उपेक्षा नहीं हो सकती। आज नहीं तो कल सरकार को वस्तुस्थिति समझनी ही होगी और गौ वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये प्रतिबन्ध लगाने ही होंगे। गौ-हत्या को समर्थन करने वाली कोई सरकार इस देश में देर तक ठहर भी नहीं सकती। इसलिए भी राजनेताओं को भले ही अनमने मन से स्वीकार करना पड़े पर वस्तुस्थिति के आगे झुकना ही पड़ेगा। गौवध पर प्रतिबन्ध लगाने की लोक-मांग आज नहीं तो कल पूरी होकर रहेगी। प्रश्न सरकार की दूरदर्शिता अदूरदर्शिता का है कि वह गौरक्षा जैसी बुद्धिसंगत मांग को स्वीकार करने में झंझट उत्पन्न करके लोकमत को क्षुब्ध करना आवश्यक समझती है या नहीं? हमें आशा करनी चाहिए कि गौर रक्षा पर कानूनी प्रतिबन्ध लगेगा और सरकार की उपेक्षा से जितना गौवंश नष्ट होता है वह बच जायेगा।

पर यह तो समस्या का एक पहलू हुआ। गौ-हत्या पर कानूनी प्रतिबन्ध लग जाने मात्र से गौरक्षा की आवश्यकता पूर्ण न हो सकेगी। हमें उन कारणों की तह तक भी जाना होगा जिनके कारण गौ-हत्या का कार्य प्रशस्त होता है। किसान जिसने जीवन भर बैल की कमाई खाई, ग्वाला जिसने जीवन भर गाय का दूध दुहा, उनके बूढ़े होने पर कसाई के हाथ बेच देता है। इस कृतघ्नता का पाप वह स्वयं अनुभव करता है। भर्त्सना की जाय तो सिर नीचे झुका लेता है और बड़ी वेदना के साथ कहता है कि यदि इन वृद्ध गाय-बैलों की जीवन रक्षा हो सकती हो तो मैं बिना मूल्य देने को तैयार हूं। पर यह मुझ से नहीं हो सकता कि इन्हें मैं आमदनी न होने पर भी बांध कर खिलाता रहूं। अन्न जैसी चारे की महंगाई भी है। एक जानवर डेढ़-दो रुपए का चारा आसानी से खा जाता है। गोचर भूमियां रही नहीं। घर से इतना पैसा खर्च कर सकना संभव नहीं। जितने में तीन-चार बच्चों का पेट पलता है उतना ही एक बूढ़े बैल को चाहिए। यह साधन कैसे जुटे?

कसाई के हाथों बूढ़े गाय-बैल बेचने की आवश्यकता नदी की तरह उफनती नहीं वरन् वह अपना रास्ता खार-खंदकों से होकर आप बनाती चलती है। वैसे ही पशु वध और मांस-विक्रय के अनेक मार्ग और सरंजाम गुप्त एवं प्रकट रूप से बन कर खड़े हो जाते हैं। जिन प्रान्तों में गौवध पर प्रतिबन्ध है वहां भी लुक छिप कर खूब गौ-हत्या होती है। कानून की खामियां दूर करने की तथा अपराधियों को दण्ड दिलाने की उस संदर्भ में बहुत आवश्यकता है। साथ ही यह भी सोचना होगा कि आखिर ऐसा होता क्यों है? हत्यारे काटने के लिए उन पशुओं को ले कहां से आते हैं? बात घूम-फिर कर फिर वहीं आ जाती है कि पशु वाले उन्हें अनुपयोगी रहने पर अपने आश्रय में नहीं रख पाते और वे अन्ततः छुरों के नीचे ही जा पहुंचते हैं। इस समस्या का हल करना उतना ही आवश्यक है जितना सरकार द्वारा गौवध पर प्रतिबन्ध लगाना। दोनों पहलू संभालने से ही गौ-संरक्षण और संवर्धन की समस्या हल होगी।

गांधी जी ने स्वराज्य आंदोलन आरम्भ किया था तब अंग्रेजों को हटाने पर उनने जितना जोर दिया था उतना ही जोर इस बात पर दिया था कि वे कारण मिटाये जायं जिनके कारण सात समुद्र पार करके अंग्रेजों को भारत आने और यहां अपना शासन जमाने का अवसर मिला। भारतीय जनता में प्रचलित अनेक दुष्प्रवृत्तियां इसका कारण थीं। उनने उनके विरुद्ध भी जिहाद बोली और खादी, हरिजन उत्थान, ग्रामोद्योग, सफाई, मद्य निषेध आदि अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया। वे जानते थे कि यदि देश आन्तरिक दृष्टि से समर्थ न बन सका तो अंग्रेजों के चले जाने पर भी स्वराज्य का लाभ न मिल सकेगा।

ठीक इसी रीति-नीति के साथ हमें गौरक्षा की समस्या पर विचार करना होगा। गौ रक्षा पर प्रतिबन्ध जितना आवश्यक है, उतना ही—वरन् उससे भी अधिक आवश्यक यह है कि गौवंश की उपयोगिता को और अधिक बढ़ाया जाय, उसे आर्थिक दृष्टि से भी अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाय। विदेशों में जहां गोवध पर कानूनी प्रतिबन्ध नहीं है वहां कोई गाय काटने की कल्पना भी नहीं करता। किसी कसाई की हिम्मत नहीं होती कि वह काटने के लिए गाय खरीदने की बात सोचे। क्योंकि वहां आर्थिक दृष्टि से गौयें इतनी उपयोगी हैं कि उनको मांस के लिए खरीदा ही नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति हमें भी अपने देश में पैदा करनी होगी। अन्यथा कानूनी प्रतिबन्ध भी उसी तरह निरर्थक हो जायेगा जिस प्रकार सभी अपराधों के विरुद्ध कानून रहते हुए भी वे लुक-छिप कर व्यापक रूप से फलते-फूलते रहते हैं।

गौरक्षा आन्दोलन का एक-एक महत्वपूर्ण पहलू रचनात्मक भी होना चाहिए। दस-दस लंगड़ी-लूली गायें इकट्ठी करके उनके नाम पर चन्दा उगाहने वाली गौशालायें खोल देना इसके लिए पर्याप्त न होगा। वरन् इस आन्दोलन को उतना ही व्यापक रूप देना होगा जैसा कि इन दिनों सूखाग्रस्त क्षेत्र में कच्चे कुए खोदने आदि के तात्कालिक कार्यक्रम सोचे और चलाए जाते हैं। गौ की उपयोगिता बढ़ाना ही गौरक्षा की सबसे बड़ी गारंटी हो सकती है।

इस संदर्भ में एक बड़ा कार्य यह है कि जनसाधारण को गौ-दुग्ध की उपयोगिता और महत्ता समझाई जाय। आज लोग गाय के दूध की तुलना में भैंस का दूध पसन्द करते हैं। गाय के दूध में चिकनाई कम होती है, स्वाद कम होता है, इससे मरीजों को छोड़ कर न तो पीने वाले उसे खरीदते हैं और न दूध विक्रेता। ग्वाले गाय के, बकरी के दूध को या तो सस्ता बेचते हैं या फिर भैंस के दूध में मिला कर किसी प्रकार उस बला को सिर से उतारते हैं। गाय उन्हें भैंस की तुलना में दूध की दृष्टि से कम उपयोगी सिद्ध होती है। फलस्वरूप वे उसे पालने का झंझट भी छोड़ देते हैं। किसान को भी गौ-पालन की तुलना में भैंस पालन लाभदायक दीखता है। अतएव उसके खूंटे पर गाय नहीं भैंस दिखाई देती है।

इस स्थिति को बदलना होगा। अच्छी दुधारू गायें खरीदने और पालने की व्यवस्था बनाने से गौ दूध की मात्रा तो बढ़ सकती है फिर भी यदि उसका उचित मूल्य नहीं मिला, उचित खपत न हुई तो समस्या फिर भी बनी ही रहेगी। अतएव जन-मानस में बैठी हुई इस मान्यता को बदलने के लिये आन्दोलन किया जाना चाहिये कि ‘गाय के दूध से भैंस का अच्छा होता है।’ सच्चाई यह है कि शरीर पोषण और मानसिक विकास के लिये जिन जीवन तत्वों की नितान्त आवश्यकता है वे गाय के दूध में है, भैंस के में नहीं। चिकनाई के लिये ही दूध नहीं पिया जाता, उसकी वास्तविकता उपयोगिता तो उन तत्वों में है जो चिकनाई के अतिरिक्त अनेक क्षारों और विटामिनों के रूप में पाये जाते हैं। लोग उनकी उपयोगिता समझते ही नहीं। स्वाद और चिकनाई की कसौटी पर ही दूध की परख करते हैं। चिकनाई तो तेलों से भी मिल सकती है। इसके लिये जो दूध खरीदते हैं वे भ्रम में हैं। दूध में जो पोषण तत्व हैं, उनका चिकनाई से कोई सम्बन्ध नहीं। यदि शारीरिक और मानसिक लाभ लेना है तो उसकी वास्तविकता गौ दुग्ध से ही पूरी हो सकती है और यदि वह अपनी इस विशेषता के कारण भैंस के दूध से महंगा मिलता है तो भी उसे खरीदा जाना चाहिए। यह मान्यता जिस दिन जन मानस में मजबूती से जड़ जमा लेगी, उस दिन गौ पालन एक उपयोगी धन्धा बन जायगा और लोग उस ओर दिलचस्पी लेंगे और दुधारू गायों का बाहुल्य कुछ ही दिनों में दीखने लगेगा।

गौ पालन का कार्य सुव्यवस्थापूर्वक करने के लिए इसी तरह के कुटीर उद्योग तथा संगठित बड़े उद्योग चलाये जायें जिस तरह तेल आदि के उत्पादन की छोटी-बड़ी योजनायें चलती हैं। गौ दुग्ध और गौ घृत बेचने की ऐसे विश्वस्त दुकानें खुलें जहां विश्वास की और प्रामाणिक वस्तु मिल सकें। जिस तरह चाय वाले और बीड़ी वाले अपने उत्पादन की खपत बढ़ाने के लिए विविध प्रकार से विज्ञापन करते हैं, गौर रस की महत्ता जन साधारण को समझाने के लिए वे गौरस उत्पादन केन्द्र प्रयत्न करें। सार्वजनिक संस्थायें और गौ रक्षा समितियां भी इस कार्य को हाथ में लें और लोक मानस में गौ दुग्ध की उपयोगिता की मान्यता-स्तर तक हृदयंगम कराने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें।

जिस प्रकार स्वराज्य आन्दोलन के दिनों में सभी कांग्रेस नेता चर्खा कातने और खादी पहनने का कार्य इसलिए करते थे कि स्वदेशी की प्रवृत्ति जन मानस में उतरे और उनके अनुयायी अनुकरण करें उसी प्रकार धार्मिक एवं सामाजिक नेताओं तथा गौ रक्षा प्रेमियों को दुग्ध ही सेवन करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। इसका प्रभाव उनके अनुयायियों पर पड़ेगा और गौ दुग्ध की खपत के साथ-साथ गौ पालन का मार्ग भी प्रशस्त होगा।

गौ हत्या के कारणों में एक बड़ा कारण चमड़े का व्यापक उपयोग भी है। चमड़े की खपत दिन-दिन बढ़ती जाती है। फलस्वरूप मांस और चमड़ा दोनों की कीमत मिला कर कसाई काफी नफे में रहते हैं। चमड़े की खपत घट जाय तो वह स्वभावतः सस्ता होगा और तब हत्या व्यवसाय आज का जितना लाभदायक न रहेगा ऐसी दशा में गौवध स्वतः काफी घट जायगा।

वृद्ध गोवंश की रक्षा के लिए गोचर भूमियों की व्यवस्था की जानी चाहिए। उनके गोबर का भी यदि ठीक तरह उपयोग होने लगे तो उस कीमती खाद से उतना मूल्य प्राप्त किया जा सकता है जिससे उनकी जीवन रक्षा का खर्च चलाया जा सके। गोचर के लिए हर गांव में बड़ी भूमि छोड़ी जा सके तो उस गोबर का जो खाद मिलेगा उससे वहां की अन्नोत्पादन क्षमता बढ़ेगी, घटेगी नहीं। यह वृद्ध पशु यदि थोड़ा बहुत शारीरिक श्रम कर सकते हों तो भार ढोने में जैसे गधे थोड़ा-थोड़ा काम कर लेते हैं, वैसा उनसे भी लिया जा सकता है। उसी प्रकार बूढ़े और अनुपयोगी गोवंश को भी एक सीमा तक उपयोगी बनाया जा सकता है। मरने पर चमड़ा, हड्डी, सींग तथा मांस से खाद जैसे जो लाभ मिलते हैं उनको भी उनके जीवन काल में पेशगी खर्च किया जा सकता है। प्रयत्न करने पर वृद्ध पशु भी अपने जीवन के कुछ दिन बिना छुरी के नीचे गये शांतिपूर्वक व्यतीत कर सकने की स्थिति में रह सकते हैं।

गौ रक्षा के लिए रचनात्मक कार्यों के लिये हमें प्रयत्नशील होना चाहिए। गोवध बन्द कराने में प्रयत्नों का यह दूसरा पहलू भी आंख से ओझल नहीं किया जाना चाहिए। गौरक्षण के साथ-साथ गौ संवर्धन भी आवश्यक है।

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