भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

भिक्षावृत्ति भारतीय संस्कृति पर कलंक

<<   |   <   | |   >   |   >>

आध्यात्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य मानवता का उच्चतम स्तर प्राप्त करना ही है। मानवता की चरमावधि पर पहुंचकर मनुष्य देवत्व की परिधि में प्रवेश करता है और वहां से शनैः-शनैः उठता हुआ ईश्वरीय परिधि की ओर बढ़ता जाता है। इस प्रकार ईश्वर प्राप्ति की सोपान-परम्परा में मनुष्य का विकास आदि सोपान है। आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त करने के लिये जिज्ञासु व्यक्ति को सर्वप्रथम अपनी मनुष्यता का ही विकास करने का प्रयत्न करना चाहिये। जो साधन मनुष्यता का विकास न कर सीधे-सीधे ईश्वर-प्राप्ति की कामना से साधना-रत रहते हैं, उनको अपने उद्देश्य में सफलता मिल सकना असम्भव ही समझना चाहिये। मनुष्यता के विकास का क्रम शरीर से चलता हुआ आत्मा तक पहुंचता है और तब आत्म-विकास से आध्यात्मिक विकास की ओर मार्ग जाता है। शारीरिक विकास का तात्पर्य उसके लम्बे-चौड़े मोटे-ताजे होने से नहीं है। इसका मात्र मन्तव्य उसके पूर्ण आरोग्य से है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आत्मिक विकास यों ही आप-से-आप नहीं हो जाता, उसके लिये कुछ निश्चित नियम एवं कर्तव्य हैं, जिनका सावधानी पूर्वक पालन करना होता है। इन नियमों एवं कर्तव्यों के क्रम को धर्म कहा जाता है।
 
इस प्रकार धर्म का आचरण करना ही वह उपाय है, जिसके आधार पर मनुष्य आत्मविकास की ओर बढ़ता है। जप-तप पूजा-पाठ, दान, यज्ञ आदि धार्मिक कर्तव्यों में अन्न-संयम का विशेष महत्त्व है। मनुष्य प्राणधारी है और अन्न अर्थात् भोजन को आधार कहा गया है। मनुष्य भोजन न करेगा, तो किसी प्रकार जीवित न रह सकेगा। जीवन के रहते ही कोई साधना की जा सकती है, उसकी उपस्थिति में ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास का प्रयत्न किया जा सकता है। यदि जीवन नहीं, तो कुछ भी नहीं। जीवन का अर्थ केवल श्वांसों का आवागमन मात्र ही नहीं है। जीवन का अर्थ है, प्राणों के साथ मनुष्य में स्वाभिमान, स्वास्थ्य, निर्भयता आत्म-सम्मान, उत्साह, अखेद एवं अग्लानि आदि गुणों का होना। यदि मनुष्य की श्वांस चलती है किन्तु उसमें इस प्रकार के गुण नहीं हैं, तो वह सच्चे अर्थों में जीवित नहीं माना जायेगा। आत्म-रंजनपूर्वक स्वस्थ जीवन जीना ही जीना है, वैसे तो गति रूपी जीवन कीट-पतंगों में भी रहता है। मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के बीच जो बुद्धि, विवेक आदि भिन्नता बोधक विशेषतायें हैं, उनमें स्वाभिमान का एक विशेष गुण है। स्वाभिमान मनुष्यता का प्रधान लक्षण है, जो अन्य जीवों में नहीं पाया जाता। तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा, अवहेलना आदि का आत्महन्ता मनुष्येतर प्राणियों के निकट कोई मूल्य नहीं होता। आत्म-गौरव, आत्म–सम्मान एवं आत्माभिमान आदि का उदात्त भाव आत्मा की प्रधान वांछा है, उसकी नैसर्गिक भूख है। इन अनुरंजनाओं के अभाव में आत्मा निर्बल एवं निस्तेज हो जाती है।

यों तो आत्मा पशुओं में भी होती है किन्तु विवेकपूर्ण स्वाभिमान की अनुपस्थिति के कारण वह प्रबोध शून्यता की स्थिति में पड़ी सोती रहती है। आत्मा महान् है, उससे अधिक महान् इस संसार में और कुछ भी नहीं है। उसकी श्रेष्ठता की कोई सीमा नहीं। अस्तु, उसके लिये तदनुरूप श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट परिस्थितियां ही अनिवार्य एवं वांछनीय हैं। तिरस्कार, तुच्छता अपमान अथवा अवहेलना के वातावरण में उसका विकसित होना तो दूर सजीव रह सकना भी कठिन है। मनुष्य-जीवन पर भोजन का प्रभाव बहुत गहराई तक पड़ता है। जितना सात्विक, शुद्ध एवं उपयुक्त भोजन किया जायेगा, मनुष्य का तन-मन भी उतना ही शुद्ध एवं सात्विक बनेगा। निम्न कोटि एवं निम्न भावनाओं से प्राप्त अन्न मनुष्य के शरीर को अस्वस्थ एवं मलीन बना देता है। ‘‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन’’ वाली कहावत से सभी परिचित हैं। अन्न-उत्पादन से ग्रहण तक उसकी शुद्धता एवं स्वच्छता पर ध्यान रखने का निर्देश शास्त्रों में किया गया है, जिससे उससे प्राप्त होने वाले तत्व एवं सूक्ष्म संस्कार विकृत होकर मनुष्य के तन-मन एवं आत्मा पर कुप्रभाव न डालने पावें, उसकी प्रवृत्तियां पूर्ण पवित्र एवं उपयुक्त बनी रहें, जिससे कि वह मनुष्यता के उन्नत सोपानों पर क्रम से बढ़ता चला जाय। परावलम्बन, पराधीनता अथवा अनाचरण से प्राप्त किया हुआ अन्न तो दूषित होता ही है, किन्तु भिक्षा से प्राप्त किया हुआ अन्न अधिक दूषित होता है वह चाहे पैसा मांगकर खरीदा गया हो अथवा भोजन के रूप में पाया गया हो। भिक्षा का अन्न मनुष्य के मन, बुद्धि तथा आत्मा के लिये विष ही है। भिखारी जब किसी से कुछ मांगता है, तब उसकी आत्मा में एक दीनता, हीनता एवं ग्लानि होती है। वह स्वयं जानता है कि अपना स्वाभिमान खोकर मांग रहा है, भिखारी यदि एक बार भूखा होने पर मांगता है, तो अनेक झूठ बोलकर मांग लाता है। वह एक प्रकार की ठगी है, जिसके लिये न तो उसका मन प्रसन्न होता है और न बुद्धि। प्रत्युत उसकी आत्मा इस निकृष्ट कार्य के लिये धिक्कार-भाव ही रखती है। ऐसे धिक्कारपूर्ण अन्न से स्वस्थ तत्वों का मिल सकना सम्भव नहीं।

साथ ही अनेक बार तो देने वाला भिखारी के हठ के कारण से खीजकर ही उसे कुछ डाल देता है। देने वाले एवं लेने वाले दोनों की असद्भावनाओं के प्रभाव से अन्न के सूक्ष्म संस्कार दूषित हो जाते हैं, जो झोली पर दयनीयता के रूप में प्रतिफलित होते हैं। यही कारण है कि ग्लानिपूर्ण अन्न खाने से भिखारी दीन-हीन और मलीन दीखते रहते हैं। उनका शरीर रोगों तथा मुख निस्तेज ही बना रहता है। भिक्षा-भोजन करने वाला, चाहे वह कितना ही पौष्टिक भोजन क्यों न पाये, किसी प्रकार से स्वस्थ नहीं रह सकता। भारतीय धर्म में दान देने और लेने दोनों का विधान है। दान का पुण्य तो यज्ञादिक धर्म-कर्मों के समकक्ष ही बतलाया गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है— ‘यज्ञ दान तपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषणाम् ।।’ अर्थात् यज्ञ, दान, तप-रूप जो कर्म है, वह त्यागने योग्य नहीं है। यह कर्म निश्चित रूप से बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं। इतना ही नहीं, दान को मानवता का लक्षण बतलाया गया है और कहा गया है कि यज्ञ के रूप में अन्य व्यक्तियों तथा समाज का दान द्वारा उपकार करने के उपरान्त शेषांश को अपने पर व्यय करने, उतने से ही निर्वाह करने वाला पुण्यपथ-गामी होता है। जो अपनी कमाई का एक भाग दान के रूप में नहीं देता और सब का उपयोग स्वयं ही करता है वह चोर के समान है। गीता के अतिरिक्त अन्य धर्म-शास्त्रों में दान की महिमा का बखान किया गया है।

मनु भगवान् का कथन है—

                                                   ‘तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञान मुच्यते ।
                                                    द्वापरे यज्ञ मेवादुयनिमेक कलौ युगे ।।’

अर्थात्, सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में दान ही धर्म के विशेष लक्षण हैं।

इस प्रकार सभी धर्म-ग्रन्थों में दान की भूरि-भूरि महिमा गाई गई है। दान करने से जहां मनुष्यों में उदारता की अभिवृद्धि होती है, वहां उसके द्वारा व्यक्तियों एवं समाज का भी उपकार होता है। किन्तु जहां दान की महिमा का वर्ण पाया जाता है, वहां इस बात का भी निर्देश है कि दान ऐसे व्यक्ति को ही देना चाहिए, जो उसका वास्तविक पात्र हो। अपात्र को दिया दान निष्फल चला जाता है और कुपात्र को दिया दान तो पाप का ही आवाहक होता है। दान द्वारा पुण्य-लाभ के लिये दानी को पात्रापात्र का विचार कर लेना बहुत आवश्यक है।

दान पाने और स्वीकार करने के अधिकारी केवल दो प्रकार के ही व्यक्ति होते हैं। एक तो वे जो सर्वथा अपाहिज, असमर्थ, अन्धे, कोढ़ी तथा अशक्त हों। जिनका शरीर अथवा परिस्थिति कमा सकने के सर्वथा अयोग्य हो। आकस्मिक आपत्ति में पड़कर अपना सर्वस्व गंवा देने वाले भी परिस्थिति तक सहायता के रूप में किसी हद तक दान पाने और लेने के अधिकारी हैं। दूसरे प्रकार के, दान पाने और लेने के अधिकारी वहां व्यक्ति माने जा सकते हैं, जिनके जीवन का अणु-क्षण सार्वजनिक सेवा-कार्यों में लगा रहता है और जो दान में पाये हुए धन अथवा अन्य वस्तुओं का उपयोग अपने लिये उतना ही करते हैं, जिससे सेवा करने के लिये उनका शरीर बना रहे और शेष सारी दान पाई वस्तुएं अथवा धन को सार्वजनिक सेवा में ही लगा देते हैं।

प्राचीन काल में ऐसे ही उज्ज्वल व्यक्तित्व एवं आदर्श चरित्र वाले सुधारक, सन्त, साधु तथा ब्राह्मण ही दान पाने और लेने के अधिकारी माने जाते थे और उन्हीं को दान स्वीकार करने के लिये कहा जाता था। समाजोत्थान के लिये अपना सारा समय देने वाले लोगों की सहायतार्थ, सहयोगार्थ एवं साधनार्थ दी जाने वाली दान की परम्परा आज भी चली आती है, किन्तु इस पर से विवेक का अंकुश हटा लेने से यह दान की पुण्य परम्परा तुच्छ भिक्षावृत्ति में विकृत हो गई है, जो व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक, किसी प्रकार भी कल्याणकारी नहीं है। आज इसमें सुधार किये जाने की बहुत बड़ी आवश्यकता आ पड़ी है। आज देश में भिखारियों की संख्या साठ-पैंसठ लाख के लगभग अनुमान की जाती है, जिसमें से अधिकतर ऐसे लोग ही हैं जो हट्टे-कट्टे तथा सब प्रकार से काम करने योग्य हैं, किन्तु उन लोगों ने आत्म-सम्मान, स्वाभिमान तथा समाज व्यवस्था को तिलांजलि देकर भिक्षा को व्यवसाय बना लिया है। वे भिक्षा का तिरस्कृत अन्न स्वयं खाने और अपने परिवार को खिलाने में जरा भी संकोच नहीं करते। वे इस बात से न तो कोई सरोकार रखते हैं और न महत्व ही समझते हैं कि सदोष अथवा निर्दोष अन्न का मानव आत्मा पर एक स्थायी प्रभाव पड़ता है, जो अन्न के अनुसार दूषित अथवा पवित्र होता है।

भिक्षा-व्यवसाय से पाई जीविका पर जीने वाले निश्चय ही आत्महन्ता होते हैं। उनका तथा उनकी आत्मा का पूर्ण पतन हो जाता है जिससे वे इस लोक में तो नरक जैसा निकृष्ट जीवन जीते ही हैं और अन्त में नरकगामी होते हैं। आत्म-गौरव को सबसे अधिक ठेस पहुंचाने और आत्मा को तिरस्कृत करने वाली यदि कोई वृत्ति है तो वह है, भिक्षावृत्ति। भिखारी को तृण के समान तुच्छ माना जाता है। न तो कोई कभी उसका सम्मान करता है और न उसके मानव होने का मूल्यांकन करता है। सभी उसे ओछा, दीन-हीन, क्षुद्र तथा बोझ के समान ही मानता है। कोई भी व्यक्ति किसी भिखारी को अच्छी दृष्टि से नहीं देखता। वह जहां जाता है घृणा एवं तिरस्कार का ही लक्ष्य बनता है। इस भिक्षा-वृत्ति का कुप्रभाव न केवल भिखारी के आत्म-सम्मान पर पड़ता है बल्कि इससे राष्ट्रीय गौरव को भी हानि पहुंचती है। एक तो भिखारियों की वृहत संख्या के कारण हर गांव, शहर, गली-कूंचों तथा आम सड़कों पर भिक्षुक दृष्टिगोचर होते हैं, जिससे ऐसा लगता है मानो भारत सामान्य सज्जन अथवा परिश्रमी व्यक्तियों का देश न होकर, भिखारियों का देश हो। विदेशी पर्यटक जब यहां लाखों की तादाद में—अपाहिज-शरीर नहीं तरुण-तन लोगों को भीख मांगते देखते हैं, तो उनका विचार इस महान राष्ट्र के प्रति बड़े ही तुच्छ एवं निकृष्ट ही बनते हैं और वे अपने-अपने देशों में संस्मरण के आधार पर भारत का बड़ा ही दीन-हीन चित्र अंकित करते हैं, जिससे संसार में इस देश का बड़ा अपयश होता है और उसका गौरव गिरता है।

भिक्षा को व्यवसाय बनाकर जीविका कमाने वालों को तो मानवता के आत्म-गौरव की ओर ध्यान देना ही चाहिये साथ ही दाताओं को भी अपनी अवैधानिक दानवृत्ति में सुधार करना चाहिए। वे दान दें, किन्तु सत्पात्र को ही अथवा कुपात्र या अनाधिकारी को दान अथवा भिक्षा देने का अर्थ है—व्यक्ति के साथ, राष्ट्र के आत्म-गौरव को पतनगामी बनाने में सहायक होना। किसी की आत्मा को पतन की ओर प्रेरित या प्रोत्साहित करना एक पाप है, जिससे स्वयं प्रेरक की आत्मा भी प्रतिफल से प्रभावित होकर पतित हो जाती है। दाता अथवा याचक जो भी भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहित करता है, निश्चय रूप से राष्ट्रीय अपराध के साथ-साथ आत्मिक पाप करता है, जिससे अब बचने और बचे रहने में ही द्विविधि कल्याण है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118