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मृतक-भोज से किसी का कुछ लाभ नहीं

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समय के अनुसार जो समाज अपने अनुपयोगी, अनावश्यक एवं अहितकर रीति-रिवाजों का त्याग नहीं करते वे बदलती और बढ़ती हुई दुनियां में ज्यादा दिन नहीं टिक पाते। शीघ्र ही अपनी कुप्रथाओं के नागपाश में जकड़े हुए दम तोड़ देते हैं।

अपने भारतीय समाज में न जाने कितनी अनुपयुक्त प्रथा परम्परायें नागपाश की तरह लिपटी हुई हैं जिसके कारण वह प्रगति पथ पर वांछित गति से अग्रसर नहीं हो पा रहा है। इस समय अनेक हानिकारक प्रथाओं की तरह एक मृतक-भोज की प्रथा भी है।

यह मृतक-भोज की अनावश्यक प्रथा इतनी खर्चीली है कि लोगों की आर्थिक स्थिति ही बिगाड़ देती है। इसमें मित्रों के साथ जाति-बिरादरी के लगभग सभी लोगों को खिलाना-पिलाना पड़ता है। ऐसा नहीं कि यह खिलाना-पिलाना दिवंगत आत्मा के क्रिया-कर्त्ताओं की अपनी मर्जी पर निर्भर हो। यदि वह चाहे तो मृतक-भोज करें और यदि उनकी इच्छा न हो तो न करें।

यह एक अनिवार्य जातीय प्रथा है। इसमें किसी की मर्जी का कोई महत्व नहीं। जिसका कोई सम्बन्धी मर गया है उसे उसके शोक के साथ मृतक-भोज का दण्ड भोगना ही होगा। उसके सजातीय लोगों का खिलाना-पिलाना ही होगा। फिर इसके लिए किसी की आर्थिक स्थिति अनुमति देती है या नहीं इस प्रथा में इस विषय के लिए कोई भी गुंजाइश नहीं है। पैसा हो तो और पैसा न हो तो मृतक-भोज तो देना ही पड़ेगा। घर का जेवर बेचो, मकान रहन करो, कर्ज की भीख मांगों और मृतक भोज दो। नहीं तो विविध-विधि लांछनाओं से तिरस्कृत किया जायगा। जाति बाहर तक कर दिया जायेगा।

ऐसी दशा में तिरष्कार की दुर्गति से बचने के लिए लोगों को अपनी बर्बादी आमन्त्रित करके मृतक-भोज के लिए पैसा जुटा कर उक्त कुप्रथा का पेट भरना पड़ता है। मृतक-भोज की अपव्ययी प्रथा से अमीर गरीब किसी भी व्यक्ति का छुटकारा नहीं। सबको समान रूप से इसका पालन करना ही पड़ता है।

अमीर लोगों अथवा ऊंची हैसियत वालों की तो बात ही छोड़ दीजिये। आज के महंगे दिनों में जहां गरीब और अधिक गरीब होता जा रहा है वहां अमीरों की तिजोरियां चौड़ी होती जा रही हैं। अमीर और साधन सम्पन्न व्यक्तियों के पास तो आमदनी की कोई कमी नहीं रहती। मृतक-भोज जैसी खर्चीली प्रथा उनके लिए एक साधारण बात हो सकती है। किन्तु किसी समाज अथवा जाति में इस प्रकार के अमीर व्यक्ति कितने होते हैं? अधिक से अधिक चार छः प्रतिशत बाकी नब्बे-पिचानवें प्रतिशत तो ऐसे लोग ही होते हैं जिन्हें परिवार की अनिवार्य आवश्यकतायें ही पूरी करने में कठिनाई होती रहती है। इस नब्बे-पिचानवें प्रतिशत में आधे से अधिक ऐसे व्यक्ति होते हैं जिन्हें रोज कुंआ खोदना और रोज पानी पीना होता है। इस प्रकार अमीरों के योग्य मृतक-भोज जैसी खर्चीली प्रथा पांच कम शत प्रतिशत लोगों की अभावग्रस्त स्थिति को किस दयनीय दशा में बदल देती होगी, इसकी कल्पना मात्र करने से ही विचारवान लोगों का हृदय भर उठता है।

कहना न होगा कि समाज अथवा जातियों में जितने भी खर्चीले प्रचलन चल रहे हैं सब अमीरों के चलाए हुए चोचले ही हुआ करते हैं। क्योंकि अपव्ययी प्रदर्शनों तथा परम्पराओं के बहाने ही अमीरों को अपनी अमीरी दिखाने और उससे समाज अथवा जाति बिरादरी को प्रभावित करने का अवसर मिलता है। किसी धनी व्यक्ति का धन जब तक लोगों को प्रभावित नहीं करता उसके अहं को संतोष नहीं होता।

अमीरों के सिवाय गरीब आदमी धन साध्य किसी प्रथा परम्परा की कल्पना भी नहीं कर सकता। यदि वह किसी योजना की कल्पना करेगा भी तो अपनी हैसियत और औकात के क्षितिज तक। पैसे भर की समता रखने वाला रुपये तक की तैयारी सोच ही नहीं सकता। इस प्रकार की सारी खर्चीली खुराफातें आलसी अमीरों के दिमाग की ही उपज हुआ करती हैं। पैसे के लिये उनको कोई विशेष कष्ट तो उठाना नहीं पड़ता। अनापशनाप आमदनी होती रहती है, इसलिये नामवरी के लिए उसे खर्च करने में कोई पीड़ा भी नहीं होती।

इसके साथ एक बात यह भी होती है कि धनी व्यक्ति अपनी जाति-बिरादरी, समाज अथवा वर्ग के जन्म-जात नेता से ही हुआ करते हैं। साधारण लोग उन्हें अपनी जाति अथवा वर्ग का गौरव मानते हैं और उसी भावुकता में उन्हें अपना अगुवा भी मान लेते हैं। अस्तु अपनी नेतृत्व भावना को चरितार्थ करने के लिये वे अपने प्रदर्शनपूर्ण चोचलों को जातीय नियम मान लेने के लिए तरह-तरह से मजबूर भी कर लेते हैं। इस प्रकार जब उनके चोचले एक प्रथा बन जाती है, तब इस अपवाद का भय नहीं रहता कि वैसा करने में लोग उन्हें अभिमानी अथवा धन की शान दिखलाने वाला, अपने जातीय व्यवहारों में अपनी खिचड़ी अलग पकाने वाला कहेंगे। साथ ही जब उक्त प्रथाओं के अवसर पर वे तो उसके खर्चे को आसानी से वहन करते रहेंगे किन्तु साधारण श्रेणी का व्यक्ति जब उसके दबाव से पिसने लगेगा तब वह कितना ही स्वाभिमानी अथवा गुणी क्यों न हो उनकी आर्थिक क्षमता के सामने, मुंह फैला देगा और सहायता के लिए उनके पास दौड़ेगा और तब इस प्रकार योग्यताओं एवं गुणों पर धन को हावी रहने और समाज का नेतृत्व हाथ में बनाये रखने का अवसर बना रहेगा। इसके अतिरिक्त एक लाभ और भी इस प्रकार की खर्चीली प्रथायें चलते रहने और उनका पालन करते रहने की मजबूरी से है कि कोई भी साधारण व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से पनप कर उनके सम कक्ष नहीं आ सकता वह जो कुछ समय तक कमायेगा बचायेगा तब तक कोई एक अपव्ययी प्रथा आकर उसे खाली हाथ कर जायेगी। इस प्रकार उनकी अमीरी अधिक से अधिक अप्रतिम एवं निर्द्वन्द्वनी बनी रहेगी। भोले-भाले साधारण लोग अमीरों की इन गहराइयों को समझ नहीं पाते और ‘‘जो अपने बड़े लोग करते हैं वही हम लोगों को भी करना चाहिए।’’ की भावुकता में पड़ कर उनके चोचलों को सामाजिक अथवा जातीय प्रथा परम्परा के रूप में अंगीकार करके उसके गुलाम बन जाते हैं। इस प्रकार अपने हाथ से अपने गले में बर्बादी का नागपाश डाल देते हैं। इसलिये हर आदमी को असंदिग्ध रूप से यह विश्वास कर लेना चाहिए कि कोई भी खर्चीली प्रथा परम्परा, फिर उसके साथ धर्म का ही नाम क्यों न जुड़ा हुआ हो, किसी अवसर पर किसी धनवान का दिया हुआ चोचला मात्र ही होता है, जिसे जन साधारण ने भावुकता अथवा अज्ञानवश देखा देखी अपना लिया है। धर्म और आर्थिक अपव्ययिता का कोई संबंध नहीं होता है। धर्म का आधार सादगी, मितव्ययिता, सामान्यता, निरहंकारिता, सार्वजनिकता एवं निर्विकार भावना ही हुआ करती है। कष्टकर व्यवस्था अथवा आर्थिक आयोजनों का धर्म-कर्म से रत्ती भर भी सम्बन्ध नहीं होता। वास्तविकता धार्मिकता से उसका कोई सम्पर्क नहीं हो सकता।

शोक सम्वेदना के लिए घर आये हुए इष्ट-मित्रों को शिष्टाचार के नाते, यद्यपि उस समय न तो उसकी आवश्यकता होती है और न वह उपयुक्त होता है, जलपान के लिए पूछना किसी हद तक समझ में आता है किन्तु इतने बड़े भोज का आडम्बर किसी प्रकार भी समझ में नहीं आता।

लोक प्रियता पाने के लिए यदि कोई इस प्रकार के भोज करने लगे तो लोग उसे अहंकारी अपव्ययी, प्रदर्शनवादी न जाने क्या-क्या कहने लगेंगे। कहीं-कहीं तो मृतक-भोज में धार्मिकता के नाम पर लोग अपना काम बना जाते हैं। शादी बारातों में तो लोग समय अभाव तथा स्वाभिमान के नाते जाने में कभी-कभी आनाकानी भी करते हैं किन्तु मृतक भोज जैसे शोकपरक आयोजनों में सम्वेदना के नाते अधिक से अधिक लोग आते और अमीरी के चोचले से प्रभावित एवं प्रसन्न होकर चले जाते हैं।

किन्तु दुर्भाग्य से अमीरी का यह चोचला प्रथा बन कर समाज के साधारण एवं निर्धन लोगों के गले की फांसी बन गया है। यदि वे मृतक-भोज की इस भयानक प्रथा का पालन करते हैं तो बर्बाद होते हैं और यदि इन्कार करते हैं तो जाति बहिष्कृत समझे जाते हैं। इस संकट से बचने के लिए समाज के साधारण लोगों से ही अपील की जा सकती है कि वे सब अपनी आर्थिक बर्बादी बचाने के लिये अमीरों के चोचले इस मृतक-भोज की हत्यारी प्रथा को अमीरों का विषय मान कर साहसपूर्वक छोड़ दें। इसके पीछे न तो कोई धार्मिकता है न शास्त्रीयता और न मृतात्मा का कल्याण। यह विशुद्ध रूप से एक प्रदर्शन है, एक आडम्बर है जिसकी नकल करने में अन्य लोगों पर ही कुप्रभाव पड़ता है।

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